Ashtavakra Gita Ultimate Wisdom of Non-Duality, Self-Realization & Moksha unveils the Profound Teachings of Sage Ashtavakra, guiding seekers toward Advaita (Non-Duality) and Liberation (Moksha). This sacred dialogue between Ashtavakra and King Janaka emphasizes the Illusion of Ego, Detachment, and the Nature of Pure Consciousness. By realizing the Self as Eternal and Unchanging, one transcends worldly bondage and attains Absolute Freedom and Bliss. Ashtavakra Gita remains a timeless beacon of Spiritual Enlightenment and Inner Peace. 🕉️✨
अष्टावक्र गीता आज एक प्राचीन वैदिक ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है, जिसमें ऋषि अष्टावक्र और राजा जनक के मध्य हुए गूढ़ संवाद संकलित हैं। इस ग्रंथ का आरंभ राजा जनक द्वारा पूछे गए तीन मौलिक प्रश्नों से होता है—ज्ञान की प्राप्ति कैसे संभव है? मुक्ति कैसे प्राप्त होगी? तथा वैराग्य का उदय कैसे होगा? ये प्रश्न शाश्वत हैं, जो प्रत्येक युग में आत्म-अनुसंधान के पथिकों द्वारा पूछे जाते रहे हैं।
ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों का समाधान राजा जनक के साथ संवाद के रूप में प्रस्तुत किया, जो कालांतर में "अष्टावक्र गीता" के रूप में विख्यात हुआ। इस संवाद में आत्मज्ञान, मुक्ति तथा वैराग्य के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट किया गया है, जो प्रत्येक जिज्ञासु के लिए आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान करता है।
प्रस्तुत है अद्वैत वेदांत पर आधारित ग्रंथ अष्टावक्र गीता: राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र का संवाद
राजा जनक ने ज्ञान-प्राप्ति और मुक्ति के लिए अष्टावक्र के समक्ष विनम्रतापूर्वक प्रश्न किया -
"हे प्रभु! ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? मुक्ति कैसे होती है? और वैराग्य कैसे प्राप्त होता है? कृपया मुझे इसका उत्तर दें।"
सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्ति और मुक्ति के लिए राजा जनक के प्रश्नों का उत्तर देते हुए अष्टावक्र कहते हैं—
"हे प्रिय! यदि तू मोक्ष चाहता है तो विषयों को विष के समान त्याग दे और कामना, तृष्णा, अहंकार, दया, संतोष और सत्य को समान भाव से स्वीकार कर।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"तू न पृथ्वी है, न जल, न अग्नि, न वायु और न ही आकाश। मुक्ति के लिए अपने को इन सबका साक्षी, शुद्ध चैतन्य रूप जान।"
"यदि तू शरीर से भिन्न होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाए और साक्षी भाव में स्थिर हो जाए, तभी तू सुखी, शांत और बंधनों से मुक्त हो सकेगा।"
"न तू ब्राह्मण है, न ही कोई अन्य वर्ण से संबंध रखता है। न ही तू इंद्रियों का विषय है, न ही तू कोई वस्तु है। यह जानकर ही तू सच्चे आनंद को प्राप्त कर सकता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"हे विभो! धर्म और अधर्म, सुख और दुख केवल मन के विचार हैं, तेरे लिए नहीं। न तू कर्ता है, न भोगता। तू तो सर्वथा मुक्त ही है।"
"तू स्वयं एकमात्र निष्कलंक है और सदा से पूर्णतः मुक्त है। तेरा बंधन तो यही है कि तू अपने को छोड़कर किसी को शुद्ध और किसी को अशुद्ध देखता है।"
"यदि तू यह मान बैठा है कि 'मैं कर्ता हूँ', तो तू गहरे अज्ञान में बंधा हुआ है। और यदि तू इस विश्वास को त्यागकर 'मैं कर्ता नहीं हूँ' का बोध कर ले, तो तुरंत ही मुक्त होकर आनंदित हो जाएगा।"
"यदि तू यह सोचता है कि 'मैं एक सीमित बोलने वाला हूँ', तो तू गहरे अज्ञान में डूबा हुआ है। परंतु यदि तू इस भ्रांति को त्यागकर स्वयं को असीम और शुद्ध चैतन्य रूप में देखे, तो तू तुरंत ही शुद्ध होकर परम आनंद को प्राप्त करेगा।"
"जहाँ यह संसार केवल शब्दों की हलचल के समान चंचल और अस्थिर प्रतीत होता है, वहीं परम आनंद मौन में स्थित है। इसलिए, हे राजन! तू प्रसन्नचित्त होकर विचार कर।"
"मुक्ति का स्वभाव स्वतंत्रता है, और बंधन का स्वभाव बंधन ही है। यहाँ यह अटल सत्य है कि जैसी मनोवृत्ति होती है, वैसी ही गति होती है।"
"आत्मा साक्षी है, निरपेक्ष है, पूर्ण है, एक है, मुक्त है, स्वभाव से ही शुद्ध है। यह क्रियाओं से रहित, स्वरूप से ही शून्य, इच्छारहित और शांत है। यह मात्र भ्रांति के कारण संसार रूपी बंधन में प्रतीत होती है।"
"मैं अहंकार रूपी भ्रांति में हूँ।" हे राजन! "इस भ्रम और बाहरी-भीतरी विचारों को छोड़कर, निष्कपट और निश्चल बनकर, आत्मा के स्वरूप का विचार करो।"
"हे पुत्र! तू लंबे समय से दुखों के जाल में फँसा हुआ है।"
अब "उसी जाल को 'मैं' समझने की भ्रांति से मुक्त होकर, इस ज्ञान के प्रकाश से उसे दूर कर, आनंदित हो जा।"
"तू निराकार है, क्रियाओं से रहित है, स्वयं प्रकाशस्वरूप है और निष्क्रिय है।" लेकिन "तेरा भ्रम यही है कि तू प्राप्ति के लिए प्रयास कर रहा है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"यह संसार तुझमें व्याप्त है और तू ही इसमें प्रकट हुआ है।" "वास्तव में तू शुद्ध आत्मस्वरूप है, अतः निश्चल बुद्धि से सत्य का ज्ञान प्राप्त कर।"
"तू निष्प्रभ, निःसंग, निर्विकार और शांत है। तू ही मुक्तिका स्थान है और तू ही परम आनंदस्वरूप है।"
"अतः केवल अपनी शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जा और पूर्ण स्थिरता को प्राप्त कर।"
"संपूर्णता को क्षणभंगुर समझो और अस्थिर को स्थायी मानने की भूल मत करो।"
"इस सत्य को जान लेने पर संसार में पुनः जन्म और मरण का चक्र समाप्त हो जाता है।"
"जिस प्रकार आभासित प्रतिबिंब अपने भीतर और बाहर व्याप्त रहता है, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर और बाहर विद्यमान है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जिस प्रकार सर्वव्यापी आकाश घट के भीतर और बाहर स्थित रहता है, उसी प्रकार शाश्वत और असीम ब्रह्म समस्त भूतों में विद्यमान है।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता प्रथमोध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र के उपदेश को सुनते ही राजा जनक को आत्मज्ञान प्राप्त हो गया। वे बोले—
"मैं पूर्ण मुक्त हूँ, शांति स्वरूप हूँ, ज्ञान स्वरूप हूँ, प्रकृति से परे हूँ, निरंकार हूँ। फिर भी, इतने समय तक अज्ञान के कारण मैं मोह में भटकता रहा।"
"जिस प्रकार मैं इस शरीर को प्रकाशित करता हूँ, उसी प्रकार यह संपूर्ण संसार भी मेरे द्वारा प्रकाशित होता है। इसलिए, यह संपूर्ण संसार मेरा ही स्वरूप है— या फिर कुछ भी नहीं।"
आश्चर्य यही है कि शरीर सहित इस समस्त संसार का त्याग करके, मैं अब केवल परमात्मा को देखता हूँ।"
"जिस प्रकार जल से लहर, झाग और बुलबुले भिन्न नहीं होते, उसी प्रकार यह संसार आत्मा से भिन्न नहीं है, बल्कि आत्मा से ही उत्पन्न हुआ है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जिस प्रकार विचार करने से वस्तु तंतु मात्र ही रह जाती है, उसी प्रकार विचार करने से यह संसार केवल आत्मतत्त्व ही प्रतीत होता है।"
"जिस प्रकार ईख के रस से बनी हुई खांड ईख के रस में ही व्याप्त रहती है, उसी प्रकार यह सारा संसार मुझमें ही व्याप्त है।"
"आत्मा की अज्ञानता से यह संसार वास्तविक प्रतीत होता है, आत्मा के ज्ञान से नहीं। जैसे स्वप्न के अज्ञान से उसमें बंधन प्रतीत होता है, परंतु ज्ञान से नहीं।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"प्रकाश मेरा निजी स्वरूप है, मैं उससे भिन्न नहीं हूँ। जब यह संसार प्रकाशित होता है, तब वह मेरे द्वारा ही प्रकाशित होता है।"
"विचार करने पर स्पष्ट होता है कि यह नश्वर संसार अज्ञान से मुझे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे किसी दर्पण में परछाईं, जल में लहरें या सूर्य की किरणों से जल का कंपन।"
"मुझसे उत्पन्न हुआ यह संसार मुझमें ही विलीन होगा, जैसे मिट्टी में कण, जल में तरंग और काष्ठ में अग्नि विलीन हो जाते हैं।"
"मैं शुद्ध आत्मा हूँ। मुझे न स्वीकार है, न अस्वीकार। ब्रह्म से लेकर तृण तक प्रकट होने पर भी मेरा प्रकाश मंद नहीं होता, क्योंकि मैं सनातन हूँ।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"मैं शुद्ध आत्मा हूँ। मुझे न स्वीकार है, न अस्वीकार। मैं देहधारी होते हुए भी निरंतर अकर्ता हूँ। न कहीं जाता हूँ, न कहीं आता हूँ, और संसार में सदा स्थित रहता हूँ।"
"मैं शुद्ध आत्मा हूँ। मुझे न स्वीकार है, न अस्वीकार। इस संसार में मेरे समान निष्कलुष कोई नहीं, क्योंकि बिना देह को प्रकाशित किए ही मैं इस जगत को सदा-सदा धारण किए रहता हूँ।"
"मैं शुद्ध आत्मा हूँ। मुझे न स्वीकार है, न अस्वीकार। मेरा कुछ भी नहीं है, या फिर मेरा सब कुछ है— यह मात्र मन और वाणी का विषय है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय— ये तीनों केवल कल्पनाएँ हैं। जहाँ ये तीनों अज्ञान से ही उत्पन्न होते हैं। मैं तो केवल शुद्ध मुक्त स्वरूप हूँ।"
"अहो! दुःख का मूल केवल भ्रम है, उसकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं। यह सब केवल एक मिथ्या दृष्टि है। मैं तो शुद्ध, निरपेक्ष चेतना मात्र हूँ।"
"मैं केवल साक्षी मात्र हूँ, किंतु अज्ञानवश मैंने उपलब्धि की कल्पना कर ली। इस प्रकार, शाश्वत चिंतन करते हुए मैं स्वयं परम स्वतंत्रता में स्थित हूँ।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"विचारणीय है कि जो संसार मुझमें स्थित प्रतीत होता है, वह वास्तव में मुझमें स्थित नहीं है। अतः न तो मेरा कोई बंधन है, न ही मोक्ष। समस्त संकल्पों से मुक्त होकर, मेरी स्थिति शुद्ध शांति में स्थापित हो गई है।"
"विचार ही शरीर-संबंधी यह संसार है, अन्यथा यह कुछ भी नहीं है। जो शुद्ध, निर्विकार, परिपूर्ण आत्मा है, उसकी कल्पना भी कैसे की जाए?"
"यह शरीर, ब्रह्मांड, बंधन, मोक्ष और हानि—सभी केवल कल्पनाएँ ही हैं। इनसे मुझे शुद्ध चैतन्य आत्मा का क्या प्रयोजन?"
"विचार करने योग्य है कि समाज में भी मुझे कहीं भेदभाव दिखाई नहीं देता। यदि यह सारा संसार ही मिथ्या हो गया, तो फिर मैं किससे प्रेम करूँ?"
"न तो मैं यह शरीर हूँ, न यह शरीर मेरा है। न मैं जीव हूँ। वास्तव में, मैं तो शुद्ध चैतन्य हूँ। मेरा यही भ्रम था कि मेरे जीने की कोई इच्छा थी।"
"जैसे असीम समुद्र में हवा के चलने से तुरंत ही लहरें, तरंगें और झाग उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही मुझमें यह दृश्य जगत प्रकट होता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जैसे असीम महासागर में वायु के शांत होने पर व्यापारी के प्रयास से नाव को गंतव्य का प्रकाश प्राप्त होता है, वैसे ही मुझमें चेतना रूपी जगत आत्मज्ञान से अपने वास्तविक स्वरूप का बोध प्राप्त करता है।"
"आश्चर्य है, अनंत महासागर के समान मेरे भीतर जीवन-तरंगें उठती हैं, परस्पर जुड़ती हैं, नृत्य करती हैं और स्वयं ही लय हो जाती हैं"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र राजा जनक की परीक्षा लेते हुए पूछते हैं—
"क्या इन्हें वास्तव में आत्मज्ञान हो गया है या केवल आत्मज्ञान की अनुभूति हुई है? यदि आत्मा वास्तव में एक और अद्वितीय है, तो फिर यह आत्मज्ञानी व्यक्ति धन संग्रह करने में संलग्न क्यों है?"
"विचार करने योग्य है कि आत्मा की अज्ञानता से विषयों की उत्पत्ति वैसे ही होती है, जैसे सीप की अज्ञानता से उसमें चमकती हुई चाँदी का भ्रम उत्पन्न होता है।"
"जहाँ यह संसार आत्मा में समुद्र में तरंग के समान प्रकाशित होता है, वहीं मैं हूँ, ऐसा जानकर तू भला जल की तरह क्यों बिखरता है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"आत्मा को शुद्ध, दिव्य और अत्यंत सुंदर सुनने के बाद भी, कोई भला किसी इन्द्रिय के विषय में अत्यधिक आसक्त होकर मोह को कैसे प्राप्त कर सकता है?"
"सभी भूतों में आत्मा को और आत्मा में सभी भूतों को जानकर भी, मुनि को ममता होती है। यही आश्चर्य है।"
"परम समत्व में स्थित होकर और इच्छा के लिए भी प्रवृत्त हुआ, मनुष्य कर्म के योग से पूर्णता को प्राप्त करता है, यही आश्चर्य है।"
"कर्म को परम ज्ञान का साधन जानकर भी, कोई अत्यंत कठिनाई और विपरीत समय को प्राप्त हुआ मनुष्य कर्म करने की इच्छा करता है, यही आश्चर्य है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो भोग-लालसा और त्याग-लालसा के प्रभाव से मुक्त है और जो नश्वर तथा शाश्वत का विचार रखता है, वह भी मोक्ष की इच्छा करने पर मोक्ष से बंध जाता है, यही आश्चर्य है।"
"धीर पुरुष तो कर्म करता हुआ भी और भोगता हुआ भी केवल आत्मा को देखता है, न कि प्राप्ति में हर्षित होता है और न बंधन में उद्विग्न होता है।"
"जो अपने पवित्र शरीर को दूसरे के शरीर के समान देखता है, वह महान पुरुष समर्पण और तृप्ति में भी कैसे क्लेश को प्राप्त कर सकता है?"
"जो इस संसार को माया स्वरूप देखता है, और जो आत्मज्ञान को प्राप्त कर चुका है, वह ज्ञानी पुरुष मृत्यु के आने पर भी क्यों व्याकुल होगा?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जिस महात्मा का मन वासना (इच्छाओं) में भी लिप्त नहीं होता, उस आत्मज्ञानी पुरुष की तुलना किससे की जाए?"
"जो जानता है कि यह दृश्य स्वाभाविक रूप से कुछ भी नहीं है, वह विवेकी पुरुष कैसे देख सकता है कि यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्याग करने योग्य है?"
"जिसने अंतःकरण की तृष्णा का त्याग कर दिया है और जो निरंतर निर्लिप्त एवं आशारहित है, ऐसे पुरुष को देवोपासना से प्राप्त भोगों में न सुख है, न दुःख।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
॥ श्रीअष्टावक्रगीता तृतीयोऽध्यायः समाप्तः॥
जनक कहते हैं -
"गुरो! भोग-विलास के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीर पुरुष की चंचल संसार में सिर पर बोझ ढोने वाले मूढ़ पुरुषों के साथ कैसे तुलना की जा सकती है?"
"जिस पद की इच्छा करते हुए इन्द्रादि सम्पूर्ण देवता नतमस्तक हो रहे हैं, उसी पद पर स्थित होकर भी योगी जन हर्ष प्राप्त नहीं करते— यही वैराग्य है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"उस पद को जानने वाले के विलय का संकेत वैसे ही पुण्य और पाप के साथ नहीं होता, जैसे आकाश का संबंध धूल से होकर भी उसमें मिश्रित नहीं होता।"
"जिस महान आत्मा ने इस समस्त संसार को आत्मा के रूप में जान लिया है, उस ज्ञानी को अपनी इच्छा के अनुसार आचरण करने से कौन रोक सकता है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"ब्रह्म से चींटी तक चार प्रकार के जीवों के समूह में, ज्ञान की ही इच्छा और अनिच्छा को रोकने में सामर्थ्य है।"
"कोई विरला ही आत्मा को निष्क्रिय और जगदीश्वर रूप में जानता है। वह जो इसे करने योग्य मानता है, वही इसे करता है।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र राजा जनक से मोक्ष का उपाय बताते हुए कहते हैं—
"तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, इसलिए तुम शुद्ध हो। फिर किसका त्याग करना चाहते हो?
इस प्रकार निष्काम भाव से त्याग की इच्छा करो और मोक्ष को प्राप्त हो।"
"तुझसे संसार उत्पन्न होता है, जैसे समुद्र से बुलबुला। इस प्रकार आत्मा को एक जानकर मोक्ष को प्राप्त हो।"
"दृश्यात्मक जगत परिवर्तनशील होता हुआ भी जाग्रत स्फूर्ति की भाँति तुझ शुद्ध के लिए नहीं है। अतः तू मोक्ष को प्राप्त हो।"
"दुःख और सुख जिसके लिए समान हैं, जो पूर्ण है, जो आशा और निराशा में समान है, जो जीवन और मृत्यु में समान है, ऐसा होकर तू मोक्ष को प्राप्त हो।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
॥ श्रीअष्टावक्रगीता पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः ॥
"मैं आकाश के समान अनंत हूँ। यह संसार बादलों के समान नश्वर है, ऐसा ज्ञान है। अतः न इसका त्याग है, न ग्रहण और न ही यत्न।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"मैं सागर के समान हूँ, यह संसार तरंगों के समान है, ऐसा ज्ञान है। अतः न इसका त्याग है, न ग्रहण और न ही इसका प्रयास।"
"मैं सीपी के समान हूँ, और संसार की कल्पना चाँदी के समान है, ऐसा ज्ञान है। अतः न इसका त्याग है, न ग्रहण, न ही प्रयास।"
"मैं निश्चय ही सभी भूतों में हूँ, और ये सभी भूत मुझमें हैं, ऐसा ज्ञान है। अतः न इसका ग्रहण है, न त्याग, न ही प्रयास।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥
"मैं अनंत महासागर में संसार रूपी नौका को अपनी ही विस्तृत वायु से इधर-उधर चलाता हूँ। मुझे अस्थिरता नहीं है।"
"मुझ अंतहीन महासमुंद में जगत रूपी लहर स्वभाव से उदय हो चाहे नष्ट। मेरी न वृद्धि है, न हानि।"
"मुझे अनंत आकाश के समान विचार ही इस संसार की कल्पनामात्र प्रतीत होता है। मैं पूर्णतः शांत हूँ, निष्क्रिय हूँ, और इसी अवस्था में स्थित हूँ।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"आत्मा किसी विषय में नहीं है, और कोई विषय आत्मा में नहीं है। इस प्रकार मैं सर्वथा निष्पंद, शून्य से परे और पूर्ण स्वतंत्र हूँ— और इसी अवस्था में स्थित हूँ।"
"अहो! मैं शुद्ध चेतन स्वरूप हूँ। यह संसार मात्र एक जड़ प्रतिमा की भाँति है। फिर मेरे लिए इच्छा और प्राप्ति की कल्पना कहाँ संभव है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
॥ श्रीअष्टावक्रगीता सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र मोक्ष और बंधन की व्याख्या करते हुए कहते हैं—
"जब चित्त कुछ चाहता है, कुछ सोचता है, कुछ त्यागता है, कुछ ग्रहण करता है, जब दुखी और सुखी होता है— तभी बंधन होता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जब मन कुछ नहीं चाहता, न सोचता है, न त्यागता है, न ग्रहण करता है। जब न यह सुखी होता है, न दुखी— तभी मोक्ष होता है।"
"जब चित्त किसी दृष्टि या विषय में उलझा होता है, तब बंधन होता है। और जब चित्त सभी दृष्टियों से अतीत हो जाता है, तब मोक्ष होता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जब तक 'मैं' हूँ, तब तक बंधन है। जब 'मैं' नहीं रहता, तब मोक्ष होता है। इस प्रकार विचार कर, न इच्छा कर, न ग्रहण कर, न त्याग कर।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता अष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र आगे कहते हैं—
"किया और न किया कर्म, तथा शुभ-अशुभ कर्म कब शांति को प्राप्त हुए हैं? इस प्रकार निश्चयपूर्वक जानकर, इस संसार से निरासक्त होकर, त्याग और वैराग्य को धारण कर।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"हे तात! लोक की चेष्टा (व्यवहार, उत्पत्ति और विनाश) को देखकर, किसी निर्जीव शरीर की ही जीने की इच्छा, भोगने की आकांक्षा और ज्ञान की इच्छा समाप्त हो गई है।"
"यह सब असत्य है, तीनों कालों से परे है, मिथ्या है, नश्वर है, ऐसा निश्चय होने पर ही शांति प्राप्त होती है।"
"वह कौन सा काल और कौन सी अवस्था है, जिसमें मनुष्य को न सुख होता है, न दुख? जब वह अपनी इच्छाओं को त्यागकर, वस्तुओं में तृप्ति की आशा छोड़ देता है, तभी वह पूर्णता को प्राप्त करता है।"
"महापुरुषों, योगियों और संतों के विचार भिन्न-भिन्न होते हैं। इसे देखकर जो व्यक्ति इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, वही शांति प्राप्त करता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो व्यक्ति इच्छा, विनम्रता और शक्ति के द्वारा आत्मा के सत्य स्वरूप को जानकर संसार में स्वयं को स्वतंत्र करता है, क्या वह योगी नहीं है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जब तू भौतिक पदार्थों (जैसे पृथ्वी, इंद्रियाँ आदि) को तत्वत: मात्र भौतिक स्वरूप में देखेगा, तभी तू उनके नाश से उत्पन्न बंधन से मुक्त होकर अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित हो जाएगा।"
"सुख ही संसार है, इसलिए इन सभी सुखों का त्याग कर। सुख के त्याग से ही संसार का त्याग संभव है। अब जहाँ चाहो, वहाँ स्थित रहो।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
॥ श्रीअष्टावक्रगीता नवमोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं—
"वैर रूपी कर्म और अनर्थ से भरे अर्थ को त्याग दे, और इन दोनों के कारण स्वरूप धर्म को भी छोड़कर, सबकी उपेक्षा कर।"
"मित्र, खेत, धन, घर, स्त्री, भाई आदि सभी संबंधों को तू अपने स्वयं के समान और जड़ पदार्थों के समान देख, जो मात्र तीन या पाँच दिनों में नष्ट हो जाते हैं।"
"जहाँ-जहाँ आकर्षण है, वहीं-वहीं संसार को जान। सच्चे वैराग्य को धारण कर, आसक्ति का त्याग कर, और पूर्ण स्वतंत्र होकर आनंदित हो।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"आसक्ति ही आत्मा का बंधन है, और उसका नाश ही मोक्ष कहलाता है। जब तू संसार से विमुक्त हो जाता है, तभी पूर्ण प्राप्ति और तृप्ति संभव होती है।"
"तू मात्र एक शुद्ध आत्मा है, संसार परिवर्तनशील और नश्वर है। यह अज्ञान भी नश्वर ही है, फिर भी तू इसे जानने की इच्छा क्यों रखता है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"तेरा राज्य, पुत्र, पत्नियाँ, शरीर और सुख जन्म-जन्मांतर से नष्ट होते रहे हैं, फिर भी तू उनमें आसक्त था।"
"अर्थ, काम और शुभ कर्म बहुत किए जा चुके, फिर भी इनसे संसार रूपी जाल में मन की शांति प्राप्त नहीं हुई।"
"कितने जन्मों तक तूने इस शरीर, मन और वाणी से दुखपूर्ण और श्रमपूर्ण कर्म नहीं किए? अब तो विश्राम कर, अब तो शांत हो जा।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
॥ श्रीअष्टावक्रगीता दशमोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं—
"भाव और अभाव की उत्पत्ति स्वभाव से होती है। जो इसे भलीभांति जान लेता है, वह विकारों और संशयों से रहित होकर सहज ही शांति को प्राप्त करता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"समस्त सृष्टि का रचनाकार ईश्वर ही है, और अन्य कोई नहीं। जो इस सत्य को भली-भांति जान लेता है, वह पुरुष शांति को प्राप्त करता है। उसकी समस्त आशाएँ संसार के बंधन से मुक्त हो जाती हैं, और वह कहीं भी आसक्त नहीं रहता।"
"भोग और संपत्ति केवल पुण्य के फलस्वरूप समय पर प्राप्त होते हैं। जो इस सत्य को भली-भांति जान लेता है, वह सदा संतुष्ट और स्वस्थ चित्त वाला हो जाता है— न वह किसी की इच्छा करता है, न किसी की निंदा करता है।"
"सुख-दुख, जन्म-मरण केवल पूर्वकृत पुण्य और पाप कर्मों के परिणामस्वरूप होते हैं। जो इस सत्य को भली-भांति जान लेता है, वह संसार के कार्यों को देखता हुआ भी उनमें लिप्त नहीं होता और निःस्पृह भाव से व्यवहार करता है।"
"इस संसार में केवल चिंतन (मन की कल्पनाएँ) ही दुख का कारण बनता है, अन्यथा नहीं। जो इस सत्य को भली-भांति जान लेता है, वह सदा आनंदित और शांत रहता है। उसकी समस्त इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, और वह चिंता से मुक्त हो जाता है।"
"मैं यह शरीर नहीं हूँ, न ही यह देह मेरी है। मैं तो शुद्ध चेतन स्वरूप हूँ। जो इस सत्य को भली-भांति जान लेता है, वह ज्ञानी होकर किए और न किए गए कर्मों का स्मरण नहीं करता।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"ब्रह्म से लेकर तृणपर्यन्त 'मैं ही हूँ', ऐसा जो निश्चय पूर्वक जान लेता है, वह विकार, पवित्रता, शांति, प्राप्ति और अप्राप्ति से पूर्णतः मुक्त हो जाता है।"
"यह संसार, जो असंख्य कल्पनाओं से भरा हुआ प्रतीत होता है, वास्तव में कुछ भी नहीं है— यह केवल माया है। जो इस सत्य को भली-भांति जान लेता है, वह इच्छारहित, निःशब्द और शुद्ध आत्मस्वरूप होकर इस प्रकार शांति को प्राप्त करता है, जैसे मानो कुछ भी अस्तित्व में नहीं है।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता एकादशोऽध्यायः समाप्तः ॥
राजा जनक आत्मज्ञान के बाद हुई अनुभूतियों का वर्णन अष्टावक्र जी के सामने करते हुए कहते हैं -
"पहले मैं शरीर से जुड़े कर्मों का संलग्न अनुभव करता था, फिर वाणी से होने वाले विविध कर्मों में भी संलग्न था। परंतु अब मैं इन सबसे मुक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित हूँ।"
"शब्द आदि इंद्रिय विषयों के प्रति आकर्षण की समाप्ति से, और आत्मा की निर्मलता से प्राप्त ज्ञान द्वारा जिसका मन मुक्त होकर अचल हो गया है— वही अपने स्वरूप में स्थित होता है।"
"श्रवण, मनन और ध्यान आदि के परिणामस्वरूप ही ज्ञान उत्पन्न होता है और तभी तटस्थता का व्यवहार संभव होता है। इस नियम को भली-भांति जानकर मैं तटस्थ होकर अपने स्वरूप में स्थित हूँ।"
"हे ब्रह्मन्! इच्छा और प्राप्ति के प्रयत्न से जो हर्ष और विषाद उत्पन्न होता है, उसके अभाव में अब मैं जैसा हूँ, वैसा ही स्थिर हूँ।"
"वर्ण है, अवर्ण है, ध्यान है और चिंतन की स्वीकृति और तन्मयता है। इन सबसे उत्पन्न हुए अपने विकल्पों को देखकर, मैं उनसे मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हूँ।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जैसे कर्म का अनुष्ठान अज्ञान से होता है, वैसे ही उसके त्याग का अनुष्ठान भी अज्ञान से होता है। इस सत्य को भली-भांति जानकर, मैं कर्म और अकर्तव्य दोनों से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हूँ।"
"जो विचार स्वयं ब्रह्म का चिंतन करता है, वह भी अंततः विचार को ही उत्पन्न करता है। इसलिए, उस भाव का त्याग कर मैं भावों से मुक्त होकर अपने स्वरूप में स्थित हूँ।"
"जिसने इंद्रियों के कार्यों से रहित स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, वह मुक्त है। और जो स्वभाव से ही मुक्त है, वह तो सदा ही मुक्त है— इसमें कहने को क्या है?"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता द्वादशोऽध्यायः समाप्तः ॥
"नहीं है कुछ भी - ऐसे भाव से पैदा हुआ जो स्वास्थ्य (चित्त की स्थिरता) है वह कोपीन धारण करने पर भी दुर्लभ है। इसलिए, ग्रहण और त्याग दोनों को छोड़कर, मैं पूर्ण प्रसन्नता में स्थित हूँ।"
"कहीं शरीर दुखी होता है, कहीं वाणी दुखी होती है, और कहीं मन दुखी होता है। इसलिए, इन तीनों का त्याग कर, मैं आत्मानंद में पूर्ण प्रसन्नता से स्थित हूँ।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"किया हुआ कर्म वास्तव में आत्मस्वरूप को प्रभावित नहीं करता। इस प्रकार विचार कर, जब भी कोई कर्म करने की स्थिति आती है, मैं उसे करके पूर्ण संतोष के साथ स्थित रहता हूँ।"
"जो योगी कर्म और अकर्म के बंधन से मुक्त होकर इस शरीर में निवास करता है, मैं उस भौतिक संबंधों से पूर्णतः परे होने के कारण पूर्ण शांति में स्थित हूँ।"
"मुझे ठहरने, चलने या बोलने से न कोई अर्थ प्राप्त होता है और न ही अनर्थ। इसी कारण, ठहरते हुए, चलते हुए और बोलते हुए भी मैं पूर्ण आनंद में स्थित हूँ।"
"बोलने से मुझे हानि नहीं होती, न ही मौन धारण करने से मुझे कोई सिद्धि प्राप्त होती है। इसलिए, हानि और लाभ दोनों को त्यागकर मैं पूर्ण प्रसन्नता में स्थित हूँ।"
"इसलिए, विभिन्न परिस्थितियों में सुख आदि की असारता को बार-बार देख कर, और शुभ तथा अशुभ दोनों का त्याग कर, मैं पूर्ण प्रसन्नता में स्थित हूँ।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
॥ श्रीअष्टावक्रगीता त्रयोदशोऽध्यायः समाप्तः ॥
राजा जनक कहते हैं -
"निश्चित रूप से जो व्यक्ति स्वभाव से ही शुद्ध-बुद्ध और निर्मल है, लेकिन बाहरी इच्छाओं में प्रवृत्त होता है, वह ऐसे ही व्याकुल और चंचल बना रहता है, जैसे कोई अंधा व्यक्ति दृष्टिहीनता के कारण मार्ग भटकता है।"
"जब मेरी समस्त इच्छाएँ नष्ट हो गईं, तब मेरे लिए न धन रहा, न मित्र, न विषयों में कोई आकर्षण, न शास्त्रों का बंधन और न ही किसी ज्ञान की आवश्यकता।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो साक्षीस्वरूप पुरुष, परमात्मा, ईश्वर, आशा-मुक्ति और बंधन-मुक्ति के तत्व को जान चुका हो, उसे मुक्ति के लिए कोई चिंता नहीं रह जाती।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो भीतर से विकल्परहित और शुद्ध है तथा बाहर से सामान्य व्यक्ति के समान व्यवहार करता है, ऐसे ज्ञानी पुरुष को केवल वैसा ही ज्ञानयुक्त पुरुष पहचान सकता है।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता चतुर्दशोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं—
"सत्य से युक्त बालक स्वरूप पुरुष सहज ही मुक्त हो जाता है, जबकि असत्य में लिप्त व्यक्ति अनेक साधनों से भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता और केवल भ्रम में ही उलझा रहता है।"
"विषयों से विमुख होना ही मोक्ष है, और विषयों में आसक्त होना ही बंधन है। यही एकमात्र ज्ञान है। अब तू जैसा चाहे वैसा कर।"
"यह तत्वज्ञानयुक्त वाणी, साधारण बुद्धि और महान योगियों के लिए भी गूढ़ है। यह उन्हें भ्रमित कर सकती है और उलझा सकती है। इसलिए, जो भोग की इच्छा रखते हैं, वे इस तत्वज्ञान को समझने में असमर्थ रहते हैं।"
"तू यह शरीर नहीं है, न ही यह शरीर तेरा है। न तू भोक्ता है, न ही कर्ता। तू तो शुद्ध आत्मस्वरूप, नित्य, साक्षी और निष्प्रभ है। इसलिए, प्रसन्नचित्त होकर विचार कर।"
"आसक्ति और विरक्ति मन के धर्म हैं, परंतु तू मन नहीं है। तू तो निर्लिप्त, निराकार, शुद्ध साक्षी और आत्मस्वरूप है। इसलिए, प्रसन्नचित्त होकर विचर" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"सब भूतों में आत्मा को और समस्त भूतों को आत्मा में देख, तू अहंकार और ममता से रहित हो जाएगा। इस ज्ञान के द्वारा तू सदा आनंदित रहेगा।"
"जिसमें यह समस्त संसार तरंगों के समान प्रकट होता है, वह तू ही है, इसमें कोई संदेह नहीं। हे चैतन्य स्वरूप! तू पूर्णतः निर्लेप और निर्विकार हो जा।"
"हे तात! तृष्णा का पूर्णतः त्याग कर, तृष्णा का पूर्णतः त्याग कर। इसमें कोई संशय न कर। तू ज्ञानस्वरूप, ईश्वरस्वरूप आत्मा है और प्रकृति से सर्वथा परे है।"
"गुणों से युक्त यह शरीर आता-जाता रहता है, परंतु आत्मा न जाने वाली है, न आने वाली। फिर तू इसके बारे में क्यों चिंतन करता है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"देह चाहे कल्प के अंत तक रहे चाहे वह अभी नष्ट हो जाए, तेरे शुद्ध आत्मस्वरूप में न कोई वृद्धि होती है, न कोई हानि।"
"तुझे अनंत आकाश के समान संसार रूपी तरंगें अपने स्वभाव से प्रकट और लय होती हुई प्रतीत होती हैं, परंतु न तेरी वृद्धि होती है, न ही किसी प्रकार की हानि।"
"हे तात! तू शुद्ध आत्मस्वरूप है, तुझसे यह सारा संसार भिन्न नहीं है। इसलिए, इच्छा और प्राप्ति की कल्पना किसकी, क्यों और कहाँ हो सकती है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"तू एक शांत, इच्छा रहित, निर्विकार और शुद्ध आकाश के समान है। फिर तेरा जन्म कहाँ है, तेरा कर्म कहाँ है, और तेरा अहंकार कहाँ है?"
"जिसे तू देखता है, उसमें केवल तू ही प्रतिबिंबित होता है। क्या दर्पण, गहने और पानी में दिखाई देने वाली छवि एक-दूसरे से भिन्न होती हैं?"
"'मैं यह हूँ' और 'मैं यह नहीं हूँ'— ऐसे भेदभाव को छोड़ दे। 'सब कुछ आत्मा ही है'— इस प्रकार विचार कर, तू समभाव को प्राप्त कर और आनंदित हो जा।"
"तेरे अज्ञान से ही यह संसार प्रतीत होता है, परंतु वास्तव में तू केवल एक ही है। तुझसे परे न कोई दूसरा है— न संसार, न असंसार।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"यह संसार मात्र भ्रांति है और वास्तव में कुछ भी नहीं। जो इस सत्य को भली-भांति जान लेता है, वह समस्त इच्छाओं से रहित और शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है। वह ऐसी शांति को प्राप्त करता है, जैसे कुछ भी अस्तित्व में नहीं है।"
"संसार रूपी समुद्र में तू सदा से एक ही था और एक ही रहेगा। तेरा बंधन और मोक्ष कुछ भी नहीं है। इसलिए, मुक्त होकर आनंदपूर्वक विचर।"
"हे चिन्मय! तू विचारों और विकल्पों से मुक्त होकर निर्मल बुद्धि धारण कर। शांत होकर, संकल्प-विकल्प से रहित अपने स्वरूप में आनंदपूर्वक स्थित हो जा।"
"समस्त ध्यान को त्यागकर, चित्त में किसी भी धारणा को स्थापित न कर। तू तो स्वयं मुक्त आत्मा है, फिर तुझे संकल्प-विकल्प करने की क्या आवश्यकता?"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता पञ्चदशोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं—
"हे तात! तू चाहे अनेक शास्त्रों को विभिन्न प्रकार से कहे या सुने, परंतु जब तक उनका संपूर्ण परित्याग नहीं करेगा, तब तक तुझे शांति प्राप्त नहीं होगी।"
"हे ज्ञानी! तू चाहे भोग में रहे, कर्म करे या संन्यास धारण करे, फिर भी यदि तेरा चित्त स्वभाव से ही समस्त आशाओं से मुक्त है, तो भी तू अत्यधिक सुखी रहेगा।"
"प्रयत्न से सभी लोग दुखी होते हैं, परंतु कोई इसे नहीं जानता। इसी कारण बुद्धिमान लोग प्रयत्नरहित होकर ही शांति को प्राप्त करते हैं।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो व्यक्ति व्यापार या प्रयास से शांति चाहता है, वह सदा ही दुखी रहता है। केवल वही व्यक्ति सच्चे सुख को प्राप्त करता है, जिसने संपूर्ण इच्छाओं का त्याग कर दिया है।"
"यह किया गया है और यह नहीं किया गया— ऐसे द्वंद्व से जब मन मुक्त हो जाता है, तब वह धर्म, अर्थ, कर्म और मोक्ष के प्रति पूर्ण रूप से उदासीन हो जाता है।"
"विषयों की आसक्ति ही बंधन है, और विषयों से विरक्ति ही मुक्ति है। जो ग्रहण और त्याग दोनों से मुक्त है, वही न आसक्त है, न विरक्त।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जब तक इच्छाएँ जीवित हैं— जो कि अज्ञान का प्रतीक हैं— तब तक आशा और प्राप्ति (ग्रहण और त्याग) भी विद्यमान रहते हैं, जो संसार रूपी वृक्ष के दो मुख्य शाखाएँ हैं।"
"जो व्यक्ति आसक्ति से बंधता है और वैराग्य से मुक्त होता है, वह द्वंद्व में ही उलझा रहता है। इसलिए, जो द्वंद्व से परे है, वही बालक के समान सहज और आनंद में स्थित रहता है।"
"वैराग्यवान पुरुष दुखों से बचने के लिए संसार का त्याग करना चाहता है, लेकिन सच्चा मुक्त पुरुष वैराग्य से भी मुक्त होकर संसार और त्याग, दोनों के द्वंद्व से परे रहता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जिसे मोक्ष के प्रति आसक्ति है और शरीर के प्रति घृणा, वह न तो ज्ञानी है और न ही योगी। वह केवल दुख का पात्र है।"
"यदि तेरा इष्टदेव शिव है, विष्णु है या ब्रह्मा है, तब भी सबके विस्मरण के बिना, तुझे सच्ची शांति प्राप्त नहीं होगी।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता षोडशोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं—
"जो पुरुष पूर्ण तृप्त, शुद्ध बुद्धि वाला है और सदा आत्मस्वरूप में स्थित रहता है, वही ज्ञान और योग साधना का सच्चा फल प्राप्त करता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"हे तात!! तत्वज्ञानी पुरुष को इस संसार में कभी भी भ्रम उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उसके लिए यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड केवल उसके अपने आत्मस्वरूप से भिन्न नहीं है।"
"जिस प्रकार लता के पत्तों से तृप्त हुए हाथी को गंगा के जल की चाह नहीं होती, उसी प्रकार आत्मस्वरूप में स्थित ज्ञानी पुरुष विषयों से कभी तृप्ति की अपेक्षा नहीं रखता।"
"जो भोगते हुए भी भोगों में आसक्ति नहीं रखता और भोगे हुए विषयों के प्रति आग्रह नहीं करता, ऐसा पुरुष संसार में दुर्लभ है।"
"इस संसार में भोग की इच्छा रखने वाले और मोक्ष की इच्छा रखने वाले, दोनों ही देखे जाते हैं, परंतु जो भोग और मोक्ष दोनों से विरक्त है, ऐसा महान आत्मज्ञानी पुरुष दुर्लभ है।"
"जो किसी भी प्रकार की इच्छा से रहित है, वही सच्चा ज्ञानी है। वह न धर्म, अर्थ, कर्म, मोक्ष, जीवन और न ही मृत्यु के प्रति कोई भावना रखता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जिसे संसार के नाश की इच्छा नहीं होती और न ही इसकी स्थिति के प्रति कोई आसक्ति होती है, वही वास्तव में शांत और मुक्त पुरुष होता है, जो सहज जीवन जीते हुए आनंदित रहता है।"
"जो इस ज्ञान से मुक्त अनुभव करता है और जिसकी समस्त आसक्तियाँ समाप्त हो जाती हैं, वही मुक्त पुरुष संसार को देखते हुए भी साक्षी भाव में स्थित रहता है, पूर्ण शांति में जीता है और आनंदपूर्वक विचरण करता है।"
"जिस ज्ञानी पुरुष के लिए संसार रूपी समुद्र शांत हो चुका है, उसमें न कोई तरंग रह जाती है, न कोई विकार। उसकी दृष्टि शुद्ध हो जाती है, उसकी चेष्टाएँ स्वाभाविक हो जाती हैं, और समस्त इंद्रियाँ निस्पृह हो जाती हैं।"
"वह न जागता है, न सोता है, न आँखें खोलता है, न बंद करता है। अहो! मुक्त पुरुष की यह कैसी अद्भुत और परम अवस्था होती है!" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"मुक्त पुरुष समस्त रूपों में स्वस्थ (शांत) रहता है, सबमें समभाव रखता है, समस्त आसक्तियों से रहित होता है और पूर्ण रूप से तृप्त तथा प्रसन्नचित्त दिखाई देता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"देखते हुए, सुनते हुए, सूंघते हुए, स्पर्श करते हुए, स्वाद लेते हुए, ग्रहण करते हुए, बोलते हुए, चलते हुए— जो राग और द्वेष से मुक्त रहता है, वही महान ज्ञानी वास्तव में जीवन्मुक्त होता है।"
"मुक्त पुरुष सदा सहज और निर्मल रहता है। न वह स्वीकार करता है, न त्याग करता है, न प्रसन्न होता है, न क्रोधित होता है, न देता है, न लेता है।"
"जो मुक्त पुरुष स्त्री और संपत्ति के समक्ष स्थित मृत्यु को देखकर भी अविचलित और संतुलित रहता है, वही वास्तव में सच्चा मुक्त आत्मा है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जिसका चित्त स्थिर है, उसे सुख-दुःख में, मान-अपमान में, संपत्ति और दरिद्रता में कहीं भी भेदभाव नहीं दिखता।"
"जिस व्यक्ति के लिए यह संसार शांत हो चुका है, उसमें न हिंसा है, न दया, न दंड देने की इच्छा, न क्षमा, न पूजा, न ध्यान और न ही किसी प्रकार का विकार।"
"मुक्त पुरुष न तो विषयों से द्वेष करता है, न ही उनमें आसक्त होता है। वह सदा निर्लिप्त चित्त वाला होता है और प्राप्त एवं अप्राप्त वस्तुओं का समान भाव से उपभोग करता है।"
"शुद्ध बुद्धि वाला मुक्त पुरुष समानता और असमानता, लाभ और हानि के भेद को नहीं जानता। वह सदा स्वयं में स्थित रहता है, जैसे आकाश अपरिवर्तित रहता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"अंदर से समस्त आशाएँ समाप्त हो चुकी हैं, और जो भली-भांति जानता है कि वास्तव में कुछ भी अस्तित्व में नहीं है— ऐसा विरक्त, अहंकार-शून्य मुक्त पुरुष कर्म करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता।"
"जिसका मन समस्त विकारों से मुक्त हो गया है, और जिसमें कर्म, मोह, स्वामित्व तथा आसक्ति सभी विलीन हो चुके हैं— वही पुरुष उस अद्वितीय निर्लेप अवस्था को प्राप्त करता है।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता सप्तदशोऽध्यायः समाप्तः ॥
अष्टावक्र राजा जनक से कहते हैं—
"जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रांति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती हैं उस एकमात्र आनंदस्वरूप, शांत और तेजोमय को नमस्कार है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"संपूर्ण धन प्राप्त कर लेने पर भी मनुष्य इंद्रियों के भोगों को ही चाहता है, लेकिन समस्त त्याग किए बिना वह कभी प्रसन्न नहीं हो सकता।"
"कर्तव्य से उत्पन्न दुख जैसे सूर्य की तपिश से जल सूख जाता है, वैसे ही जिस पुरुष का अंतःकरण शुद्ध नहीं हुआ, उसे ज्ञानामृत की वर्षा के बिना शांति कहाँ मिल सकती है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"यह संसार केवल एक भावना मात्र है, वास्तव में कुछ भी नहीं। जैसे वस्तुएँ अस्तित्व में प्रतीत होती हैं, वैसे ही उनकी अनुपस्थिति भी प्रतीत होती है, परंतु आत्मस्वरूप का कोई अभाव नहीं होता।"
"यह आत्मतत्त्व न तो कहीं दूर है, न ही तर्क द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यह निःसंग, निराकार, निर्विकार और निरंजन है।"
"मोह से मुक्त होने पर और अपने स्वरूप के ज्ञान से, जो पुरुष राग और संकोच से रहित हो जाता है, वही वास्तव में निर्मल बुद्धि और पूर्ण शांति को प्राप्त करता है।"
"समस्त जगत मात्र एक कल्पना है, जबकि आत्मा स्वतंत्र और शुद्ध चैतन्यस्वरूप है। यह जानकर, बुद्धिमान पुरुष बालक के समान निश्चिंत और निष्कपट रहता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"आत्मा ब्रह्मस्वरूप है, जबकि भाव और अभाव मात्र कल्पनाएँ हैं। यह भली-भांति जानकर मुक्त पुरुष न कुछ जानने की आवश्यकता महसूस करता है, न कुछ कहता है और न ही कुछ करता है।"
"सब कुछ आत्मा ही है— यह भली-भांति जानकर, योगी पूर्ण शांति को प्राप्त कर लेता है। उसकी 'मैं हूँ' और 'मैं नहीं हूँ' जैसी समस्त कल्पनाएँ स्वतः ही नष्ट हो जाती हैं।"
"सिद्ध योगी के लिए न ज्ञान है, न अज्ञान; न कर्तव्य है, न अकर्म; न विरोध है, न आकर्षण; न सुख है, न दुख— वह इन सबसे परे स्थित रहता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"स्वभाव से ही निर्लिप्त योगी के लिए राज्य और तपस्या में, लाभ और हानि में, समाज और वन में कोई अंतर नहीं होता।"
"यह किया गया है और यह नहीं किया गया है— ऐसे द्वंद्व से मुक्त योगी के लिए न धर्म है, न अर्थ, न कोई संकल्प और न ही कोई विकार।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जीवन्मुक्त योगी के लिए न कोई कर्तव्य है, न कोई कर्म, और न ही ध्यान में कोई नियमबद्ध साधना। वह संसार में सहज रूप से जीवन व्यतीत करता है।"
"समस्त आसक्तियों से मुक्त होकर, पूर्ण आत्मज्ञान को प्राप्त महान आत्मा के लिए न मोह है, न संसार, न ध्यान और न ही कोई मोक्ष।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जिसने संसार को देखा है, वह चाहे उसे अस्वीकार भी करे, लेकिन इच्छारहित मुक्त पुरुष के लिए इसमें क्या विशेषता है? वह देखते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं देखता।"
"जिसने परम ब्रह्म को देखा है, वह चाहे 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा विचार करे, लेकिन जो पूर्णतः स्थिर हो चुका है और जिसे कुछ भी भिन्न नहीं दिखता, वह किसी भी प्रकार का विचार क्यों करे?"
"जो आत्मा में द्वैत देखता है, वह चाहे विचारों का त्याग कर दे, लेकिन जो पूर्णतः द्वैत से मुक्त है, वह शांति और समता में स्थित होकर क्या करे?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो संसार में रहते हुए भी संसार से भिन्न है, वह बुद्धिमान पुरुष न तो आसक्ति को देखता है, न वैराग्य को और न ही बंधन को।"
"जो ज्ञानी पूर्णतः तृप्त है, जो राग-द्वेष से मुक्त है, और जिसे किसी प्राप्ति की आकांक्षा नहीं है— वह संसार की दृष्टि में कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता।"
"बुद्धिमान पुरुष न प्रवृत्ति में लिप्त होता है, न निवृत्ति में ही आसक्त होता है। जब भी वह कुछ करने की स्थिति में आता है, तो उसे सहजता से करता है और पूर्ण संतोष में स्थित रहता है।"
"ज्ञानी पुरुष आसक्ति से रहित, अहंकार से मुक्त, पूर्णतः निर्मल और बंधनरहित होता है। वह संसार में वायु के समान विचरण करता है और निर्लिप्त कमलपत्र की भांति व्यवहार करता है।"
"संसार से मुक्त पुरुष को न हर्ष होता है, न विषाद। वह सदा समभाव में स्थित रहता है और पूर्ण निर्लिप्तता के साथ शांति का अनुभव करता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो आत्मा में स्थित होकर निरंतर विश्राम करता है, जिसकी बुद्धि शुद्ध और शांत है— उस ज्ञानी पुरुष को न तो किसी त्याग की इच्छा होती है और न ही किसी ग्रहण की आशा।"
"जो स्वभाव से ही शुद्ध बुद्धि वाला है और सहज रूप से कर्म करता है, उस ज्ञानी पुरुष के लिए न मान का भाव होता है, न अपमान का— वह सदा समभाव में स्थित रहता है।"
"यह कर्म शरीर द्वारा किया गया है, मेरे शुद्ध आत्मस्वरूप से नहीं। जो इस ज्ञान में स्थित रहता है, वह कर्म करते हुए भी वास्तव में अकर्ता ही रहता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जीवन्मुक्त पुरुष उसी साधारण मनुष्य की भांति कर्म करता है, जो कुछ कहता है और कुछ करता है, परंतु वह न तो किसी मोह में पड़ता है, न ही किसी परिणाम की चिंता करता है। वह संसार में रहते हुए भी पूर्ण शांति और संतोष में स्थित रहता है।"
"जो बुद्धिमान पुरुष विभिन्न विचारों से मुक्त होकर सहज रूप से शांति को प्राप्त हो जाता है, वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है और न ही देखता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"महान ज्ञानी पुरुष न द्वैत में रहता है, न अद्वैत में, क्योंकि वह न आसक्त होता है, न विरक्त। वह संसार को मात्र एक दृश्य की भांति देखता है और सदा ब्रह्मस्वरूप में स्थित रहता है।"
"जिसके संकल्पों में आसक्ति है, वह कर्म नहीं करते हुए भी कर्ता है, और जो आसक्ति रहित है, वह कर्म करते हुए भी अकर्ता ही रहता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"मुक्त पुरुष की बुद्धि न द्वैत में रहती है, न समता में, न कर्तव्य में, न विरक्ति में, न आशा में और न ही किसी प्रकार के संशय में— वह सदा शुद्ध और शांत रहता है।"
"मुक्त पुरुष का चित्त न तो ध्यान में लीन होता है और न ही किसी बाहरी दृष्टि में स्थिर होता है। वह बिना किसी प्रयोजन के स्वाभाविक रूप से स्थित रहता है और कर्म करता है।"
"बालक की भांति निश्छल बुद्धि वाला व्यक्ति सहज रूप से मुक्त रहता है, लेकिन कोई ज्ञानी व्यक्ति तभी मुक्त होता है जब वह विचार और आसक्ति से रहित हो जाता है।"
"अज्ञानी चित्त अत्यधिक प्रयास करता है— कभी ग्रहण में, कभी त्याग में। लेकिन ज्ञानी पुरुष सोए हुए व्यक्ति के समान अपने स्वभाव में स्थित रहता है और करने योग्य कुछ भी नहीं देखता।"
"अज्ञानी पुरुष प्रयास या निष्क्रियता से शांति प्राप्त नहीं करता, जबकि ज्ञानी पुरुष मात्र सत्य को भली-भांति जानकर स्वतः ही शांति को प्राप्त हो जाता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"इस संसार में अत्यधिक साधना करने वाले लोग भी उस आत्मा को नहीं जान पाते, जो शुद्ध, मुक्त, प्रिय, प्रपंचरहित और पूर्णतः दुःख रहित है।"
"अज्ञानी पुरुष साधना और कर्म के द्वारा मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता, जबकि निष्क्रिय ज्ञानी पुरुष केवल सत्य के ज्ञान से ही मुक्त होकर स्थिर रहता है।"
"अज्ञानी जैसे ब्रह्म बनने की इच्छा करता है, वैसे ही वह ब्रह्म नहीं बन पाता। जबकि ज्ञानी पुरुष, बिना कुछ चाहे, स्वभाव से ही परम ब्रह्मस्वरूप में स्थित होता है।"
"इस आधारहीन और मोहयुक्त संसार का निर्माण केवल अज्ञानी पुरुष ही करता है। इसी कारण इस असत्य जगत के मूल में केवल ज्ञानी पुरुषों द्वारा स्थापित सत्य का बोध ही इसे समाप्त कर सकता है।"
"अज्ञानी जैसे शांति प्राप्त करने की इच्छा करता है, वैसे ही वह शांति को प्राप्त नहीं कर पाता। जबकि ज्ञानी पुरुष, केवल सत्य को जानकर सदा शांत चित्त वाला बना रहता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो व्यक्ति केवल दृश्य में ही लीन रहता है, उसे आत्मा का दर्शन कहाँ संभव है? लेकिन ज्ञानी पुरुष दृश्य को नहीं देखते, वे केवल निःसंग आत्मा को ही अनुभव करते हैं।"
"जो मूर्ख विचारों का जबरदस्ती त्याग करता है, उसके लिए वास्तव में विचारों का त्याग कहाँ है? लेकिन जो ज्ञानी स्वभाव से ही आत्मा में स्थित रहता है, उसके लिए यह त्याग सहज रूप से घटित होता है।"
"कोई भाव को मानता है और कोई 'कुछ भी नहीं है' ऐसा मानता है। लेकिन जो दोनों को समान रूप से देखता है, और जो न किसी को मानता है न अस्वीकार करता है, वही वास्तव में शुद्ध बुद्धि वाला और स्थिर चित्त का ज्ञानी होता है।"
"कुछ ज्ञानी आत्मा को शुद्ध और अद्वितीय मानते हैं, लेकिन वे उसके परम आनंद स्वरूप को नहीं पहचानते। इसलिए वे केवल जीवन के सतही सुख में मग्न रहते हैं।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"मुमुक्षु पुरुष की शांति अहंकार के बिना स्थायी नहीं होती, जबकि मुक्त पुरुष की शांति सदा निष्कर्षपूर्ण और अडोल बनी रहती है।"
"विषयों के जाल में फँसकर थका हुआ मनुष्य जब संतप्त हो जाता है, तब वह शीघ्र ही विचारों के त्याग और निष्क्रियता की शरण लेने का प्रयास करता है।"
"इच्छा-रहित मुक्त पुरुष को देखकर विषयों में लिप्त लोग या तो भयभीत होकर भाग जाते हैं, या फिर असहाय होकर उसकी सेवा में लग जाते हैं, जैसे हाथी कमल के फूलों को देखकर व्याकुल हो जाते हैं।"
"जो विकारों से मुक्त और स्वतंत्र चित्त वाला ज्ञानी पुरुष है, वह योग के किसी भी साधन— जैसे यम, नियम आदि— को अपनाने की आवश्यकता नहीं समझता। बल्कि वह सहज रूप से देखता है, सुनता है, समझता है, स्पर्श करता है, स्वाद लेता है और फिर भी पूर्ण आनंद में स्थित रहता है।"
"जिस प्रकार केवल आत्मज्ञान को सुनने मात्र से ही शुद्ध, सरल और संतुलित बुद्धि वाला ज्ञानी व्यक्ति हो जाता है, उसी प्रकार वह न आचरण को देखता है, न अनाचार को और न ही आसक्ति या विरक्ति को।"
"जब ज्ञानी पुरुष कोई शुभ या अशुभ कर्म करने की स्थिति में आता है, तो वह उसे सहज भाव से करता है, क्योंकि उसका आचरण बालक के समान निष्पाप और स्वाभाविक होता है।"
"ज्ञानी पुरुष स्वाभाविक रूप से आनंद को प्राप्त करता है, स्वाभाविक रूप से परम अवस्था को प्राप्त करता है, स्वाभाविक रूप से शाश्वत शांति को प्राप्त करता है और स्वाभाविक रूप से परम मोक्ष को प्राप्त करता है।"
"जब तक कोई आत्मा के अस्तित्व और अनस्तित्व में भेद करता है, तब तक उसके लिए शांति संभव नहीं है। शांति तो तभी प्राप्त होती है जब सभी द्वंद्व समाप्त हो जाते हैं।"
"ज्ञानी पुरुष की स्वाभाविक चंचलता भी उसे विचलित नहीं करती, लेकिन जिसकी बुद्धि अभी पूर्णतः निर्मल नहीं हुई है, उसके लिए थोड़ी सी भी अस्थिरता शांति में बाधा बन जाती है।"
"कल्पनाओं से मुक्त, बंधन रहित और स्वतंत्र बुद्धि वाला ज्ञानी पुरुष कभी महान भोगों में रम जाता है, तो कभी एकांत गुफाओं में निवास करता है— फिर भी वह सदा निर्लिप्त और समभाव में स्थित रहता है।"
"ज्ञानी पुरुष के हृदय में देवता, यज्ञ, उपासना, स्त्री, राजा या प्रियजन को देखकर कोई भी विशेष भावना उत्पन्न नहीं होती— वह समभाव में स्थित रहता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"योगी चाहे नौकरों, पुत्रों, पत्नियों, शत्रुओं या बंधुओं द्वारा सताया जाए, फिर भी वह कहीं भी आसक्ति नहीं रखता और न ही किसी प्रतिक्रिया को उत्पन्न करता है।"
"ज्ञानी पुरुष सन्तुष्ट होकर भी सन्तुष्ट नहीं होता और दुःखी होकर भी दुःखी नहीं होता। उसकी इस विलक्षण स्थिति को केवल सच्चे ज्ञानी ही समझ सकते हैं।"
"कर्तव्य ही संसार है— यह जानकर, शुद्ध, निर्मल, निःस्पृह और निष्काम ज्ञानी पुरुष इसे देखता भी नहीं और इससे प्रभावित भी नहीं होता।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"अज्ञानी व्यक्ति कुछ न करते हुए भी संकल्पों और विकल्पों के कारण व्याकुल रहता है, जबकि ज्ञानी सभी कर्मों को करते हुए भी पूर्ण शांति और संतोष में स्थित रहता है।"
"शांत बुद्धि वाला ज्ञानी व्यक्ति कर्म करते हुए भी पूर्ण आनंद में रहता है, सहजता से आता-जाता है, हँसता-बोलता है और भोजन करता है— फिर भी सदा निष्क्रिय और समभाव में स्थित रहता है।"
"जो ज्ञानी सहज स्वभाव से आचरण करता है, परंतु साधारण मनुष्यों की भांति व्यवहार नहीं करता और न ही किसी महान योगी की तरह दिखावटी अनुशासन में रहता है— वही वास्तव में मुक्त और शांत है।"
"निर्मल हृदय वाले व्यक्ति की निवृत्ति भी प्रवृत्ति के समान हो जाती है, लेकिन ज्ञानी पुरुष की प्रवृत्ति भी निवृत्ति के समान फलदायी होती है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"मूढ़ व्यक्ति का वैराग्य परिस्थितियों से प्रभावित होता है, लेकिन जिसकी आशाएँ भीतर ही नष्ट हो चुकी हैं, उस ज्ञानी के लिए न कोई आसक्ति है, न कोई वैराग्य।"
"मूढ़ व्यक्ति की दृष्टि सदा आसक्ति और अनासक्ति में उलझी रहती है, जबकि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि इनसे परे होकर तटस्थ बनी रहती है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो ऋषि बालक की भांति स्वाभाविक रूप से आचरण करता है और बिना किसी संकल्प के सभी कार्यों को प्रारंभ करता है, वह अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहता है और किए गए कर्मों का भी अनुभव नहीं करता।"
"वही आत्मज्ञानी वास्तव में मुक्त है, जिसने मन के विस्तार को समाप्त कर दिया है। वह जो देखता है, सुनता है, समझता है, स्पर्श करता है या स्वाद लेता है— इन सभी अनुभवों में समान भाव से स्थित रहता है।"
"सदैव प्रकाश के समान स्थित ज्ञानी पुरुष के लिए संसार कहाँ है? अज्ञान कहाँ है? बंधन कहाँ है? और मोक्ष कहाँ है?"
"वही सच्ची तृप्ति को प्राप्त करता है, जो पूर्ण आत्मस्वरूप में स्थित रहता है, और जिसकी आसक्ति (वासनाएँ) स्वतः ही क्षीण हो चुकी होती हैं।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"यहाँ अधिक बोलने से क्या लाभ? तत्वज्ञानी महापुरुष भोग और मोक्ष दोनों से परे रहते हैं, सदा सर्वत्र समभाव और आसक्तिहीन होकर स्थित रहते हैं।"
महत्तत्व आदि जो द्वैत-जगत है वह नाम मात्र को ही भिन्न है। जब ज्ञानी पुरुष इन्हें भी त्याग देता है, तब उसके लिए शुद्ध आत्मस्वरूप में और क्या कर्तव्य शेष रह जाता है?"
"यह संपूर्ण गतिशील जगत केवल कल्पना मात्र है— यह भलीभांति जानकर, आत्मा में पूर्ण रूप से स्थिर ज्ञानी पुरुष स्वाभाविक रूप से शांति को प्राप्त होता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो ज्ञानी पुरुष न किसी दृष्टिकोण को अपनाता है, न ही किसी भावना को स्वीकार करता है, और केवल आत्मस्वरूप में स्थित रहता है— उसके लिए विधि कहाँ है? वैराग्य कहाँ है? त्याग कहाँ है? और शांति कहाँ है?"
"जो ज्ञानी पुरुष किसी भी विरोधाभास में न फँसते हुए शुद्ध प्रकृति को देखता है, उसके लिए बंधन कहाँ है? मोक्ष कहाँ है? सुख कहाँ है? और शोक कहाँ है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जिस संसार में माया ही माया व्याप्त है, वहाँ केवल वही ज्ञानी पुरुष शांत, निर्लिप्त और संकल्प रहित रहता है।"
"जो ऋषि पूर्णतः आसक्ति और विकल्पों से मुक्त होकर आत्मा का साक्षात्कार करता है, उसके लिए ज्ञान कहाँ है? अज्ञान कहाँ है? शरीर कहाँ है? और प्रवृत्ति व निवृत्ति की भावना कहाँ है?"
"यदि चंचल और आसक्त मानव सभी कर्मों को त्याग भी दे, तो भी वह अपनी मानसिक प्रवृत्तियों और गुप्त इच्छाओं को पूर्ण करने में ही प्रवृत्त हो जाता है।"
"मूढ़ व्यक्ति सत्य को सुनकर भी अपनी अज्ञानता नहीं छोड़ता, वह बाहरी कर्मों में व्यस्त रहकर मन में विषयों की चंचलता को बनाए रखता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो कर्म ज्ञान के अभाव में किया जाता है, वह अज्ञान है। ज्ञानी पुरुष लोक-दृष्टि में कर्म करता हुआ दिखता है, लेकिन वास्तव में वह न कुछ करता है, न कहता है।"
"संपूर्ण प्रवृत्ति और निवृत्ति से परे स्थित ज्ञानी पुरुष के लिए अन्धकार कहाँ है? प्रकाश कहाँ है? और त्याग कहाँ है? वास्तव में, कहीं कुछ भी नहीं है।"
"जो योगी पूर्ण निष्कपट, सहज स्वभाव से स्थित है, उसके लिए साधना कहाँ है? विचारशीलता कहाँ है? या फिर कर्तव्य का बंधन कहाँ है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"योगी के लिए न कोई बंधन है, न कोई मुक्ति, न जीवन-मरण का चक्र। फिर अधिक कहने से क्या लाभ? योग की दृष्टि से यह सब अर्थहीन है।"
"ज्ञानी पुरुष का चित्त इच्छा और वासनाओं से पूर्णतः मुक्त होकर निर्मल हो जाता है। इसीलिए वह लाभ के लिए प्रार्थना नहीं करता और हानि के लिए कभी चिंता नहीं करता।"
"ज्ञानी पुरुष न शांति की इच्छा करता है, न ही दुख को देखकर विचलित होता है। वह सुख-दुःख को समान समझते हुए पूर्णतः स्थितप्रज्ञ रहता है और कुछ भी करने योग्य नहीं मानता।"
"ज्ञानी पुरुष न संसार से विरक्त होता है, न आत्मा को देखने की इच्छा करता है। वह मोह और अहंकार से मुक्त होकर न जीवित के समान होता है, न मृत के समान।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"ज्ञानी पुरुष न पुत्र, न स्त्री, न अन्य विषयों में आसक्ति रखता है। वह अपने शरीर की भी चिंता नहीं करता और सभी इच्छाओं से मुक्त होकर पूर्ण शांति में स्थित रहता है।"
"जो सहज रूप से जीवन व्यतीत करता है, जो राष्ट्रों में स्वतंत्रता से विचरण करता है, और जहाँ सूर्यास्त हो वहां शयन करता है – ऐसा ज्ञानी पुरुष सदा पूर्ण संतुष्ट रहता है।"
"जो निज स्वभाव रूपी भूमि में विश्राम करता है, और जिसे संसार विस्मृत हो गया है, उस महात्मा को इस बात की चिंता नहीं रहती कि देह रहे या चला जाए।"
"वितर्करहित, शुद्ध चिंतन करने वाला, संकल्परहित, संग्रह रहित, निर्लिप्त और शांत चित्त वाला ज्ञानी पुरुष ही समस्त भावों में स्थित होकर जीवन का अनुभव करता है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"जो निष्पृह है, उसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना समान हैं। जिसके हृदय की ग्रंथि कट चुकी है और जिसका संकल्प पूर्णतः नष्ट हो गया है, वही ध्यानी पुरुष वास्तव में शुद्ध बुद्धि वाला होता है।"
"जो समस्त व्यवहार से रहित और संकल्पों से मुक्त है, जिसके हृदय में कोई आसक्ति नहीं है, वह पूर्णतः शुद्ध आत्मा के समान है। उसकी तुलना और किसी से कैसे की जा सकती है?"
"आसक्तिहीन ज्ञानी पुरुष के अतिरिक्त दूसरा कौन है जो जानकर भी न जानता हो, देखकर भी न देखता हो, बोलकर भी न बोले?"
"जिसकी सभी भावनाएँ शुद्ध और अशुद्ध दोनों से अतीत हो गई हैं, और जो निष्काम है, वही वास्तव में शुद्ध चेतन है, चाहे वह गृहस्थ हो या सन्यासी।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"निष्कलुष, सरल और सहज स्वभाव वाले योगी को कहां शुद्धता है? कहां तर्क है? और कहां तत्त्व का चिंतन है?"
"जो आत्मा में स्थिर होकर निष्काम और निर्मल ज्ञान के अंतिम अनुभव को प्राप्त करता है, उसे कैसे और किससे कहा जाए?"
"जो सोया हुआ भी सोया नहीं है, न जाग्रत अवस्था में लिप्त है और न ही लौकिक क्रियाओं में रत है, वही ध्यानी पुरुष संपूर्ण रूप से शुद्ध और मुक्त है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"ज्ञानी विचारयुक्त होकर भी विचाररहित है, इंद्रियों सहित होकर भी इंद्रियों से रहित है, गुणयुक्त होकर भी गुणरहित है और आसक्ति सहित होकर भी आसक्तिरहित है।"
"ज्ञानी न सुखी है, न दुखी; न विरक्त है, न संलग्न; न समान है, न भिन्न; न स्थित है, न अस्तित्वहीन।"
"ज्ञानी न विचार में उलझता है, न तर्क में स्थिर होता है; न बंधन में बंधा है, न मोक्ष की इच्छा रखता है।"
"मुक्त पुरुष सभी स्थितियों में समभाव रहता है; किए गए और अकिए गए कर्मों में स्थिर रहता है। उसके लिए सब समान हैं, क्योंकि वह राग-द्वेष से रहित होकर किसी भी कर्म का स्मरण नहीं करता।"
"मुक्त पुरुष न प्रशंसा से उल्लसित होता है, न निंदा से क्रोधित होता है। न मृत्यु में विचलित होता है, न जीवन में आसक्त होता है।"
"शांत चित्त वाला मुक्त पुरुष न लोगों से भरे नगर की ओर भागता है, न वन की ओर ही। वह सभी परिस्थितियों और सभी स्थानों में समान भाव से स्थित रहता है।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता अष्टादशोऽध्यायः समाप्तः ॥
राजा जनक आत्मज्ञान से तृप्त होकर अपनी अनुभूति प्रकट करते हैं—
"मैंने आपके तत्वज्ञानरूपी वाणी से अज्ञान और मोह के विभिन्न प्रकार के विचाररूपी बादल को हटा दिया है। अब मैं संसार के भ्रमजाल से मुक्त होकर परम आनंद में स्थित हूँ।'"
"अपनी महिमा में स्थित मुझे कहाँ धर्म है? कहाँ कर्म है? कहाँ अर्थ है? कहाँ विचार है? कहाँ द्वैत है? और कहाँ अद्वैत है?"
"अनंत अपनी महिमा में स्थित मुझे कहाँ भूत है? कहाँ भविष्य है? या फिर कहाँ वर्तमान है? अथवा देश भी कहाँ है?"
"अनंत अपनी महिमा में स्थित मुझे कहाँ आत्मा है? और कहाँ अनात्मा है? या फिर कहाँ अशुभ है? कहाँ चिंतन है? अथवा कहाँ अचिंतन है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"अपनी महिमा में स्थित मुझे कहां स्वप्न? कहां सुषुप्ति और कहां जाग्रत है? कहां तुरिया अवस्था का भय है?"
"अपनी महिमा में स्थित मुझे कहाँ दूर है? कहाँ निकट? कहाँ मध्य है? कहाँ उच्च-निम्न का भान है? कहाँ स्थूल और कहाँ सूक्ष्मता है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"अपनी महिमा में स्थित मुझे कहाँ मृत्यु है और कहाँ जीवन? कहाँ लोक है और कहाँ इसकी लौकिक प्रक्रिया? कहाँ गति है और कहाँ विराम? कहाँ कर्तव्य है और कहाँ निष्कर्मता?"
"अपनी आत्मा में स्थित होकर मुझे धर्म, अर्थ और काम की कथा पूर्ण लगती है; योग की कथा भी पूर्ण लगती है और विज्ञान की कथा भी पूर्ण लगती है।"
॥ श्रीअष्टावक्रगीता एकोनविंशोऽध्यायः समाप्तः ॥
"मेरे निर्वाणस्वरूप में कहाँ पंचभूत हैं? कहाँ पृथ्वी है? कहाँ दिशाएँ हैं? अथवा कहाँ मन है? कहाँ शून्य है? और कहाँ ईश्वर है?"
"सदा निष्कलंक मुझे कहाँ शास्त्र हैं? कहाँ आत्मज्ञान है? कहाँ विषय-शून्य मन है? कहाँ तृष्णा है? और कहाँ तृप्ति का अभाव है?"
"स्व-स्वरूप की कहाँ रूपिता है? कहाँ ज्ञान है और कहाँ अज्ञान है? कहाँ 'मैं' हूँ या कहाँ 'यह' है? कहाँ 'मेरा' है? कहाँ बंधन है या कहाँ मोक्ष है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"मुझ सदा अविनाशी में कहाँ प्रारंभिक कर्म है? या कहाँ जन्म-मरण है? और कहाँ यह बाह्य-दृश्य ही है?"
"मुझ सदा अविकारी में कहाँ कर्तापन है और कहाँ भोक्तापन? या कहाँ प्रवृत्ति है और कहाँ निवृत्ति? कहाँ विपरीत ज्ञान है और कहाँ उसका फल?"
"मुझ अद्वैत स्वरूप में कहाँ लोक है और कहाँ अलोक? कहाँ योगी है और कहाँ ज्ञानी? कहाँ बंधन है और कहाँ मोक्ष?"
"मुझ अद्वैत स्वरूप में कहाँ शुद्धि और कहाँ अशुद्धि? कहाँ आचार है और कहाँ व्यवहार? कहाँ धर्म है और कहाँ अधर्म? कहाँ शुभ है और कहाँ कल्याण?"
"सर्वत्र समान रूप से स्थित मुझे कहाँ प्रमाण और कहाँ प्रत्यक्ष? कहाँ प्रशंसा है और कहाँ निंदा? कहाँ निश्चितता है और कहाँ अनिश्चितता?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सर्वथा क्रियाशून्य मुझे कहाँ कर्तव्य और कहाँ ज्ञान? कहाँ मोह, कहाँ अज्ञान और कहाँ दिव्य प्रकाश? कहाँ आनंद और कहाँ दुख?"
"सर्वथा निष्क्रिय मुझे कहाँ व्यवहार और कहाँ परम अवस्था? कहाँ सुख और कहाँ दुख?"
"मेरे लिए कहाँ माया और कहाँ यह संसार? कहाँ प्रेरणा और कहाँ विरोध? कहाँ जीवन और कहाँ ब्रह्म?"
"सब कुछ स्थिर, अविभाज्य स्वरूप और स्वस्थ है। मुझे कहाँ प्रवृत्ति है? कहाँ मुक्ति है? और कहाँ बंधन?"
कल्याणस्वरूप मुझे कहाँ उपदेश है? या फिर कहाँ शास्त्र है? कहाँ शिष्य है? कहाँ गुरु है? और कहाँ आत्मकल्याण है?"
"कहाँ अस्तित्व है और कहाँ अनस्तित्व? या फिर कहाँ एक है और कहाँ दो? इसमें अधिक कहने से क्या लाभ, मुझे तो कुछ भी नहीं सूझ रहा है (सब शान्त हो गया है)।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
॥ श्रीअष्टावक्रगीता विंशोऽध्यायः समाप्तः ॥
सर्वे भवन्तु सुखिनः।
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु।
मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्॥
पहला अध्याय - आत्मा के अनुभव का उपदेश - 20
दूसरा अध्याय - जनक का अनुभव - 25
तीसरा अध्याय - आक्षेप पूर्वक गुरु का उपदेश - 14
चौथा अध्याय - जनक का निश्चय - 6
पांचवां अध्याय - लय का उपदेश - 4
छठा अध्याय - यथार्थ ज्ञान का उपदेश - 4
सातवां अध्याय - जनक का अनुभव - 5
आठवां अध्याय - बंधन और मोक्ष का स्वरूप - 4
नवां अध्याय - वैराग्य निरूपण - 8
दसवां अध्याय - उपशम - 8
ग्यारहवां अध्याय - ज्ञानाष्टक - 8
बारहवां अध्याय - जनक की स्थिति - 8
तेरहवां अध्याय - जनक की सुखद अवस्था - 7
चौदहवां अध्याय - शांति का उपदेश - 4
पंद्रहवां अध्याय - तत्व का उपदेश - 20
सोलहवां अध्याय - विशेष ज्ञान का उपदेश - 11
सत्रहवां अध्याय - तत्व स्वरूप का वर्णन - 20
अठारहवां अध्याय - मोक्ष का उपदेश - 100
उन्नीसवां अध्याय - आत्म विमुक्ति निरूपण - 8
बीसवां अध्याय - जीवन मुक्ति निरूपण - 14