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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ हरिः ॐ ॥
क्या कभी आपने यह सोचा है — यदि परमात्मा सबके भीतर है, तो फिर हम बाहर क्यों ढूँढ़ते हैं? जब हर क्रिया, हर भावना, हर स्पंदन उसी की उपासना हो सकती है — तो फिर अलग से पूजा की क्या आवश्यकता है? Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
आज हम जिस उपनिषद् की चर्चा करेंगे, वह एक अत्यंत रहस्यमयी और विलक्षण दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है — आत्मपूजोपनिषद्। यह उपनिषद् हमें सिखाता है कि सच्ची पूजा किसी मूर्ति, किसी मंदिर, किसी बाह्य विधि से नहीं होती — बल्कि अपने भीतर के परमात्मा को ही जब हम पूर्ण श्रद्धा, समर्पण और ज्ञान से अर्पित होते हैं, तो वही परमपूजा बन जाती है।
तो आइए, अब हम प्रवेश करते हैं इस दिव्य उपनिषद् के भीतर — और आत्मपूजा की वह पथप्रदर्शक विधि जानने का प्रयास करते हैं, जो स्वयं को ही ईश्वर मानकर की जाती है। यह न कोई परंपरा है, न कोई विधिविधान — यह है आत्मा की परम प्रतिष्ठा। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
आत्मपूजोपनिषद् कहता है — जब कोई साधक आत्मपूजा के लिए बैठता है, तो उसका ध्यान किसी देवता पर नहीं, बल्कि अपने भीतर के शुद्ध, चैतन्यमय, पूर्ण परमात्मा पर होता है। उस ध्यान की प्रथम अवस्था है — निश्चिन्तता। जब मन समस्त चिंताओं से मुक्त हो जाता है, वही स्थिति है ध्यान की — जहाँ बाहर की सारी क्रियाएं स्थिर हो जाती हैं और साधक अपने अंतर में उतरता है।
इस अवस्था में, साधक किसी देवता का आवाहन नहीं करता, वह अपने सभी कर्मों का निराकरण करता है — क्योंकि अब कोई बाह्य देव नहीं, वह स्वयं ही आराध्य बन जाता है। वह स्थिर और अचल ज्ञान में प्रतिष्ठित होता है — यही उसकी आसनावस्था है। शरीर स्थिर हो, मन निश्चल हो — यह कोई साधारण आसन नहीं, यह ज्ञान की चोटी पर स्थित बैठना है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
फिर वह जो अनुभव करता है — वह है समुन्मनीभाव। जब मन ऊपर उठ जाता है, इन्द्रियाँ शान्त हो जाती हैं, और आत्मा के स्वरूप में एकत्व स्थापित हो जाता है — वही उसकी पाद्य क्रिया है, यानी परमात्मा के चरणों की पवित्रता। यह कोई बाहरी जल नहीं, यह चेतना का स्नान है।
उसकी अर्घ्य क्रिया क्या है? वह है सदामनस्कता — सतत ईश्वर में स्थिर रहना, सदैव उसकी स्मृति में रमण करना। और आचमनीय? वह है सदादीप्ति — चेतना का वह तेज, जो कभी मंद नहीं पड़ता।
अब स्नान की बात आती है — वह कोई बाह्य जल से नहीं होता, वह है उस “वराकृति” की प्राप्ति — यानी उस श्रेष्ठतम, परम आकृति, परमात्मस्वरूप की अनुभूति। जब साधक उस ब्रह्मरूप को पहचान लेता है, वही उसका स्नान है — वही उसे शुद्ध करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
गंध क्या है? दृश्यविलय — संसार का लोप। जब दृश्य जगत मिट जाता है और केवल आत्मा बचती है, वही सुगंध है, आत्मिक सौंदर्य है।
उसकी अक्षत क्या हैं? दृगविशिष्ट आत्मा — वह दृष्टा स्वरूप आत्मा, जो हर वस्तु को जानती है, पर किसी में रचती नहीं।
फूल क्या हैं? चिदादीप्ति — चेतना की दिव्य ज्वाला, जो सदा प्रकाशित है। और धूप? चिदाग्निस्वरूप — आत्मा की अग्नि, जो सब कुछ शुद्ध करती है।
दीपक क्या है? सूर्यात्मकत्व — वह प्रकाश जो आत्मा के भीतर सूर्य के समान प्रकाशित है, जिसे देख बाहर के सूर्य की आवश्यकता नहीं रहती। कभी-कभी इस उपनिषद् में उसे चिदादित्यस्वरूप भी कहा गया है — वह चैतन्यमय सूर्य। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
अब आता है नैवेद्य — वह प्रसाद जो आत्मा परमात्मा को अर्पित करती है। क्या है यह? परिपूर्ण चन्द्रामृतरस का एकीकरण — शीतलता, करुणा और पूर्णता से भरा वह अमृतरस, जो चन्द्रमा के समान सौम्य है, आत्मा को समर्पित होता है।
प्रदक्षिणा क्या है? निश्चलता — मन की परिक्रमा नहीं होती, बल्कि वह एक ही बिंदु पर स्थिर हो जाता है। नमस्कार क्या है? सोऽहंभाव — “मैं वही हूँ” — इस महान भाव के साथ आत्मा अपने ही भीतर झुकती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
मौन — परमेश्वर की स्तुति है। वहाँ कोई शब्द नहीं, कोई मंत्र नहीं — केवल मौन की गर्जना होती है। और विसर्जन क्या है? सदा सन्तोष — जब कोई इच्छा शेष न रहे, तब पूजा पूर्ण होती है।
ऐसे साधक की पूजा नित्य होती है, निराकार होती है, और हर क्षण होती है। वह ब्रह्मचारी हो या गृहस्थ, संन्यासी हो या कोई भी — यदि वह इस आत्मपूजा को समझ ले, तो उसे बाह्य क्रियाओं की आवश्यकता नहीं रहती। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
आत्मपूजोपनिषद् के अनुसार, जो इस पूजा को करता है — वह परिपूर्ण राजयोगी बन जाता है। उसकी प्रत्येक क्रिया, प्रत्येक भाव, प्रत्येक स्पंदन — सब उपासना हो जाते हैं। वह जब श्वास लेता है, तब भी पूजन होता है। जब मौन होता है, तब भी स्तुति होती है। जब स्थिर होता है, तब भी परिक्रमा चल रही होती है।
और अंत में उपनिषद् कहता है — जब यह पूर्ण आत्मबोध हो जाए, जब साधक यह अनुभव कर ले कि वह सर्वात्मा है, कि वह ब्रह्म है — तब वह कहता है, "मैं पूर्ण हूँ। मैं निरामय हूँ। मैं वही परमात्मा हूँ।" यही मुक्ति है। यही आत्मपूजा की सिद्धि है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
और यही इस अद्भुत उपनिषद् का सार है — जहाँ पूजा कोई कर्मकांड नहीं, बल्कि चेतना की वह पूर्णता है, जो स्वयं में ईश्वर को प्रतिष्ठित करती है।
तो दोस्तों, अगर इस उपनिषद् की यह दिव्य झलक आपको प्रेरित करती है, तो इसे अपने हृदय में उतारिए। यह कोई साधारण विचार नहीं — यह आत्मा की आराधना है।
॥ इति आत्मपूजोपनिषत् समाप्ता॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः