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यत्र नात्मप्रपञ्चोऽयमपह्नवपदं गतः ।
प्रतियोगिविनिर्मुक्तः परमात्मावशिष्यते ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
क्या आपने कभी यह सोचा है — वास्तव में आप कौन हैं? क्या आप यह शरीर हैं? यह मन? यह विचार? या कुछ ऐसा, जो न कभी जन्मा, न कभी मरेगा? आज हम एक ऐसे अद्वितीय वेदान्त के रहस्य की ओर बढ़ने जा रहे हैं, जो न केवल आत्मा की पहचान कराता है, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मतत्त्व को भी स्पष्ट कर देता है। यह कोई साधारण ग्रंथ नहीं है, यह है आत्मोपनिषद् — वेदान्त का शिखर, जो अद्वैत के महान सत्य को उजागर करता है।
आत्मोपनिषद् एक ऐसा दिव्य प्रकाश है, जो अज्ञान के अंधकार को चीरकर हमें आत्मा की शुद्धता का अहसास कराता है। यहाँ आत्मा न बन्धन में है, न मुक्ति में। यहाँ न कुछ पाना है, न कुछ छोड़ना है। यह केवल एक सत्य की घोषणा करता है — शिवस्वरूप आत्मा, जो सदा पूर्ण है, निरपेक्ष है, निर्लेप है। यह आत्मोपनिषद् हमें यह सिखाता है कि आत्मा और ब्रह्म का अस्तित्व एक ही है, यह वही अद्वितीय अद्वैत तत्त्व है, जो वेदान्त के हर श्लोक में छिपा हुआ है।
जब यह आत्म-प्रपंच — यानि 'मैं हूँ' की कल्पना — पूर्णतः लुप्त हो जाती है, और विरोध या भिन्नता की कोई अनुभूति शेष नहीं रहती, तब केवल परमात्मा ही शेष रह जाता है। वही परम तत्व, जो समस्त द्वैत से परे है, निष्कलंक और पूर्ण है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
हे देवों! हम अपने कानों से शुभ बातें सुनें। हे यज्ञों में श्रेष्ठ जनों! हम अपनी आँखों से मंगलदर्शन करें। हम स्थिर अंगों से, स्वस्थ शरीर से, प्रसन्नचित्त होकर तुम्हारी स्तुति करें, और जो आयुष्य देवताओं के हित में है, उसे पूर्ण रूप से जिएँ।
ॐ शांति, शांति, शांति।
अब अंगिरा ऋषि कहते हैं — यह पुरुष तीन रूपों में उत्पन्न होता है: आत्मा, अंतरात्मा और परमात्मा।
जो त्वचा, मांस, हड्डियाँ, बाल, अंगुलियाँ, रीढ़, नाखून, एड़ी, पेट, नाभि, जननेन्द्रिय, जंघा, कपोल, कान, भौंहें, ललाट, भुजाएँ, शरीर के पार्श्व, सिर और नेत्रों से युक्त है — जो जन्म लेता है और मरता है — वही आत्मा कहलाता है। यह स्थूल शरीर की सत्ता है, जो परिवर्तनशील है और उत्पत्ति-विनाश के नियम से बंधा हुआ है।
इसके भीतर जो सूक्ष्म सत्ता है — वह अंतरात्मा है। वह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जैसे पंचमहाभूतों से जुड़ा होता है। उसकी अनुभूति इच्छाओं, द्वेष, सुख-दुख, काम, मोह, विकल्प, स्मृति और ध्वनि-स्वर आदि के रूप में होती है। यह अंतरात्मा ही सुननेवाला, सूँघनेवाला, स्वाद लेनेवाला, देखनेवाला, कर्ता, जाननेवाला, विवेकी पुरुष है। यही वेद, पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्रों का श्रोता और विचारक है। यह वही सूक्ष्म सत्ता है जो हमारे इंद्रियों और मन की क्रियाओं को संचालित करती है।
अब उस परमात्मा की बात करें, जिसे अक्षर रूप में उपासना योग्य कहा गया है।
वह परमात्मा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि, योग, तर्क और आत्मचिंतन जैसे साधनों से प्राप्त किया जा सकता है — चाहे वह वटवृक्ष का कण हो, श्यामाक धान्य का कण हो, या बाल की नोक का हजारवाँ भाग — उस परमात्मा की अनुभूति उसी सूक्ष्मता से होती है।
परंतु वह न उत्पन्न होता है, न मरता है, न सूखता है, न गलता है, न जलता है, न हिलता है, न टूटता है, न काटा जा सकता है। वह निर्गुण है, केवल साक्षी है, पूर्णतः शुद्ध है, अविभाज्य है, अकेला है, सूक्ष्म है, ममता से रहित है, कलंकिन से रहित है, विकाररहित है, और पाँचों इंद्रियविषयों — शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध — से परे है।
वह विकल्पशून्य है, आकांक्षारहित है, सर्वव्यापक है, और चिन्तन की सीमाओं से परे है। वह वर्णनातीत है। वही अपवित्र और अशुद्ध वस्तुओं को पवित्र करता है।
वह निष्क्रिय है। और उसके लिए संसार का कोई बंधन नहीं होता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यह आत्मा ही शिव है — शुद्ध, एकमेव, अद्वैत और नित्य। यही आत्मा जब ब्रह्मस्वरूप होकर प्रकट होती है, तो वह केवल ब्रह्म ही होती है — और जब जगत् रूप में दिखाई देती है, तब भी वह ब्रह्म ही होती है।
वास्तव में, यह सम्पूर्ण भासमान जगत् — ज्ञान, अज्ञान, भिन्नता और अनेक भावों के रूप में जो भी दिखाई देता है — वह सब भी उसी ब्रह्म की लीला है, उसी की ही आभा है।
गुरु और शिष्य — जिनमें हमें भेद दिखाई देता है — वे भी उसी एक ब्रह्म की दो अभिव्यक्तियाँ हैं। ज्ञानदृष्टि में जब देखा जाता है, तो केवल शुद्ध ब्रह्म ही सर्वत्र विद्यमान होता है — न कोई दूसरा, न कोई भिन्न। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
न कोई विद्या है, न कोई अविद्या; न कोई जगत है, न कोई परमार्थ का भिन्न तत्व। लेकिन जब यह मिथ्या-जगत सत्य प्रतीत होता है, तब ही संसार की गति आरंभ होती है।
और जब इसी जगत को असत्य जान लिया जाता है, तब यही दृष्टि मुक्ति का द्वार बन जाती है — जैसे "यह घड़ा है" ऐसा जानने के लिए कोई विशेष प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जिसमें किसी प्रमाण की अपेक्षा न हो, उसी को हम आत्मसिद्ध सत्य कहते हैं। आत्मा भी ऐसा ही है — वह नित्यसिद्ध है, वह केवल ज्ञान के प्रकाश में प्रकट होता है।
उसे जानने के लिए न कोई देश, न कोई काल, न कोई विशेष शुद्धता की आवश्यकता है। जैसे कोई कहे — "मैं देवदत्त हूँ" — तो इस ज्ञान में कोई अपेक्षा नहीं होती।
उसी तरह ब्रह्मज्ञानी भी जानता है — "मैं ब्रह्म हूँ" — और यह जानना किसी बाहरी प्रमाण पर आधारित नहीं होता। जैसे सूर्य के प्रकाश में सारा संसार चमक उठता है, वैसे ही ब्रह्म की चेतना में सब कुछ प्रकट होता है।
जो ब्रह्म नहीं है — वह असत्य है, तुच्छ है — वह भला किस प्रकार प्रकाशित हो सकता है? वेद, शास्त्र, पुराण, समस्त जीव और जगत — जो भी अर्थवान प्रतीत होता है — वह उसी ब्रह्म के कारण अर्थवान है। तो वह ब्रह्म, जो सब कुछ को प्रकाश देता है — उसे कौन प्रकाशित करेगा?
जैसे एक बालक भूख और शरीर की पीड़ा को भूलकर किसी खिलौने में रम जाता है — वैसे ही ज्ञानी पुरुष, आत्मज्ञान में स्थित होकर संसार के मोह को त्यागकर, केवल परम सत्य में रमण करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वह विद्वान सदा आनन्दमग्न रहता है — न उसमें ममता होती है, न अहंकार। वह निष्कामी, स्वरूप में स्थित मुनि — एकाकी विचरण करता है, परन्तु पूर्ण रहता है।
वह आत्मा में ही सदा तृप्त रहता है — वह स्वयं सब कुछ में स्थित होता है, चाहे बाह्य रूप से निर्धन हो, परन्तु भीतर से सर्वसम्पन्न होता है।
भोजन करे या न करे — वह सदा तृप्त है। समान दृष्टि वाला है, कुछ भी करे, फिर भी करता नहीं। फल भोगता हुआ भी वास्तव में भोक्ता नहीं होता।
शरीर में रहते हुए भी वह अशरीरी होता है। सीमित दिखाई देता है, परन्तु सर्वव्यापी है। वह आत्मज्ञानी जहाँ कहीं भी हो — वह शरीर में रहकर भी सदा अदेही होता है।
उसके लिए प्रिय और अप्रिय, शुभ और अशुभ — दोनों ही उसे छू नहीं सकते। जैसे सूर्य को यदि बादल ढँक लें, तो भी उसका प्रकाश नष्ट नहीं होता — वैसे ही आत्मज्ञानी, शरीर और संसार के तम में रहते हुए भी अछूता रहता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जिसे तुम 'मैं' कहते हो — वह वास्तव में शुद्ध, अद्वैत, और नित्य शिवस्वरूप है। वह एकमात्र सत्य है, सदा एकरस, निर्विकार — जो स्वयं ब्रह्म रूप में ही प्रकट होता है।
सच तो यह है कि जो भी कुछ हमें ब्रह्म के अतिरिक्त प्रतीत होता है — यह समस्त जगत, इसकी विविधताएँ, ज्ञान और अज्ञान, अस्तित्व और अनस्तित्व की भावनाएँ — ये सब उसी ब्रह्म की ही विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।
जब हम गुरु और शिष्य जैसे द्वैत को देखते हैं, तब भी वास्तव में वहां केवल ब्रह्म ही प्रतिबिंबित हो रहा होता है। जो तत्वदृष्टा है, जो ब्रह्म को जानता है, उसे केवल एक ही सत्ता दिखाई देती है — शुद्ध, निखालिस, निर्विकल्प ब्रह्म।
उस दृष्टा के लिए न कोई विद्या है, न अविद्या, न जगत, न परम; क्योंकि जो कुछ भी सत्य प्रतीत होता है, वही तो संसार की चक्रवातिनी यात्रा को चलाता है।
और जब यही जगत असत्य प्रतीत हो, स्वप्नवत्, तब वही बोध संसार की गति को शांत कर देता है।
जिस तरह 'यह घट है' ऐसा जानने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, उसी तरह आत्मा की अनुभूति भी अपने आप में पूर्ण है — बिना किसी प्रमाण के।
देवदत्त कहे कि 'मैं देवदत्त हूँ', इसमें कोई बाहरी प्रमाण या शुद्धि की आवश्यकता नहीं होती — यह एक स्वाभाविक अनुभूति है। ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी की 'मैं ब्रह्म हूँ' की अनुभूति भी पूर्णतः आत्मसिद्ध है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जिस तरह सूर्य के प्रकाश में सारा जगत प्रकाशित होता है, वैसे ही ब्रह्मज्ञानी के तेज में समस्त अनुभव प्रकाशित हो जाते हैं।
पर जो कुछ भी असत्य है, अनात्मा है, तुच्छ है — वह किसी भी प्रकार से इस ज्ञान को प्रकाशित नहीं कर सकता।
वेद, शास्त्र, पुराण, समस्त प्राणी — जिनके द्वारा अर्थ की प्राप्ति होती है — वे स्वयं उस ज्ञाता को कैसे प्रकट कर सकते हैं?
जिस तरह एक बालक शरीर की भूख-प्यास से मुक्त होकर केवल खेल में रम जाता है, उसी तरह ज्ञानी भी ममता और अहंकार से मुक्त होकर आत्मा में लीन रहता है।
वह निष्कामी होकर संसार में विचरण करता है, एकांतवासी मुनि की भांति — जिसमें न कोई आश्रय है, न कोई अपेक्षा, फिर भी वह पूर्ण है।
वह आत्मा में ही तृप्त है, स्वयं से प्रसन्न है, सर्वात्मा के रूप में स्थित है। भले ही निर्धन हो, अकेला हो, परंतु वह महान बलवान है।
वह निरंतर तृप्त है, चाहे खाए या न खाए, सुख-दुख में सम है, कर्म करता है पर करता नहीं, भोगता है पर भोगता नहीं।
उसका शरीर हो सकता है, परंतु वह शरीर में नहीं बंधा। वह सीमित प्रतीत होता है, फिर भी सर्वव्यापक है। वह निरंतर शरीररहित ब्रह्मस्वरूप है।
प्रिय-अप्रिय, शुभ-अशुभ — उसे नहीं छूते। जैसे सूर्य पर अंधकार का कोई प्रभाव नहीं होता, वैसे ही वह अज्ञान से अस्पृश्य है।
लोग उसे शरीरधारी समझते हैं, पर यह केवल भ्रांति है — वह देह से मुक्त ब्रह्मज्ञानी है, जैसे साँप के त्यागे हुए खोल जैसा शरीर लेकर वह केवल विद्यमान है।
प्राणवायु द्वारा इधर-उधर चलनेवाले शरीर में वह आत्मा वैसे ही स्थित रहता है जैसे जल में बहती लकड़ी।
देह का व्यवहार प्रारब्ध से चलता रहता है, पर ब्रह्मज्ञानी उसके पार खड़ा रहता है — केवल आत्मा में स्थित।
ऐसा ब्रह्मज्ञानी ही वास्तव में शिव है — जीवित रहते हुए ही पूर्णतया मुक्त, कृतार्थ, पूर्ण।
जब उपाधियाँ मिट जाती हैं, तो केवल ब्रह्म ही शेष रह जाता है — अद्वैत, नित्य। जैसे अभिनेता वेष के त्याग के बाद स्वयं में ही रहता है, वैसे ही ब्रह्मज्ञानी वेषरहित होकर स्वयं ब्रह्म हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
घट के नष्ट हो जाने पर जैसे आकाश स्वतंत्र हो जाता है, वैसे ही उपाधियों के लय के बाद आत्मा स्वयं में स्थित हो जाता है — एकरस, पूर्ण।
जैसे दूध में दूध, तेल में तेल, जल में जल मिलकर एक हो जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञानी आत्मा में पूर्ण रूप से विलीन हो जाता है।
यह है विदेह मुक्त अवस्था — अखंड, निर्विकल्प, केवल सत् की अवस्था।
एक बार जब यह ब्रह्मभाव प्राप्त हो जाता है, तो ऐसा यति कभी फिर नहीं लौटता — उसकी विद्या अज्ञान के समस्त संघात को भस्म कर चुकी होती है।
जब वह ब्रह्मस्वरूप हो गया है, तो फिर ब्रह्म के लिए कोई उत्पत्ति की कल्पना कैसी? बंधन और मोक्ष की धारणा तो केवल माया की रचना है — आत्मा में वस्तुतः ऐसा कुछ है ही नहीं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम हो सकता है, वैसे ही बंधन और मोक्ष की अनुभूति भ्रांति है — आत्मा सदा के लिए शुद्ध, मुक्त है।
ब्रह्म तो कभी ढँकता ही नहीं, क्योंकि उसके सिवाय कुछ है ही नहीं जो उसे ढँके। 'यह है' या 'यह नहीं है' — ऐसे विचार केवल बुद्धि के गुण हैं, सत्य का नहीं।
इसलिए बंधन और मोक्ष, अस्तित्व और अनस्तित्व — ये सभी मायाजाल हैं, आत्मा से उनका कोई संबंध नहीं।
जो निष्कल है, निष्क्रिय है, शुद्ध, दोषरहित, निरंजन, अद्वितीय और परम है — उसमें कोई कल्पना, कोई विभाजन कैसे संभव है?
न उत्पत्ति है, न लय; न बंधा है, न साधक; न मुमुक्षु है, न मुक्त। यही है परम सत्य।
आत्मोपनिषद् हमें आत्मा और परमात्मा के अद्वितीय और गूढ़ सत्य से परिचित कराता है, जहाँ आत्मा न तो जन्मती है, न मरती है। यह उपनिषद हमें दर्शाता है कि ब्रह्म ही सर्वव्यापक है, और आत्मा उसी ब्रह्म का प्रतिबिंब है। इसका संदेश यह है कि आत्मज्ञान ही मुक्ति है, और सत्य की खोज में कोई भेद नहीं। यह अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों का गूढ़ रूप है, जो हमें आत्मा की शुद्धता और परब्रह्म के साथ एकता का अनुभव कराता है।
यदि इस गूढ़ ज्ञान ने आपके अंतर्मन को स्पर्श किया हो, तो इसे अपने भीतर गहराई से उतारिए और इसे अन्य आत्माओं तक पहुँचाइए। यह वह ज्ञान है जो हमें अद्वैत वेदांत की ओर ले जाता है, जहां आत्मा और परमात्मा के बीच कोई भेद नहीं रह जाता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यह वह सत्य है, जो आत्मोपनिषद् और वेदांत की गूढ़तम शिक्षाओं से प्रकट होता है। इसलिए, इस ज्ञान के साथ जुड़े रहें और इसे अपनी जीवन यात्रा में उतारें।
॥ इत्युपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः । भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः । व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥