Atharvashira Upanishad is a revered text of the Atharvaveda, focusing on the profound worship of Lord Rudra (Shiva) as the Supreme Reality (Parabrahman). It emphasizes that Shiva and Brahman are one, and through deep meditation and devotion, a seeker can transcend worldly illusions and attain spiritual liberation (moksha). This Upanishad highlights the significance of Omkar (ॐ), the eternal sound, and reveals the secrets of self-realization, divine knowledge, and cosmic unity, leading to ultimate bliss and enlightenment. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अथर्वशिरस की महिमा अनर्थ का नाश करने वाली है।
यह समस्त सृष्टि का आधार है, किंतु स्वयं किसी आधार पर निर्भर नहीं है।
यह अपनी मात्राओं सहित तीन पदों वाले अक्षर में प्रतिष्ठित है।
ॐ हे देवगण! हम अपने कानों से मंगलमय वचन सुनें।
हे यज्ञ करने योग्य देवों! हम अपनी आँखों से शुभदर्शन करें।
हम स्थिर अंगों वाले, पूर्ण स्वास्थ्ययुक्त होकर,
स्वयं को अर्पित करते हुए यज्ञ करें और दीर्घायु प्राप्त करें।
इन्द्र, जो दीर्घ यशस्वी हैं, हमारे लिए मंगलमय हों।
पूषा, जो समस्त जगत को जानने वाले हैं, हमें कल्याण प्रदान करें।
तार्क्ष्य, जिनके रथ का चक्र कभी क्षीण नहीं होता, हमारी रक्षा करें।
बृहस्पति हमें कल्याण प्रदान करें।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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रुद्र का स्वरूप
एक बार देवता स्वर्गलोक गए और उन्होंने रुद्र से प्रश्न किया –
"आप कौन हैं?"
तब रुद्र ने उत्तर दिया –
"मैं ही प्रथम था, मैं ही वर्तमान में हूँ, और मैं ही भविष्य में रहूँगा।
मुझसे भिन्न कोई अन्य नहीं है।"
इसके पश्चात उन्होंने स्वयं को समस्त दिशाओं में व्याप्त कर दिया।
उन्होंने अंतरिक्ष में, दिशाओं में तथा समस्त विश्व में स्वयं को स्थित कर लिया।
मैं ही शाश्वत हूँ और नश्वर भी।
मैं ही व्यक्त और अव्यक्त हूँ।
मैं ही ब्रह्म और अब्रह्म हूँ।
मैं ही पूर्व और पश्चिम हूँ।
मैं ही दक्षिण और उत्तर हूँ।
मैं ही अधो और ऊर्ध्व दिशा में व्याप्त हूँ।
मैं ही पुरुष हूँ, मैं ही अपुरुष हूँ।
मैं ही स्त्री हूँ।
मैं गायत्री हूँ, मैं सावित्री हूँ, मैं त्रिष्टुप्, जगती और अनुष्टुप् छंद हूँ।
मैं ही गृह्य अग्नि (गृहस्थों का अग्नि), दक्षिणाग्नि, और आहवनीय अग्नि हूँ।
मैं ही सत्य हूँ, मैं ही गौ (गाय) हूँ, मैं ही गौरी (पार्वती) हूँ।
मैं ही मृग हूँ, मैं यजुर्वेद हूँ, मैं सामवेद हूँ, मैं अथर्ववेद हूँ।
मैं ही श्रेष्ठ हूँ, वरिष्ठ हूँ।
मैं ही जल हूँ, मैं ही तेज हूँ।
मैं ही गुप्त रहस्य हूँ, मैं ही अरण्य (वन) हूँ।
मैं अक्षर (अविनाशी) हूँ, मैं क्षर (नाशवान) हूँ।
मैं ही पवित्र हूँ, मैं ही उग्र हूँ, मैं ही मध्य हूँ, मैं ही बाह्य हूँ।
मैं ही प्रकाश हूँ। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो कोई मुझे जानता है, वह समस्त देवताओं को तथा समस्त वेदों को जानता है।
मैं स्वयं को सत्य से, धर्म से, और अपनी तेजस्विता से तृप्त करता हूँ।
तब देवताओं ने पुनः रुद्र से प्रश्न किया।
उन्होंने रुद्र को देखा, उनका ध्यान किया, और उनकी स्तुति करने लगे।
तब समस्त देवताओं ने हाथ उठाकर रुद्र की स्तुति की।
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रुद्र ही परब्रह्म हैं
ॐ जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो ब्रह्मा हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो विष्णु हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो स्कन्द (कार्तिकेय) हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो इन्द्र हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो अग्नि हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो वायु हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो सूर्य हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो चंद्रमा हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो आठ ग्रह हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो आठ प्रकार के प्रतिग्रह (दान ग्रहण) हैं, वे भी वही हैं –
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो भूमि (पृथ्वी तत्व) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो भुवः (मध्य लोक) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो स्वः (स्वर्ग लोक) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो महः (महर्लोक) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो पृथ्वी हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो अंतरिक्ष हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो द्युलोक (स्वर्गीय लोक) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो जल हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो तेज (प्रकाश) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो काल हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो यमराज (नियंता) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो मृत्यु हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो अमृत (अविनाशी तत्व) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो आकाश हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो समस्त विश्व हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो स्थूल (दृश्य जगत) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो सूक्ष्म (अदृश्य तत्व) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो शुक्ल (श्वेत, सात्त्विकता) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो कृष्ण (गंभीर, तमस तत्व) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो संपूर्ण (समष्टि रूप) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो सत्य हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
जो रुद्र हैं, वही भगवान हैं, और जो सर्वव्यापक (सर्वत्र स्थित) हैं, वे भी वही हैं—
उन्हें नमस्कार! नमस्कार!
Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
भूलोक तुम्हारा ही आदि है, भुवर्लोक तुम्हारा ही मध्य है, और स्वर्लोक तुम्हारा ही शीर्ष है। तुम ही विश्वरूप, एकमात्र ब्रह्म हो, जो द्विविध और त्रिविध रूप में विस्तार को प्राप्त होता है। तुम ही वृद्धि हो, तुम ही शांति हो, तुम ही पुष्टि हो। तुम ही हवन में आहुति और अनाहुति हो, तुम ही दान और अदत्त वस्तु हो, तुम ही समस्त और असमस्त हो, तुम ही विश्व और अविश्व हो, तुम ही कृत और अकृत हो, तुम ही परम और अपार हो, और तुम ही परम गंतव्य हो।
हमने अमृतस्वरूप सोम प्राप्त किया, प्रकाश को जाना और देवताओं का साक्षात्कार किया। अब हमारे शत्रु हमारे साथ क्या करेंगे? क्या वे हमें मृत्यु के अधीन कर सकते हैं? क्या वे अमृत को नश्वर मनुष्यों से छीन सकते हैं?
सोम और सूर्य के परे एक सूक्ष्म पुरुष स्थित है।
यह समस्त जगत का हित करने वाला अक्षर ब्रह्म ही प्रजापति का सूक्ष्म, सौम्य पुरुष है। इसे ग्राह्य और अग्राह्य दोनों रूपों में समझा जाता है। यह सौम्यता में सौम्य, सूक्ष्मता में सूक्ष्म और वायुतत्त्व से भी सूक्ष्म है। यह अपने ही तेज से संपूर्ण सृष्टि को आत्मसात कर लेता है। इसलिए उस संहारकर्ता, महाग्रासी को नमस्कार! नमस्कार!
हृदय में ही समस्त देवता स्थित हैं, हृदय में ही समस्त प्राण प्रतिष्ठित हैं। हृदय में ही तुम नित्य रूप से स्थित हो। तीन मात्राओं (अ, उ, म) से परे जो परम तत्त्व है, वही परम स्वरूप है।
उससे ही उत्तर में उसका सिर, दक्षिण में उसके चरण और उत्तर दिशा में उसका संपूर्ण स्वरूप प्रकट होता है। जो ओंकार है, वही प्रणव है। जो प्रणव है, वही सर्वव्यापक है। जो सर्वव्यापक है, वही अनंत है।
जो अनंत है, वही तारक है। जो तारक है, वही सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म है, वही शुक्ल (शुद्ध) है। जो शुक्ल है, वही विद्युतस्वरूप है। जो विद्युतस्वरूप है, वही परब्रह्म है। जो परब्रह्म है, वही एक मात्र है। जो एक है, वही रुद्र है। जो रुद्र है, वही ईशान है। जो ईशान है, वही भगवान महेश्वर हैं।
अथ ओंकार क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसके उच्चारण से प्राण ऊपर उठते हैं, इसलिए इसे ओंकार कहा जाता है।
अथ प्रणव क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसके उच्चारण से चारों वेद ब्राह्मणों को प्रणाम कराते हैं और झुकाते हैं, इसलिए इसे प्रणव कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अथ सर्वव्यापी क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसके उच्चारण से यह पूरे संसार में फैल जाता है, जैसे आटे में स्नेह मिला होता है। यह हर जगह व्याप्त रहता है, इसलिए इसे सर्वव्यापी कहा जाता है।
अथ अनंत क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसके उच्चारण से इसकी कोई सीमा नहीं मिलती—न ऊपर, न नीचे, न कहीं और—इसलिए इसे अनंत कहा जाता है।
अथ तारक क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसके उच्चारण से यह जन्म, बुढ़ापा, बीमारी, मृत्यु और संसार के बड़े भय से बचाता है, इसलिए इसे तारक कहा जाता है।
अथ शुक्ल क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसके उच्चारण से अशुद्धि नष्ट हो जाती है और मन शुद्ध हो जाता है, इसलिए इसे शुक्ल कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अथ सूक्ष्म क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसके उच्चारण से यह बहुत सूक्ष्म होकर शरीर में प्रवेश कर जाता है और हर अंग को जानता है, इसलिए इसे सूक्ष्म कहा जाता है।
अथ वैद्युत क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसके उच्चारण से यह अंधकार में प्रकाश करता है, इसलिए इसे वैद्युत कहा जाता है।
अथ परम ब्रह्म क्यों कहा जाता है? क्योंकि यह सबसे ऊँचा, सबसे महान और सबको ब्रह्मत्व देने वाला है, इसलिए इसे परम ब्रह्म कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अथ एक क्यों कहा जाता है? क्योंकि यह सब प्राणियों को अपने में समा लेता है, उन्हें उत्पन्न करता और विलीन करता है। यह सबके साथ होते हुए भी अकेला ही रहता है, इसलिए इसे एक कहा जाता है।
अथ रुद्र क्यों कहा जाता है? क्योंकि इसे केवल ऋषि और भक्त ही पहचान सकते हैं, अन्य कोई इसे जल्दी नहीं जान सकता, इसलिए इसे रुद्र कहा जाता है।
अथ ईशान क्यों कहा जाता है? क्योंकि यह सभी देवताओं का स्वामी है और अपनी शक्ति से सबको नियंत्रित करता है, इसलिए इसे ईशान कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अथ भगवान महेश्वर क्यों कहा जाता है? क्योंकि भक्त इसे ज्ञान से भजते हैं और यह उन्हें स्वीकार कर कृपा करता है। यह सभी भावों से मुक्त कर आत्मज्ञान देता है और योगेश्वर बनाता है, इसलिए इसे भगवान महेश्वर कहा जाता है।
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यह रुद्र का चरित्र है।
एक ही परम देवता हैं, जो सभी दिशाओं में व्यापक हैं। वे सृष्टि के प्रारंभ में थे, गर्भ में स्थित होते हैं, और जन्म लेने वाले तथा जन्मे हुए सभी में विद्यमान रहते हैं। वे सर्वव्यापक और सर्वमुखी हैं।
एकमात्र रुद्र हैं, जिनका कोई दूसरा नहीं है। वही इस संपूर्ण सृष्टि के स्वामी हैं और अपनी ईश्वरीय शक्तियों द्वारा संपूर्ण लोकों का शासन करते हैं। वे समस्त प्राणियों में स्थित हैं और संपूर्ण भुवनों की रक्षा तथा संहार करने वाले हैं।
वे एक ही हैं, जो समस्त योनियों (जीवों के जन्म स्थान) में स्थित होते हैं। वही इस समस्त संसार में व्याप्त हैं और इसे गति प्रदान करते हैं। ऐसे परमेश्वर, पुरुष, एवं पूजनीय देवता की उपासना करने वाला शाश्वत शांति को प्राप्त करता है।
जो व्यक्ति क्रोध, तृष्णा (इच्छा) तथा असहनशीलता को त्यागकर मूल कारणों की जड़ों को समर्पित कर देता है और बुद्धि से इन्हें नियंत्रित कर रुद्र में प्रतिष्ठित कर देता है, वह रुद्र के साथ एकत्व को प्राप्त करता है। रुद्र को ही सनातन, प्राचीन, और सर्वोच्च माना गया है, जो पशुओं (जीवों) को बंधनों से मुक्त करने वाले हैं और मृत्यु के बंधनों को नष्ट करने वाले हैं।
इस ओंकार की चार मात्राएँ हैं:
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प्रथम मात्रा (अ) – यह ब्रह्मा से संबंधित है और इसका रंग लाल (रक्त) है। जो इसका नित्य ध्यान करता है, वह ब्रह्मपद को प्राप्त करता है।
द्वितीय मात्रा (उ) – यह विष्णु से संबंधित है और इसका रंग कृष्ण (श्याम) है। जो इसका ध्यान करता है, वह वैष्णव पद को प्राप्त करता है।
तृतीय मात्रा (म) – यह रुद्र (ईशान) से संबंधित है और इसका रंग कपिला (गाय के रंग जैसा) है। जो इसका ध्यान करता है, वह रुद्र पद को प्राप्त करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
चतुर्थ (अर्द्ध) मात्रा – यह समस्त देवताओं का प्रतिनिधित्व करती है। यह अव्यक्त रूप से आकाश में विचरण करती है और शुद्ध स्फटिक जैसी होती है। जो इसका ध्यान करता है, वह अनामय पद (सर्वोच्च मुक्ति) को प्राप्त करता है।
महर्षियों ने इसे ही उपासना का मार्ग बताया है और विद्वान जन इसकी महिमा का गुणगान करते हैं। यह कोई साधारण मार्ग नहीं है, बल्कि वही उत्तम पथ है जिससे देवता, पितर, और ऋषि सभी परम धाम की ओर गमन करते हैं।
हृदय के मध्य में एक अत्यंत सूक्ष्म बिंदु में यह संपूर्ण ब्रह्मांड समाया हुआ है। जो धैर्यवान साधक इसे आत्मा में स्थित देख लेते हैं, वे ही शांति को प्राप्त करते हैं, अन्य कोई नहीं।
जो व्यक्ति क्रोध, तृष्णा, सहनशीलता और असहनशीलता—सभी को त्याग देता है और बुद्धि से मूल कारण को खोजकर उसे रुद्र में स्थापित कर देता है, वह रुद्र के साथ एकत्व को प्राप्त करता है।
रुद्र ही सनातन, पुराण पुरुष, तथा तप के द्वारा इस सृष्टि के नियंता हैं। वे ही सभी ऊर्जा के स्रोत हैं।
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पाशुपत व्रत के अनुसार—
अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, और आकाश—सब कुछ अंततः भस्मरूप हो जाता है। यही समस्त तत्वों का अंतिम सत्य है। इस पाशुपत मार्ग का पालन करने वाला ही परम ब्रह्म को प्राप्त करता है और पशुपाश (बंधन) से मुक्त होता है।
जो रुद्र अग्नि में स्थित है, जो जल में स्थित है, जो औषधियों और वनस्पतियों में प्रविष्ट होता है, जो इन समस्त लोकों को रचता है, उस रुद्र को मेरा प्रणाम हो, जो अग्नि के रूप में स्थित है। जो रुद्र अग्नि में स्थित है, जो रुद्र जल में स्थित है, जो रुद्र औषधियों और वनस्पतियों में स्थित है, जो रुद्र इन समस्त लोकों को रचता है, उस रुद्र को बार-बार नमस्कार है। जो रुद्र जल में स्थित है, जो रुद्र औषधियों में है, जो रुद्र वनस्पतियों में है, जिनके द्वारा संपूर्ण जगत् धारण किया गया है, पृथ्वी दो भागों में और फिर तीन भागों में विभक्त होकर धारण की गई, जो नागों और अंतरिक्ष में स्थित हैं, उन रुद्र को बार-बार नमस्कार है।
मूर्धा को सेवनीय बनाकर अथर्वा ने इसे समाहित किया और हृदय में स्थापित किया, जो मस्तिष्क के ऊपर स्थित है, वह अवमान रूप में सिर से प्रेरित किया जाता है। यही अथर्वण का परम शिरोमणि है, जो देवताओं के कोश का परित्याग कर दिया गया है। यही प्राण की रक्षा करता है, यही सिर का अंतिम भाग है और यही मन का आधार है। वह न तो आकाश में देवताओं के द्वारा सुरक्षित है, न ही अंतरिक्ष में और न ही पृथ्वी पर। जिसमें यह समस्त जगत ओत-प्रोत रूप से स्थित है, उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। न उसके पहले कुछ था, न बाद में कुछ होगा, न भूतकाल में और न भविष्य में कुछ भिन्न था या होगा। सहस्रों पैरों वाला, एक सिर वाला वह व्यापक रूप से समस्त भूतों को आच्छादित कर व्याप्त हुआ है।
अक्षर से काल उत्पन्न होता है और काल से व्यापक कहा जाता है। क्योंकि व्यापक तो स्वयं भगवान रुद्र ही हैं। जब भोग काल में मन स्थित होता है, तब रुद्र स्वयं शयन करते हैं, और जब रुद्र श्वास छोड़ते हैं, तब संहार होता है। श्वास लेने पर तमस प्रकट होता है, तमस से जल प्रकट होते हैं, जल को जब उँगलियों से मथा जाता है, तब उसमें हलचल होती है। शिशिर ऋतु में मथने से फेन उत्पन्न होता है, फेन से अंड उत्पन्न होता है, अंड से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, ब्रह्मा से वायु प्रकट होते हैं, वायु से ओंकार प्रकट होता है, ओंकार से सावित्री प्रकट होती है, सावित्री से गायत्री उत्पन्न होती है, गायत्री से लोकों की उत्पत्ति होती है। तप, सत्य और मधु इस संपूर्ण भू मंडल को आच्छादित किए हुए हैं और यही परम तप कहलाता है। जल, प्रकाश, रस, अमृत, ब्रह्म, भूः, भुवः, स्वः—इन सबको मैं प्रणाम करता हूँ।
जो इस अथर्वशिरस् ब्राह्मण का अध्ययन करता है, यदि वह अश्रोत्रिय (शास्त्रों में अशिक्षित) हो, तो वह श्रोत्रिय (शास्त्रों में शिक्षित) बन जाता है। यदि वह अनुपनीत (जिसका उपनयन संस्कार नहीं हुआ) हो, तो वह उपनीत (उपनयन संस्कार प्राप्त) हो जाता है। वह अग्नि के द्वारा शुद्ध होता है, वह वायु के द्वारा शुद्ध होता है, वह सूर्य के द्वारा शुद्ध होता है। वह सभी देवताओं द्वारा ज्ञात हो जाता है, वह सभी वेदों द्वारा ध्यान किया गया होता है, वह सभी तीर्थों में स्नान किया हुआ माना जाता है। इसके द्वारा सभी यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण होता है। इसको जपने से गायत्री मंत्र के साठ हजार जप किए हुए माने जाते हैं। इतिहास और पुराणों में वर्णित रुद्र मंत्रों के एक लाख जप किए हुए माने जाते हैं। प्रणव (ॐ) मंत्र के दस हजार जप किए हुए माने जाते हैं। यह चक्षुओं को शुद्ध करता है। यह सात पुरुष युगों तक सभी को शुद्ध करता है—ऐसा भगवान अथर्वशिरस् कहते हैं। एक ही बार जप करने से व्यक्ति शुद्ध हो जाता है, पवित्र हो जाता है, और कर्म करने के योग्य बन जाता है। द्वितीय बार जप करने से गणाधिपत्य प्राप्त होता है। तृतीय बार जप करने से वह सत्य में पूर्णतः प्रविष्ट हो जाता है। यह निश्चय ही सत्य है, सत्य है, सत्य है।
ॐ भद्रं कर्णेभिः इति शान्तिः ॥
॥ इत्यथर्वशिरोपनिषत्समाप्ता ॥