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सभी वेदों और उपनिषदों का गूढ़ और अद्वितीय सार, जो ब्रह्मज्ञान और आत्म-अनुभूति की ओर मार्गदर्शन करते हैं, वह अव्यक्तनृसिंहोपनिषत् में पूर्ण रूप से समाहित है। यह उपनिषद, जो सामवेद की दिव्य और गहरी धारा से प्रेरित है, हमें ब्रह्म के अव्यक्त, निराकार रूप में प्रवेश करने का मार्ग दिखाता है, जहां अज्ञान का संहार होता है और आत्मज्ञान की असीम शक्ति हमारे भीतर जागृत होती है। इस पवित्र उपनिषद के माध्यम से हम सच्चे ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, जो हमें शाश्वत शांति, परम आनंद और दिव्य दृष्टि की ओर मार्गदर्शन करता है। यह अद्वितीय उपनिषद हमें आत्मा के सत्य को जानने की प्रेरणा देता है, और जीवन को एक नए, दिव्य दृष्टिकोण से देखने का आह्वान करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
सभी वेदों और उपनिषदों में निहित उच्चतम ज्ञान, इस पवित्र अव्यक्तनृसिंहोपनिषत् में समाहित है, जो न केवल हमारी आत्मा को शुद्ध करता है, बल्कि हमें जीवन के सबसे गूढ़ रहस्यों का अनुभव भी कराता है। यह उपनिषद हमें बताता है कि ब्रह्म का साक्षात्कार केवल आत्मनिष्ठा और साधना से ही संभव है, और इस मार्ग पर चलने से ही हम शाश्वत शांति को प्राप्त कर सकते हैं।
अव्यक्तनृसिंह वह महान रूप है जो अज्ञान रूपी असुरराज का संहार करता है और आत्मज्ञान के रूप में प्रकट होता है। वह महान सिंहस्वरूप मुझे ब्रह्मस्वरूप बना दे।
ॐ — मेरे सभी अंग, वाणी, प्राण, नेत्र, कान, शक्ति और इन्द्रियाँ सम्पन्न और पूर्ण हों। यह सम्पूर्ण ब्रह्मस्वरूप उपनिषद मेरे भीतर जाग्रत हो। मैं ब्रह्म का कभी भी खण्डन न करूँ, और न ही ब्रह्म मेरा खण्डन करे। यह मेरी प्रार्थना है कि जो धर्म उपनिषदों में प्रकट हुए हैं, वे मेरे भीतर पूरी तरह से प्रतिष्ठित हों।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
सृष्टि के आरंभ में केवल निर्विशेष ब्रह्म था। न आकाश था, न पृथ्वी, न अंतरिक्ष। बस एक असीम, अनादि और अनन्त सत्ता थी — रूपहीन होकर भी रूपवती, अप्रत्यक्ष होकर भी ज्ञेय, ज्ञानस्वरूप और आनन्दमय। उसी ब्रह्म से दो रूप प्रकट हुए — एक हरा और एक रक्तवर्ण। रक्तवर्ण रूप पुरुषस्वरूप बना, जबकि हरा रूप माया का प्रतीक था। जब दोनों मिलकर एक हो गए, तो आनंद से ऊर्जा उत्पन्न हुई, जिससे ब्रह्माण्ड रूपी अण्ड का जन्म हुआ, जो परिवर्तनशील था। उसी अण्ड से परमेष्ठि प्रकट हुआ।
परमेष्ठि ने सोचा, "मेरा कार्य क्या है?" तभी वाणी प्रकट हुई और बोली, "हे प्रजापति, तू अव्यक्त से उत्पन्न हुआ है, तेरा कार्य 'व्यक्त' की सृष्टि करना है।" परमेष्ठि ने पूछा, "यह 'अव्यक्त' क्या है, जिससे मैं उत्पन्न हुआ हूँ, और 'व्यक्त' क्या है, जो मेरा कार्य है?" वाणी ने उत्तर दिया, "वह तेजस्वी तत्व, जो ज्ञेय नहीं है, वही अव्यक्त है। यदि तू उसे जानना चाहता है, तो तप से उसे जान।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
परमेष्ठि ने फिर पूछा, "तू कौन है, जो ब्रह्मवाणी की तरह बोल रही है?" वाणी ने उत्तर दिया, "मैं ब्रह्मस्वरूप वाणी हूँ, और मुझे जानने के लिए तप करना होगा।" तब परमेष्ठि ने सहस्र वर्षों तक तपस्या की, ब्रह्मचर्य के साथ।
अंततः उसने देखा, ऋचामयी 'अनुष्टुप्' नामक परम विद्या को, जिसमें स्वयं ब्रह्म प्रतिष्ठित है। इस विद्या के अंगों में अन्य मन्त्र हैं, और यहाँ समस्त देवता प्रतिष्ठित हैं। जो इस परम विद्या को नहीं जानता, वह अन्य वेदों को जानकर भी क्या कर सकता है?
परमेष्ठि ने जब उस ‘अनुष्टुप्’ विद्या को जाना, तब उसने उस रक्तवर्ण सत्ता को जानने की इच्छा की। वह स्वयं उन मंत्रों का जप करने लगा — सहस्र वर्षों तक, ओंकार में आदि और अंत समाहित करके पदों को गाता रहा, अक्षरों को जपता रहा।
तब उसने एक दिव्य दर्शन किया — ज्योतिर्मय स्वरूप, शोभा से आलिंगित, गरुड़ रथ पर आरूढ़, शेषनाग की फणों से सुशोभित मस्तक, सिंहमुख और मनुष्य शरीर, तीन नेत्र — जिनमें चन्द्र, सूर्य और अग्नि की ज्योति व्याप्त थी। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उस विराट दर्शन को देख प्रजापति स्तब्ध होकर नतमस्तक हो गया — बारम्बार प्रणाम करते हुए उसने स्तुति की।
उसने कहा — यह सिंहस्वरूप ब्रह्म अत्यन्त उग्र है, क्योंकि यह सिंह के स्वरूप में है। यह वीर है, क्योंकि इसमें महान पराक्रम है। यह महाविष्णु है, क्योंकि यह सम्पूर्ण ब्रह्मांड को व्यापने वाला है। यह ज्वलन्त है, क्योंकि यह अग्निरूप प्रकाश से ओतप्रोत है। यह सर्वतोमुख है, क्योंकि यह सब दिशाओं में विद्यमान है — विश्वरूप है। यह नृसिंह है, जैसा कि यजुर्वेद में वर्णित है। यह भीषण है, क्योंकि सूर्य इस भय से उदय होता है, चन्द्रमा भयभीत होता है, वायु चलता है, अग्नि जलती है, और पर्जन्य वर्षा करता है। यह भद्र है, क्योंकि यह सौन्दर्य और श्री से युक्त है। यह मृत्यु का भी मृत्यु है — प्राणियों को अमरत्व देने वाला। इसकी स्तुति यजुर्वेद की ही भाँति की जाती है।
(मैं नृसिंह को प्रणाम करता हूँ — जो उग्र है, वीर है, महाविष्णु है, तेजस्वी है, सर्वतेजस्वरूप है, जो भीषण है और भद्र भी, जो मृत्यु का भी अंत करता है — मैं उसे नमन करता हूँ।) Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
भगवान नृसिंह ने प्रजापति से कहा — हे प्रजापति, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, जो भी तुम चाहो वह मांगो। प्रजापति ने उत्तर दिया — हे भगवन्, मैं अव्यक्त से उत्पन्न हुआ हूँ और मेरा कार्य 'व्यक्त' की सृष्टि करना है, ऐसा पूर्व में कहा गया था। अब मैंने जान लिया कि वही 'अव्यक्त' आप हैं — अब कृपा करके 'व्यक्त' को बताइए।
तब भगवान ने कहा — यह सम्पूर्ण जगत, जो चर और अचर से युक्त है, यही 'व्यक्त' है। जो प्रकट होता है — वही व्यक्त कहलाता है।
प्रजापति ने पूछा — मैं इस सृष्टि की रचना नहीं कर पा रहा हूँ, कृपया कोई उपाय बताइए।
तब पुरुष रूप भगवान बोले — हे प्रजापति, सुनो — मैं तुम्हें सृष्टि का वह परम उपाय बताता हूँ जिसे जानकर तुम सब कुछ जान सकोगे, सब कुछ कर सकोगे।
तुम मुझे, अग्निस्वरूप में, अपने ही आत्मा को हवन रूप में ध्यायोग से अर्पित करो — ‘अनुष्टुप्’ छन्द के साथ। यही है ध्यानयज्ञ।
यह ध्यानयज्ञ वास्तव में देवताओं की महान उपनिषद है, महान रहस्य है। इसमें न तो सामवेद की गान विद्या है, न ऋचाओं का उच्चारण, न यजुषों की विधियाँ — यह सम्पूर्णतः गूढ़ ज्ञान है। जो इसे जानता है — वह सभी कामनाएँ प्राप्त कर लेता है, समस्त लोकों को जीत लेता है, और अन्ततः मुझमें ही स्थित होता है — वह फिर कभी संसार में लौटता नहीं। जो इस प्रकार जानता है — वही मुक्त हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
प्रजापति ने जब स्वयं को ही यज्ञ के योग्य माना, तब उसने सोचा — मैं ही यह सर्वोच्च सत्ता हूँ। उसने मन के भीतर यज्ञ किया। उसी वाणी, उसी प्रणव, और उसी चेतना के साथ, उसने अपने ही आत्मा को ध्यान में धारण किया और आत्मा की अग्नि में अपने ही आत्मा की आहुति दी। उस योगमय ध्यानयज्ञ के परिणामस्वरूप वह सर्वज्ञ हुआ, उसे समस्त वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ, वह हर स्थान में कर्म करने में समर्थ हुआ, और उसने संपूर्ण सृष्टि की रचना कर डाली।
जो पुरुष इस ध्यानयज्ञ को जानता है और उसका अनुकरण करता है, वह भी सर्वज्ञ हो जाता है। उसमें अनन्त शक्तियाँ प्रकट होती हैं, वह संपूर्ण कर्मों का करता बन जाता है, और अंत में समस्त लोकों को जीतकर उस परम ब्रह्म को प्राप्त करता है।
जब प्रजापति ने सृष्टि का संकल्प किया, तब उसी ज्ञान की शक्ति से उसने तीस अक्षरों के आधार पर तीन लोकों की रचना की। फिर दो-दो अक्षरों को लेकर उन लोकों को दोनों ओर से संतुलित किया और धारण किया। उसी अनुष्टुप् छन्द की दो अर्धर्चाओं और ३२ अक्षरों की सामर्थ्य से उसने देवताओं की उत्पत्ति की। इन समस्त शक्तियों को एकत्र कर वह स्वयं इन्द्र बन गया — और इसलिए इन्द्र देवताओं में सबसे श्रेष्ठ हुआ। जो भी इस ज्ञान को जानता है, वह अपने समान जनों में श्रेष्ठ हो जाता है।
उसी ज्ञान की एकादश पादों से ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए। फिर अन्य ग्यारह भागों से ग्यारह आदित्य प्रकट हुए। उन समस्त देवशक्तियों को समेट कर प्रजापति विष्णु के रूप में प्रकट हुए — और आदित्यों में सबसे अधिक सामर्थ्यवान हुए। जो इस रहस्य को जानता है, वह अपने समान जनों में सर्वोपरि होता है।
फिर प्रजापति ने चार-चार अक्षरों के मेल से आठ वसुओं की उत्पत्ति की। तत्पश्चात अनुष्टुप् छन्द के प्रथम बारह अक्षरों से ब्राह्मण उत्पन्न किया। फिर दस-दस अक्षरों से वैश्य और क्षत्रिय प्रकट हुए। इसीलिए ब्राह्मण को समाज में मुख्य स्थान मिला — और जो इस ज्ञान को जानता है, वह भी समाज में प्रमुख होता है। शूद्र की उत्पत्ति उसने मौन रहकर की — और इसलिए वह विद्यारहित रह गया। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उस समय न दिन था न रात्रि, न प्रकाश था न अंधकार — सब कुछ अव्यक्त था। तब प्रजापति ने अनुष्टुप् छन्द की दो अर्धर्चाओं से दिन और रात्रि की रचना की — और इस प्रकार समय के प्रवाह की शुरुआत हुई।
इसके पश्चात उसने वेदों की रचना की। अपने पहले चरण से ऋग्वेद, दूसरे से यजुर्वेद, तीसरे से सामवेद, और चौथे से अथर्ववेद प्रकट किए। फिर छन्दों की उत्पत्ति हुई — आठ अक्षरों से गायत्री, ग्यारह से त्रिष्टुप्, बारह से जगती, और बत्तीस अक्षरों से अनुष्टुप् छन्द उत्पन्न हुआ। यही अनुष्टुप् सभी छन्दों की जननी है, सभी उसमें समाहित हैं। जो इस सम्पूर्ण छन्द सत्ता को जानता है, वह जानता है कि यह समस्त जगत अनुष्टुप् से ही उत्पन्न हुआ है और उसी में प्रतिष्ठित है। और जो यह जानता है, वह स्वयं भी इस जगत में स्थिर और प्रतिष्ठित हो जाता है।
जब प्रजापति ने सृष्टि की, तो देखा कि प्रजा उत्पन्न नहीं हो रही है। वह सोचने लगा — कैसे ये प्रजाएँ उत्पन्न हों? यह विचार करते हुए उसने अपनी चेतना को उग्रता से उद्बोधित किया और एक विशेष वेदपाठ के माध्यम से आत्म-प्रेरणा में प्रवेश किया। तभी उसके प्रथम पाद से एक उग्र और विलक्षण देव प्रकट हुआ — वह श्यामवर्ण का था, आगे से रक्तवर्णी, त्रिशूलधारी, और स्त्री-पुरुष दोनों स्वरूपों में स्थित था। प्रजापति ने उस एक रूप को विभाजित किया — स्त्रीरूप स्त्रियों में, और पुरुषरूप पुरुषों में विभाजित कर दिया। उसी से सभी प्रजाएँ उत्पन्न होने लगीं। जिसने यह रहस्य जाना, वह स्वयं त्र्यम्बक बन जाता है — उस ऋच का उच्चारण करते हुए, जटाएँ खुली हुईं, वह आत्मदीप्त और आंतरिक रस में निमग्न हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
इन्द्र, जो देवताओं में सबसे कनिष्ठ था, उससे प्रजापति ने कहा — जा, देवताओं का अधिपति बन। जब इन्द्र देवताओं के पास पहुँचा, तो उन्होंने कहा — तुम तो हमसे छोटे हो, फिर तुम्हारा अधिपत्य कैसे संभव? इन्द्र ने यह बात जाकर प्रजापति से कही। तब प्रजापति ने उसे तीन अमृतकलशों से अभिषिक्त किया, जिनमें आनुष्ठुभ मंत्रों की शक्ति भरी थी। उसके दक्षिण भाग की रक्षा सुदर्शन ने की, और बाईं ओर पाञ्चजन्य ने — इन दो दिव्यास्त्रों से वह पूरी तरह सुरक्षित हो गया। फिर एक स्वर्णमय दीप्तिमान पात्र में सूर्यतुल्य तेज भरकर उसके कंठ में धारित किया गया। अब वह ऐसा हो गया जिसे देख पाना भी कठिन हो गया। उसे आनुष्ठुभ नाम की दिव्य विद्या प्रदान की गई। तब देवताओं ने उसे अपना अधिपति स्वीकार किया। इस प्रकार वह ‘स्वराट’ बना — जो यह जानता है, वह भी स्वराट हो जाता है।
फिर इन्द्र ने विचार किया — अब पृथ्वी को भी कैसे जीतूँ? उसने फिर प्रजापति का आश्रय लिया। प्रजापति ने उसे एक कमठ यानी कछुए के आकार का सिंहासन प्रदान किया — जो नागों, भुजंगों और इन्द्रों का अधार था। इसी पर बैठकर इन्द्र ने पृथ्वी को जीत लिया। इस प्रकार वह दोनों लोकों — स्वर्ग और पृथ्वी — का अधिपति बन गया। जो इस ज्ञान को जानता है, वह भी दोनों लोकों का स्वामी हो जाता है और पृथ्वी को जीत लेता है।
जो व्यक्ति अप्रतिष्ठित, शिथिल और अपने भाइयों से श्रेष्ठ होता है, और जो यह सब जानता है — वह स्थिरता प्राप्त करता है, उसका जीवन सुव्यवस्थित और गरिमामय हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जो इस विद्या का अध्ययन करता है, वह सभी वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। वह मानो समस्त यज्ञों को पूर्ण करता है। वह सभी तीर्थों में स्नान कर चुका समझा जाता है। वह महापातकों और उनके उपपातकों से भी मुक्त हो जाता है। वह ब्रह्मतेज से भर जाता है। वह अपने पूर्वजों और उत्तरजनों — दोनों कुलों को पवित्र कर देता है। उसे स्मृति लोप, रोग या कोई भी बाधा नहीं छूती। यक्ष, प्रेत, पिशाच आदि भी यदि उसे छू लें, देख लें या सुन लें — तो वे पाप से मुक्त होकर पुण्यलोकों को प्राप्त करते हैं। उसका स्मरण मात्र करने से सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। लोग उसे अपने पिता के समान मानते हैं। राजा भी उसके आदेशों का पालन करते हैं। परंतु किसी को भी आचार्य को छोड़कर किसी और को श्रेष्ठ मानकर नमन नहीं करना चाहिए। और न ही इस ज्ञानी से कोई दूर हटना चाहिए। ऐसा व्यक्ति जीवन रहते ही मुक्त हो जाता है। और शरीर छोड़ने के पश्चात वह उस परम प्रकाशधाम को प्राप्त करता है — जहाँ स्वयं नरसिंह विराजमान हैं। वहाँ जाकर वह आत्मा उसी में लीन हो जाती है, जहाँ ज्ञानी मुनि उस स्वरूपध्यान में पूर्णतः विलीन हो जाते हैं। और वहाँ से फिर कोई लौटकर संसार में नहीं आता।
परंतु यह दिव्य विद्या कभी भी उस व्यक्ति को न बताई जाए जो श्रद्धाहीन हो, ईर्ष्यालु हो, वेदज्ञ न हो, विष्णुभक्त न हो, असत्य भाषी हो, तपहीन, इन्द्रियनिग्रह रहित, अशांत, दीक्षित न हो, अधार्मिक, हिंसक अथवा ब्रह्मचर्य का पालन न करने वाला हो — ऐसे किसी के लिए यह ज्ञान वर्जित है।
अब अंत में — मेरा वाणी, प्राण, नेत्र, श्रवण और सभी इंद्रियाँ सुदृढ़ हों। सब कुछ ब्रह्म ही है, और वेदों में जो ब्रह्म की शिक्षा है, वह मुझमें स्थिर हो। मैं ब्रह्म को कभी न छोड़ूँ और ब्रह्म भी मुझे कभी न छोड़े। यह स्थिर और निर्विघ्न संबंध हम दोनों के मध्य बना रहे। ब्रह्म में स्थिर होकर जो धर्म उपनिषदों में बताए गए हैं, वे सभी मुझमें प्रतिष्ठित हों, मुझमें ही स्थित रहें। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
अव्यक्तोपनिषद ब्रह्म के अव्यक्त और व्यक्त रूपों की गहनता को समझाता है। यह उपनिषद आत्मज्ञान के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है, जिसमें ब्रह्म के सत्य को पहचानने के लिए तप, साधना और शुद्धता की आवश्यकता होती है। यह बताता है कि ब्रह्म की वास्तविकता और उसकी अनंतता को जानने के लिए, व्यक्ति को अपने भीतर के आत्मा से जुड़कर उसकी दिव्यता को अनुभव करना होता है। इस उपनिषद के माध्यम से हमें ब्रह्म की सच्ची पहचान और शांति की प्राप्ति का मार्ग दिखाया गया है।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ तत्सत् ॥
इत्यव्यक्तोपनिषत्समाप्ता ॥