Adhyatma Upanishad, Upanishads, Vedantic Wisdom, and Self-Knowledge unfold in this profound spiritual scripture dedicated to the path of Self-Realization. Rooted in the Advaita Vedanta tradition, the Adhyatma Upanishad teaches the essence of the Atman, the nature of inner renunciation (Vairagya), meditation (Dhyana), and ultimate liberation (Moksha). This sacred text reveals how inner detachment, knowledge of the Self, and direct realization of Brahman lead to eternal peace and freedom. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यत्रान्तर्याम्यादिभेदस्तत्त्वतो न हि युज्यते ।
निर्भेदं परमाद्वैतं स्वमात्रमवशिष्यते ॥
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हरिः ॐ
जो अजन्मा, एक और नित्य है, वह इस शरीर के भीतर, गुह्य स्थान में स्थित है।
जिसकी पृथ्वी शरीर है, जो पृथ्वी के भीतर व्याप्त है, परंतु पृथ्वी उसे नहीं जानती।
जिसकी जल शरीर है, जो जल के भीतर व्याप्त है, परंतु जल उसे नहीं जानता।
जिसकी अग्नि शरीर है, जो अग्नि के भीतर व्याप्त है, परंतु अग्नि उसे नहीं जानती।
जिसकी वायु शरीर है, जो वायु के भीतर व्याप्त है, परंतु वायु उसे नहीं जानती।
जिसका आकाश शरीर है, जो आकाश के भीतर व्याप्त है, परंतु आकाश उसे नहीं जानता।
जिसका मन शरीर है, जो मन के भीतर व्याप्त है, परंतु मन उसे नहीं जानता।
जिसकी बुद्धि शरीर है, जो बुद्धि के भीतर व्याप्त है, परंतु बुद्धि उसे नहीं जानती।
जिसका अहंकार शरीर है, जो अहंकार के भीतर व्याप्त है, परंतु अहंकार उसे नहीं जानता।
जिसका चित्त शरीर है, जो चित्त के भीतर व्याप्त है, परंतु चित्त उसे नहीं जानता।
जिसका अव्यक्त शरीर है, जो अव्यक्त के भीतर व्याप्त है, परंतु अव्यक्त उसे नहीं जानता।
जिसका अक्षर शरीर है, जो अक्षर के भीतर व्याप्त है, परंतु अक्षर उसे नहीं जानता।
जिसका मृत्यु शरीर है, जो मृत्यु के भीतर व्याप्त है, परंतु मृत्यु उसे नहीं जानती।
वह समस्त प्राणियों के भीतर स्थित आत्मा, पापरहित, दिव्य, एकमात्र नारायण है।
अहं" और "मम" का भाव जो देह आदि में अनात्मा के प्रति होता है, वह अज्ञानजनित अध्यास है। इसे विद्वान को ब्रह्मनिष्ठा के द्वारा दूर करना चाहिए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अपने आत्मस्वरूप को, जो बुद्धि की वृत्तियों का साक्षी है, जानकर "सोऽहम्" की भावना से अपनी आत्मा को अन्य से भिन्न न मानें।
लोकाचार का त्याग कर, शरीर के प्रति आसक्ति का त्याग कर, शास्त्रों के बाह्य अनुसरण का त्याग कर, आत्मा में जमे अध्यास का नाश करो। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो योगी आत्मा में ही स्थिर रहता है, उसका मन नष्ट हो जाता है। तर्क, शास्त्र और आत्मानुभव द्वारा आत्मा के सार्वभौमिक स्वरूप को जानो। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
निद्रा, सांसारिक वार्तालाप और शब्दों द्वारा आत्मविस्मृति को अवसर न देकर, आत्मा का आत्मा में चिंतन करो।
माता-पिता के शरीर से उत्पन्न यह मल और मांस का बना हुआ शरीर त्याग कर, चांडाल की भांति दूर कर, ब्रह्मभाव को प्राप्त करो।
जैसे घट में स्थित आकाश महाकाश में विलीन हो जाता है, वैसे ही अपने आत्मा को परमात्मा में अखंड भाव से विलीन कर मौन रहो। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो स्वयं प्रकाशमान है, जो स्वभाव से ही सत् है, उस आत्मा को जानकर इस ब्रह्मांड और शरीर को मल के पात्र की तरह त्याग दो।
सद्-चित्त-आनंद स्वरूप आत्मा में अहंकार बुद्धि को समर्पित कर, लिंग (सूक्ष्म शरीर) को त्यागकर, सदैव अकेले रहो।
जिसमें यह समस्त संसार दर्पण में प्रतिबिंबित महल की भांति प्रकट होता है, उस ब्रह्म को "मैं" जानकर कृतकृत्य बनो।
अहंकार का परित्याग करने पर मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त करता है। वह चंद्रमा की भांति निर्मल, पूर्ण, शाश्वत आनंदमय और स्वयंप्रकाशित हो जाता है।
कर्मों के नष्ट होने से चिंताओं का नाश होता है और उनसे वासनाओं का क्षय होता है। वासनाओं का पूर्ण नाश ही मोक्ष है, जिसे जीवनमुक्ति कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सब कुछ, सभी स्थानों पर केवल ब्रह्म को ही देखने वाला व्यक्ति सच्चे अस्तित्व के भाव में स्थित होकर वासनाओं के निवास से मुक्त हो जाता है।
ब्रह्मनिष्ठा में प्रमाद कभी भी नहीं करना चाहिए। ब्रह्मवादियों ने कहा है कि विद्या में प्रमाद मृत्यु के समान है।
जिस प्रकार पानी से निकाले गए शैवाल क्षणभर भी अलग नहीं रहते, उसी प्रकार माया भी एक क्षण में ही ब्रह्मज्ञान से विमुख हुए ज्ञानी को पुनः आच्छादित कर लेती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो जीवित रहते हुए भी कैवल्य (मोक्ष) को प्राप्त कर चुका है, वह शरीर त्यागने के बाद भी केवल ब्रह्मरूप ही होता है। हे निष्पाप! समाधि में स्थित होकर वह निर्विकल्प अवस्था को प्राप्त करता है।
अज्ञान रूपी हृदयग्रंथि का पूर्णतः नाश हो जाता है, जब समाधि में अद्वैत आत्मदर्शन के साथ सभी विकल्प समाप्त हो जाते हैं।
अपने आत्मभाव को दृढ़ करके, "अहं" आदि भावों का परित्याग करके, समस्त वस्तुओं के प्रति उदासीन होकर, मनुष्य उन्हें घट और पट की भांति तटस्थ होकर देखे। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ब्रह्मा से लेकर एक तिनके तक सभी उपाधियाँ मात्र माया की कल्पनाएँ हैं। इसलिए, अपने पूर्ण आत्मस्वरूप को एकमात्र ब्रह्मरूप में स्थित होकर देखना चाहिए।
स्वयं ही ब्रह्मा, स्वयं ही विष्णु, स्वयं ही इंद्र और स्वयं ही शिव है। यह समस्त विश्व स्वयं ही है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
स्व के ऊपर आरोपित समस्त आभासों का नाश करने पर मनुष्य स्वयं ही परम ब्रह्मरूप, पूर्ण, अद्वैत और अकर्मरहित हो जाता है।
जो यह विश्व मात्र एक विकल्प (कल्पना) के समान प्रतीत होता है, वह केवल एक सत्य तत्व में ही स्थित है। जो निर्विकार, निराकार और निर्गुण है, उसमें भेद कैसा?
जिसमें द्रष्टा, दर्शन और दृश्य का कोई भाव नहीं है, जो समस्त दोषों से रहित है, जो कल्पांत के समुद्र के समान पूर्ण है, वह केवल चिदात्मा है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जिसमें अज्ञान रूपी अंधकार तेज के प्रकाश में विलीन हो जाता है, उस अद्वितीय, परम तत्व में, जो निराकार और निरविशेष है, वहाँ भेद की कल्पना कैसी?
जो एकमात्र आत्मस्वरूप में स्थित है, उसमें भेद करने वाला कैसे रह सकता है? जैसे सुषुप्ति (गहरी निद्रा) में केवल सुख का अनुभव होता है, वहाँ भेद को कौन देखता है? Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यह समस्त भेद केवल चित्त (मन) से उत्पन्न हुआ है, और चित्त के नष्ट होने पर कुछ भी शेष नहीं रहता। इसलिए, अपने चित्त को समाधि के द्वारा आत्मस्वरूप में स्थिर करना चाहिए।
जो अपने अखंड आनंद स्वरूप को जान लेता है, वह भीतर और बाहर सदैव आनंदरस का आस्वादन करता है।
वैराग्य का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल उपरत अवस्था (असंलग्नता) है, और स्वानंदानुभव से प्राप्त शांति ही उपरत अवस्था का अंतिम फल है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यदि एक अवस्था के बाद दूसरी अवस्था प्राप्त न हो, तो पूर्ववर्ती अवस्था निष्फल हो जाती है। संपूर्ण निवृत्ति (संन्यास) ही परम तृप्ति है और वह आनंद स्वाभाविक रूप से अनुपम है।
माया रूपी उपाधि ही इस जगत की उत्पत्ति का कारण है, जो सर्वज्ञता आदि गुणों से युक्त प्रतीत होती है। यह केवल परोक्ष ज्ञान से युक्त है, किंतु सत्य स्वरूप में स्थित "तत्" पद से अभिहित किया जाता है।
जो आत्मा हमारे प्रत्यक्ष अनुभव और शब्दों के आधार के रूप में प्रकाशित होता है, वह अंतःकरण से संयुक्त बोध स्वरूप "त्वं" पद का अर्थ कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
माया और अविद्या को त्यागकर, जीव और परमात्मा के सभी उपाधियों को छोड़ने पर केवल अखंड, सच्चिदानंद स्वरूप, परम ब्रह्म प्रकट होता है।
शास्त्रवाक्यों के द्वारा अर्थ की खोज करना ही श्रवण कहलाता है। तर्क द्वारा उसके संभावित स्वरूप की गहराई से खोज करना मनन कहलाता है।
श्रवण और मनन के द्वारा निष्कर्ष पर पहुँचे सत्य में मन को स्थिर करना और उसे एकत्व में स्थिर करना ही निदिध्यासन कहलाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ध्यान करने वाले और ध्यान की प्रक्रिया को क्रमशः त्यागकर, केवल ध्यान के एकमात्र लक्ष्य में स्थित होना, जिस प्रकार बिना हवा की लौ स्थिर रहती है, वैसा चित्त होना ही समाधि कहलाता है।
उस समय भी वृत्तियाँ ज्ञात-अज्ञात रूप में आत्मा में स्थित रहती हैं, किन्तु समाधि से उठने के बाद उनके होने का स्मरण आने से उनका अनुमान किया जाता है।
इस अनादि संसार में असंख्य जन्मों में संचित कर्मों का समूह इस समाधि के द्वारा नष्ट हो जाता है और शुद्ध धर्म का विकास होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
योगज्ञ महापुरुष इस समाधि को "धर्ममेघ समाधि" कहते हैं, जो सहस्रों धाराओं के समान धर्म और अमृत की वर्षा करता है।
इस समाधि के द्वारा समस्त वासनाएँ पूर्णतः नष्ट हो जाती हैं, पुण्य और पापरूपी समस्त कर्मों का संपूर्ण उन्मूलन हो जाता है।
जो वाणी किसी प्रकार की बाधा से रहित होती है, वह पहले केवल परोक्ष रूप में ब्रह्मज्ञान प्रदान करती है, किन्तु अंततः यह ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में कर के भीतर रखे आमलक फल के समान स्पष्ट अनुभव कराया जाता है।
जब वासनाएँ उत्पन्न नहीं होतीं, तब वह वैराग्य की अंतिम अवस्था होती है। जब "अहं" का उदय नहीं होता, तब वह बोध (ज्ञान) की परम अवस्था होती है।
जिसकी चित्तवृत्तियाँ लीन हो गई हैं और पुनः उत्पन्न नहीं होतीं, वह पूर्ण निवृत्त अवस्था कहलाती है। ऐसा स्थितप्रज्ञ योगी सदा आनंदमय रहता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जिसकी आत्मा ब्रह्म में विलीन हो गई है, जो विकार रहित और क्रियाशून्य है, जिसका ब्रह्म और आत्मा शुद्धता के साथ एकता में विलीन हो चुका है, वह मुक्त माना जाता है।
जो केवल चैतन्यस्वरूप निर्विकल्प वृत्ति है, उसे प्रज्ञा कहा जाता है। जिसके भीतर यह चैतन्य स्वरूप सदैव स्थित रहता है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है।
जिसे शरीर और इंद्रियों में "मैं" की भावना नहीं होती, और बाह्य पदार्थों में "यह" की भावना भी नहीं होती, वह जीवन्मुक्त कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो ब्रह्म और उसके सृजन के बीच कोई भेद नहीं देखता और प्रज्ञा से इसे जानता है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है।
जिसका मन सज्जनों द्वारा पूजे जाने पर भी और दुष्टों द्वारा कष्ट दिए जाने पर भी समान बना रहता है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है।
जिसने ब्रह्मतत्व को जान लिया है, वह पुनः संसार में नहीं आता। यदि वह पुनः संसार में आता है, तो इसका अर्थ है कि उसने ब्रह्मभाव का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त किया और बाह्य विषयों में ही लिप्त रहा।
जब तक सुख-दुःख आदि अनुभूति होती है, तब तक प्रारब्ध कर्म बना रहता है, क्योंकि फल का प्रकट होना पहले किए गए कर्म पर निर्भर करता है, लेकिन आत्मा स्वयं किसी भी क्रिया में संलग्न नहीं होती।
"मैं ब्रह्म हूँ" – इस ज्ञान से कल्पनाओं के असंख्य जन्मों से संचित संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, जैसे जागरण के बाद स्वप्न के कर्म समाप्त हो जाते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो संन्यासी स्वभाव से ही अनासक्त और निर्लिप्त होता है, वह आकाश की भांति स्थित रहता है और किसी भी प्रकार के प्रारब्ध कर्मों से कभी भी प्रभावित नहीं होता।
जिस प्रकार घट के साथ आकाश का संबंध होने पर भी वह उसमें व्याप्त सुगंध आदि से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार आत्मा भी किसी उपाधि के योग से उसके गुणों में लिप्त नहीं होती।
ज्ञान के उदय के बाद भी प्रारब्ध कर्म नष्ट नहीं होते, जैसे छोड़ा हुआ बाण अपने लक्ष्य को बिना फल दिए नहीं लौटता।
व्याघ्र को समझकर छोड़ा गया बाण, यदि बाद में उसे गौ समझ लिया जाए, तब भी वह अपने वेग से लक्ष्य को भेदता ही है।
जो आत्मा को अजन्मा और अमर मानकर उसे ही अपनाता है, उसके लिए प्रारब्ध कर्म की कोई कल्पना नहीं रह जाती।
प्रारब्ध तभी प्रभावी होता है जब देहात्मभाव बना रहता है। जब देहभाव ही वांछित नहीं है, तो प्रारब्ध भी समाप्त समझना चाहिए।
देह के लिए प्रारब्ध की कल्पना भी केवल भ्रम ही है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो कुछ अध्यारोपित है, उसका कोई वास्तविक तत्त्व नहीं होता; जो असत्य है, उसका जन्म नहीं होता; और जो अजन्मा है, उसका नाश भी नहीं होता। इसलिए असत् को प्रारब्ध कैसे हो सकता है?
यदि ज्ञान से अज्ञानजनित समस्त कर्मों का मूल सहित लय हो जाता है, तो फिर यह शरीर कैसे बना रहता है? इस प्रकार की शंका को दूर करने के लिए ही बाह्य दृष्टि से प्रारब्ध की चर्चा श्रुति करती है।
लेकिन यह ज्ञानी पुरुषों को देह आदि की सत्यता का बोध कराने के लिए नहीं कहा गया, बल्कि बाह्य दृष्टि रखने वाले मूढ़जनों को समाधान देने के लिए कहा गया है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
परिपूर्ण, अनादि-अनंत, अप्रमेय और अविकारी आत्मा ही सत्य है।
वह सत्-स्वरूप, चैतन्य-स्वरूप, नित्य, आनंद-स्वरूप और अविनाशी है।
वह पूर्ण, अनंत, सर्वत्र व्याप्त, आत्मस्वरूप और निर्विकार है।
वह त्यागने योग्य नहीं, ग्रहण करने योग्य नहीं, अधिष्ठान रहित और निर्गुण, निष्क्रिय, सूक्ष्म, निर्विकल्प और निरंजन है।
वह स्वरूप से अनिर्वचनीय, मन-वाणी से परे, सत्-स्वरूप, स्वयंसिद्ध, शुद्ध, बुद्ध और आत्मदृष्टि में स्थित है।
जो अपनी अनुभूति से अपने अखंड आत्मा को जान लेता है, वह सिद्ध होकर पूर्ण सुख में स्थित रहता है, अपने स्वरूप में निर्विकल्प होकर स्थित रहता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यह जगत कहाँ चला गया? इसे कौन ले गया? यह कहाँ विलीन हो गया? अभी-अभी तो मैंने इसे देखा था, अब यह नहीं है—यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है!
क्या त्याज्य है? क्या ग्राह्य है? क्या भिन्न है? क्या विशेष है? जब सर्वत्र अखंड आनंदरस से पूर्ण ब्रह्म का महासागर ही है, तब और क्या देखने योग्य है? Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यहाँ कुछ भी देखने योग्य नहीं, कुछ सुनने योग्य नहीं, कुछ जानने योग्य नहीं। मैं केवल अपने आत्मस्वरूप में, सदा आनंदमय रूप में स्थित हूँ।
मैं असंग हूँ, अनंग हूँ, चिन्ह रहित हूँ, शांति स्वरूप हूँ, अनंत हूँ और परिपूर्ण सनातन हूँ।
मैं कर्ता नहीं हूँ, भोक्ता नहीं हूँ, विकार रहित हूँ, अविनाशी हूँ, शुद्ध ज्ञानस्वरूप हूँ, केवल शिव हूँ।
यह ज्ञान अपांतरतम नामक ऋषि को प्राप्त हुआ। उन्होंने इसे ब्रह्मा को दिया, ब्रह्मा ने इसे घोरांगिरस ऋषि को दिया, घोरांगिरस ने इसे रैक्व ऋषि को दिया, रैक्व ने इसे भगवान राम को दिया और भगवान राम ने इसे समस्त प्राणियों को प्रदान किया। यही निर्वाण उपदेश है, यही वेदों का आदेश है, यही वेदों का उपदेश है—यही उपनिषद का सत्य है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
॥ हरिः ॐ तत्सत्॥
इति अध्यात्मोपनिषद् समाप्ता॥
Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh