Gita Rahasya The Hidden Wisdom of Bhagavad Gita Gyan by Shankaracharya. Gita Rahasya unveils the profound philosophical insights and spiritual secrets embedded within the Bhagavad Gita, as interpreted by Adi Shankaracharya, the great exponent of Advaita Vedanta. This timeless scripture decodes the path of Karma Yoga, Bhakti Yoga, and Jnana Yoga, guiding seekers toward self-realization and ultimate liberation (Moksha). Shankaracharya's commentary illuminates the essence of non-dualism (Advaita), emphasizing that the Supreme Self (Atman) is beyond all dualities and eternally blissful. Gita Rahasya serves as a spiritual guide for those striving to transcend illusion (Maya) and attain divine wisdom, offering a treasure trove of Sanatan Dharma's eternal truths. 🕉️✨
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य के अनुसार, श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य में उन्होंने गीता रहस्य को इस प्रकार प्रतिपादित किया है कि केवल तत्वज्ञान से ही मोक्ष प्राप्ति संभव है, कर्म के संयोग से नहीं। इस सिद्धांत को उन्होंने गीता के विभिन्न प्रसंगों में स्पष्ट किया है। विशेष रूप से द्वितीय अध्याय के "अशोच्यानन्वशोचस्त्वम्" श्लोक के पूर्व ही इस रहस्य को युक्तियुक्त वचनों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस गीता रहस्य को 44 कारिकाओं में संक्षेप रूप से प्रस्तुत किया गया है, जो इसके सम्यक् स्मरण में अत्यंत सहायक सिद्ध होंगी। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वेदों में प्रतिपादित धर्म दो प्रकार का है — एक प्रवृत्ति लक्षण (गृहस्थ जीवन में कर्म का पालन) और दूसरा निवृत्ति लक्षण (सन्यास व वैराग्य का पालन)।
धर्म के दो कारण होते हैं — एक जगत की स्थिरता और दूसरा प्राणियों का अभ्युदय (सांसारिक उन्नति) जो कि निःश्रेयस (मोक्ष) से युक्त होता है।
जब विद्वानों का विवेक और ज्ञान क्षीण हो जाता है तथा उनकी कामनाएँ बढ़ने लगती हैं, तब धर्म में गिरावट आती है और अधर्म, कामनाओं की वृद्धि के कारण उत्पन्न होता है।
इस संसार में वर्णाश्रम व्यवस्था ब्राह्मण्य (ब्राह्मणत्व) पर आधारित है। ब्राह्मणत्व सुरक्षित रहने पर ही वैदिक धर्म भी सुरक्षित रहता है।
ब्राह्मणत्व को इस पृथ्वी पर सनातन ब्रह्म के रूप में जानना चाहिए। उसी की रक्षा के लिए स्वयं भगवान नारायण ने कृष्णावतार धारण किया। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
शोक और मोह के सागर में डूबे हुए अर्जुन को केशव ने समस्त लोकों के उद्धार के उद्देश्य से वैदिक धर्म के दो रूपों का उपदेश दिया।
यह गीता शास्त्र समस्त वेदों के सार का संग्रह है जिसे स्वयं ईश्वर ने कहा है। व्यासजी ने उसे सात सौ श्लोकों में संकलित किया।
गीता शास्त्र का प्रयोजन परम निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति है, जो संसार के कारणों सहित पूर्ण रूप से उसकी समाप्ति है।
वह परम निःश्रेयस आत्मज्ञान में निष्ठा के स्वरूप से प्राप्त होता है, जो कि धर्मपूर्वक समस्त कर्मों के संन्यास के द्वारा संभव है।
भगवान ने 'अनुगीता' में स्वयं यह कहा कि गीता धर्म का प्रयोजन समस्त कर्मों के संन्यास को परम लक्ष्य मानना है।
वर्णों और आश्रमों का जो धर्म केवल अभ्युदय (सांसारिक उन्नति) के लिए है, वही प्रवृत्तिलक्षण धर्म है, जो स्वर्ग प्राप्ति का साधन है।
फल की कामना से रहित होकर तथा ब्रह्मार्पण बुद्धि के साथ प्रवृत्तिलक्षण धर्म का अनुष्ठान सत्त्वशुद्धि के लिए किया जाना चाहिए।
सत्त्व की शुद्धि के कारण मनुष्य ज्ञाननिष्ठा का पात्र बनता है और परम ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, जो निःश्रेयस (मोक्ष) देने वाला है।
प्रवृत्तिलक्षण धर्म का वर्णन गीता में किया गया है, क्योंकि वह ज्ञान की उत्पत्ति का कारण बनता है और निःश्रेयस प्रदान करने वाला होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
योगीजन आसक्ति का त्याग कर आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं; प्रवृत्ति धर्म का यही हेतु गीता के वचनों में प्रकट होता है।
इस शाश्वत वैदिक धर्म को गीता महाशास्त्र द्विविध रूप में प्रकट करती है — एक जो निःश्रेयस (मोक्ष) का सीधा साधन है और दूसरा जो परम ब्रह्म स्वरूप केशव का ज्ञान कराता है।
जो पुरुष गीता शास्त्र के अर्थ को भली-भांति समझता है, वह समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि को प्राप्त करता है।
शोक, मोह आदि दोष ही संसार की उत्पत्ति के कारण हैं; इस विषय में विषाद योग को समझना संसार के कारणों के ज्ञान के लिए आवश्यक है।
विवेक शोक और मोह के कारण ढक जाता है और ज्ञान अभिभूत हो जाता है, जिससे मनुष्य अपने स्वधर्म को छोड़कर निषिद्ध कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जैसे अर्जुन स्वयं अपने क्षात्रधर्म में प्रवृत्त होते हुए भी उसे छोड़कर परधर्म को श्रेष्ठ मानने लगा।
स्वधर्म में लगे हुए मनुष्यों की प्रवृत्ति भी प्रायः फल की इच्छा तथा अहंकार से युक्त देखी जाती है। फल की इच्छा और अहंकार – ये दोनों धर्म में दोष उत्पन्न करने वाले हैं।
सकाम कर्म के परिणामस्वरूप पाप-पुण्य उत्पन्न होते हैं, और इन्हीं के कारण जीव इस संसार में चक्र के समान घूमता रहता है।
इष्ट जन्म का सुख और अनिष्ट जन्म का दुःख — यही संसार है, जो शोक और मोह से उत्पन्न होता है और जिसे त्याग देना चाहिए।
समस्त कर्मों का संन्यास करने के बाद ही, परम निर्मल आत्मज्ञान के बिना शोक और मोह का निवृत्ति संभव नहीं है।
शोक और मोह से व्याकुल अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान ने समस्त प्राणियों पर कृपा करने के लिए गीता का उपदेश दिया।
(पूर्वपक्षः)
श्रीहरि के 'कुरु कर्म' कहने का आशय स्पष्ट रूप से यही है कि ज्ञान के साथ कर्म करने से ही कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति होती है, ऐसा कुछ लोग कहते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह निवेदन करते हुए कि धर्मयुक्त युद्ध न करने से पाप होगा, हिंसा रहित श्रौत और स्मार्त कर्म को भी मुक्ति का साधन बताया।
(उत्तरपक्षः)
कैवल्य प्राप्ति के लिए ज्ञान-कर्मयोग के समुच्चय को जो लोग दर्शाते हैं, गीता में उनका ही मत प्रमाणित होता है।
गीता में सांख्य और योग नामक दो प्रकार की बुद्धियाँ वर्णित हैं। अतः ज्ञान और कर्म को लेकर दो भिन्न निष्ठाएँ कही गई हैं।
षड्विकार (जन्म, अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, क्षय, नाश) से रहित होने के कारण 'मैं अकर्ता हूँ' — ऐसी जो धारणा है, वह ज्ञानियों के लिए 'सांख्यबुद्धि' कहलाती है।
अधिकतर सांख्यबुद्धि से पहले योगबुद्धि उत्पन्न होती है, जिसमें आत्मा को देह से भिन्न मानकर कर्ता-भोक्ता का भाव प्रकट होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
धर्म और अधर्म के विवेक के साथ मोक्ष-साधन कर्म का निरंतर अनुष्ठान ही योग कहलाता है।
जो व्यक्ति योगबुद्धि को अपनाकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए योग रूप कर्म करते हैं, वे ही योगी कहे जाते हैं।
ईश्वर ने गीता में ज्ञान और कर्म रूप निष्ठा को पृथक-पृथक कहा है, क्योंकि एक ही व्यक्ति में दोनों की एक साथ वृद्धि संभव नहीं है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
बृहदारण्यक उपनिषद में भी यह द्विविध निष्ठा कही गई है, जहाँ इच्छारहित व्यक्ति के लिए संन्यास और इच्छावान के लिए कर्म का निर्देश है।
यदि श्रौत कर्म और ज्ञान का समुच्चय ही श्रेष्ठ होता तो गीता में विभागवचन (ज्ञान और कर्म के भेद का उल्लेख) नहीं होता।
यदि अर्जुन का प्रश्न 'ज्यायसी चेत्' उचित होता, तो यह समुच्चय का समर्थन न होता।
ज्ञान और कर्म का एक साथ अनुष्ठान संभव नहीं है। यदि कृष्ण का यही अभिप्राय होता तो अर्जुन ने इसे क्यों नहीं सुना?
यदि अर्जुन ने यह नहीं सुना, तो कृष्ण पर 'ज्यायसी चेत्' आदि वचन का मिथ्या आरोप हो जाएगा।
यदि सभी के लिए ज्ञान-कर्म समुच्चय ही उपदेशित होता तो अर्जुन के लिए भी वही उपदेश पर्याप्त होता।
ज्ञान और कर्म के दोनों उपदेशों के होते हुए भी अर्जुन का प्रश्न 'यच्छ्रेय एतयोरेकम्' (इन दोनों में श्रेष्ठ क्या है?) उचित नहीं बनता।
'शीत और मधुर' अन्न दोनों ही पित्तशांति के लिए आवश्यक हैं, ऐसा कहने पर इनमें श्रेष्ठता का प्रश्न उठाना उचित नहीं है।
अर्जुन का प्रश्न केवल कृष्ण के उपदेश को न समझ पाने के कारण उत्पन्न हुआ, अतः उत्तर में ज्ञान-कर्म समुच्चय का निर्देश नहीं दिया गया। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
'लोकेऽस्मिन द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता' — ऐसा उत्तर प्रश्न के अनुरूप नहीं है, अतः यह ईश्वर के कथन से मेल नहीं खाता।
श्रौत और स्मार्त कर्म के साथ बुद्धि का समुच्चय अन्यथा अर्थ देने पर विभागवचन व्यर्थ हो जाएगा।
युद्ध कर्म क्षत्रियों का स्मार्त कर्म है, इसे जानने पर भी यदि अर्जुन पर 'घोरे कर्मणि' (भयानक कर्म) का उपालम्भ (आक्षेप) किया जाए तो वह व्यर्थ ही है।
इसलिए गीता में केवल कर्म और ज्ञान का समुच्चय मात्र का उपदेश नहीं किया गया है।
जो व्यक्ति अज्ञान, राग आदि दोष के कारण कर्म में प्रवृत्त होता है, वह सत्वशुद्धि के माध्यम से 'सर्वं ब्रह्म' का ज्ञान प्राप्त करता है।
जिसे ज्ञान प्राप्त हो गया है, उसके लिए कर्म का प्रयोजन नहीं रहता।
यदि कोई ज्ञानी व्यक्ति कर्म करता भी है तो वह लोकसंग्रह (जनहित) के लिए ही करता है।
ऐसे व्यक्ति में भी ज्ञान-कर्म समुच्चय संभव नहीं होता।
जैसे निष्काम क्षात्रकर्म में ज्ञान का समुच्चय संभव नहीं, वैसे ही ज्ञानी पंडित के कर्म में भी यह संभव नहीं।
जो तत्वज्ञानी 'मैं कर्म नहीं करता' ऐसा मानता है, वह भगवत्स्वरूप के समान होता है।
वह क्रियमाण कर्म का फल भी नहीं चाहता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
कामना से प्रेरित होकर किया गया यज्ञ यदि निष्फल हो जाए, तो वही पुनः निष्काम यज्ञ के रूप में किया जा सकता है।
इसका प्रमाण भगवद्वचन 'कुर्वन्नपि न लिप्यते' में है।
'कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः' — इस वचन का तात्पर्य यही है कि जनकादि कर्म द्वारा केवल चित्तशुद्धि को प्राप्त कर सके, न कि वे स्वयं तत्वज्ञानी थे। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
'योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये' — इस भगवद्वचन में कर्म का उद्देश्य आत्मशुद्धि बताया गया है।
इसलिए निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति ज्ञान-कर्म समुच्चय से नहीं, केवल तत्वज्ञान से ही संभव है।
इति श्रीश्रीधरभास्करवर्णेकरः विरचितं
जगद्गुरुश्रीशङ्कराचार्याभिमतं गीतारहस्यं सम्पूर्णम् ।