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क्या आपने कभी एक पल रुककर सोचा है कि आप असल में कौन हैं? इस नाम, इस शरीर, इन रिश्तों और दुनिया की दी हुई पहचानों से परे, आपका असली अस्तित्व क्या है?
हज़ारों साल पहले, भारत की पवित्र धरती पर एक ऐसा ग्रन्थ लिखा गया, जिसमें ब्रह्मांड का सबसे गहरा राज़ छिपा है. एक ऐसा राज़, जो अगर समझ आ जाए, तो आपके जीने का, आपके दुनिया को देखने का नज़रिया हमेशा के लिए बदल सकता है. ये कोई मामूली ज्ञान नहीं, बल्कि वो ब्रह्मविद्या है, जिसे पाने के लिए देवताओं और असुरों तक ने तपस्या की थी.
आज, हम उसी प्राचीन और रहस्यमयी छांदोग्य उपनिषद् की कहानियों और संवादों के पन्ने पलटेंगे. हम एक ऐसी रोमांचक यात्रा पर निकलेंगे, जो सृष्टि की पहली आवाज़ 'ॐ' से शुरू होगी, सच के लिए सब कुछ दाँव पर लगा देने वाले एक निडर बच्चे की कहानी से गुज़रेगी, और एक पिता-पुत्र के उस संवाद तक पहुँचेगी, जिसने दुनिया को सबसे बड़ा महावाक्य दिया - 'तत्त्वमसि', यानी 'वो तुम हो'. ये सिर्फ एक कहानी नहीं, ये खुद को जानने का वो रास्ता है, जो आपके अंदर छिपे सच का दरवाज़ा खोल सकता है. तो चलिए, मन को शांत करके इस दिव्य यात्रा पर निकलते हैं.
ब्रह्मांड का संगीत - ओंकार (ॐ) का रहस्य
हमारी ये यात्रा छांदोग्य उपनिषद् की शुरुआत से ही शुरू होती है, जहाँ ऋषि हमें सृष्टि के सबसे पहले और सबसे शक्तिशाली स्वर से मिलवाते हैं—ॐ. ये उपनिषद् सामवेद का दिल है, और सामवेद संगीत का वेद है. साम का मतलब ही होता है 'गीत'. ऋषि जानते थे कि ये पूरा ब्रह्मांड सिर्फ ऊर्जा का खेल नहीं, बल्कि एक दिव्य संगीत है, एक धुन है, और उस संगीत का जो पहला सुर है, वो है 'ॐ'. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उपनिषद् कहता है - ‘ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत’. इसका मतलब है, इस ॐ अक्षर की 'उद्गीथ' की तरह उपासना करो. उद्गीथ यानी, ऊँचे स्वर में गाया जाने वाला गीत. जब यज्ञ में ऋषि 'ॐ' का जाप करते हैं, तो वो सिर्फ एक मंत्र नहीं बोल रहे होते, बल्कि वो उस कॉस्मिक ऊर्जा को जगा रहे होते हैं, जिससे सब कुछ बना है.
सोचकर देखिए, जब कुछ भी नहीं था, न सूरज, न तारे, न ये धरती, सिर्फ गहरा सन्नाटा था. उस सन्नाटे में जो पहली थरथराहट हुई, जो पहली गूंज उठी, वही ॐ था. ये इंसान का बनाया कोई शब्द नहीं है, ये 'अनहद नाद' है - वो ध्वनि जो बिना किसी टकराव के पैदा होती है. आज के वैज्ञानिक भी कहते हैं कि ब्रह्मांड में एक हल्की सी गूंज लगातार तैर रही है, जिसे वो 'कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड रेडिएशन' कहते हैं. हमारे ऋषियों ने हज़ारों साल पहले इसी गूंज को अपने गहरे ध्यान में सुन लिया था और उसे नाम दिया था- ॐ.
छांदोग्य उपनिषद् बताता है कि ॐ सिर्फ एक प्रतीक नहीं, ये रसों का भी रस है. जैसे धरती का सार पानी है, पानी का सार पौधे हैं, पौधों का सार इंसान है, इंसान का सार उसकी वाणी है, वाणी का सार वेद के मंत्र हैं, मंत्रों का सार संगीत है, और उस संगीत का भी जो आखिरी निचोड़ है, वो है ॐ. इस तरह, ॐ ही इस पूरी सृष्टि का सबसे उत्तम रस है.
ये ध्वनि तीन अक्षरों से मिलकर बनी है - अ, उ, और म. 'अ' की ध्वनि सृष्टि की शुरुआत, यानी ब्रह्मा का प्रतीक है, जो गले के सबसे निचले हिस्से से उठती है. 'उ' की ध्वनि सृष्टि के चलने का, यानी विष्णु का प्रतीक है, जो बीच में संतुलन बनाती है. और 'म' की ध्वनि सृष्टि के अंत, यानी महेश का प्रतीक है, जो होंठों पर आकर पूरी होती है. इन तीनों के बाद जो ख़ामोशी है, जो सन्नाटा है, वही असली अवस्था है, वही ब्रह्म है, जहाँ सारी ध्वनियाँ खो जाती हैं.
ऋषियों ने इसी ॐ की साधना करके, इसकी गूंज पर ध्यान लगाकर अपने मन को उस पार पहुँचाया, जहाँ वो ब्रह्मांड के सच से एक हो गए. ये ध्वनि एक पुल की तरह है, जो हमें हमारे छोटे से 'मैं' से उस अनंत सत्ता तक ले जाती है. यही छांदोग्य उपनिषद् का पहला रहस्य है - कि आप उस परम संगीत का हिस्सा हैं, और उस संगीत का मुख्य सुर आपके अंदर भी गूंज रहा है. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
सत्य की अग्नि - सत्यकाम जाबाल की कथा
अब चलते हैं छांदोग्य उपनिषद् की एक ऐसी कहानी की तरफ, जो सिखाती है कि ब्रह्मज्ञान का हक़दार बनने के लिए ऊँचा कुल या जाति नहीं, बल्कि सिर्फ एक चीज़ चाहिए - और वो है 'सत्य'. ये कहानी है एक छोटे से बच्चे, सत्यकाम जाबाल की.
बहुत समय पहले, जबाला नाम की एक गरीब महिला थीं, जो दूसरों के घरों में काम करके अपना और अपने बेटे सत्यकाम का पेट पालती थीं. माँ भले ही गरीब थीं, पर उसूलों की धनी थीं. उन्होंने बेटे को बस एक ही बात सिखाई थी - चाहे जो हो जाए, सच का रास्ता कभी मत छोड़ना.
जब सत्यकाम बड़ा हुआ, तो उसके मन में पढ़ने की इच्छा जागी. उन दिनों शिक्षा गुरुकुल में मिलती थी. एक दिन वो अपनी माँ के पास गया और बोला, "माँ, मैं गुरु के आश्रम जाकर विद्या सीखना चाहता हूँ. क्या आप मुझे आज्ञा देंगी?"
बेटे की ज्ञान की प्यास देखकर माँ का दिल खुश हो गया, पर अगले ही पल वो चिंता में पड़ गईं. वो जानती थीं कि गुरुकुल में गुरु सबसे पहले शिष्य का गोत्र पूछते हैं, यानी उसके पिता का कुल. जबाला को अपने पति का गोत्र पता नहीं था, क्योंकि उन्होंने जवानी में कई घरों में सेवा करते हुए अपने बेटे को पाला था.
सत्यकाम ने माँ की चिंता देखकर पूछा, "माँ, अगर गुरु जी ने मुझसे मेरा गोत्र पूछा, तो मैं क्या कहूँगा?"
उसकी माँ, जबाला ने एक गहरी साँस ली और बेटे की आँखों में देखकर कहा, "बेटा, मुझे तुम्हारे गोत्र का नहीं पता. मैंने जवानी में कई जगह काम किया, और तभी तुम्हारा जन्म हुआ. इसलिए मैं नहीं जानती कि तुम्हारे पिता किस गोत्र के थे. मेरा नाम जबाला है और तुम्हारा नाम सत्यकाम. जब गुरु तुमसे पूछें, तो बिना डरे यही कहना कि तुम 'सत्यकाम जाबाल' हो, यानी जबाला का बेटा सत्यकाम."
माँ से ये सीधा और सच्चा जवाब पाकर सत्यकाम का दिल हल्का हो गया. वो महान ऋषि हारिद्रुमत गौतम के आश्रम की ओर निकल पड़ा. आश्रम पहुँचकर उसने ऋषि को प्रणाम किया और कहा, "गुरुवर, मैं आपके आश्रम में रहकर ज्ञान पाना चाहता हूँ." Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
ऋषि गौतम ने आँखें खोलीं और उस तेज़ चेहरे वाले बच्चे को देखकर पूछा, "प्यारे बालक, तुम्हारा गोत्र क्या है?"
सत्यकाम ने अपनी माँ की कही बात, बिना किसी डर या शर्म के, पूरी सच्चाई से दोहरा दी, "गुरुवर, मैं अपना गोत्र नहीं जानता. मेरी माँ ने कहा कि उन्होंने कई जगह सेवा करते हुए मुझे पाया, इसलिए उन्हें मेरे पिता का गोत्र नहीं पता. मेरा नाम सत्यकाम और मेरी माँ का नाम जबाला है, इसलिए मैं 'सत्यकाम जाबाल' हूँ."
ये सुनते ही आश्रम के बाकी शिष्य चौंक गए. एक ऐसा लड़का जो अपने पिता का नाम तक नहीं जानता, वो ब्रह्मविद्या कैसे सीख सकता है? लेकिन ऋषि गौतम के चेहरे पर गुस्सा नहीं, बल्कि एक मुस्कान आ गई. वो बहुत खुश हुए.
उन्होंने कहा, "इतनी कड़वी सच्चाई कोई अब्राह्मण नहीं बोल सकता. बेटा, तुम सच से नहीं हटे, यही तुम्हारी सबसे बड़ी काबिलियत है. तुम ही सच्चे ब्राह्मण हो, क्योंकि ब्राह्मण का असली गहना उसका सच होता है. जाओ, यज्ञ के लिए लकड़ियाँ ले आओ, मैं तुम्हें शिक्षा दूँगा, क्योंकि तुमने सत्य को नहीं छोड़ा."
गुरु ने सत्यकाम को अपना शिष्य बना लिया. कुछ समय बाद, उन्होंने उसकी एक अनोखी परीक्षा लेने की सोची. उन्होंने आश्रम की 400 दुबली-पतली गायें सत्यकाम को दीं और कहा, "सत्यकाम, इन गायों को जंगल में चराने ले जाओ, और जब तक ये एक हज़ार न हो जाएँ, तब तक लौटना मत."
कोई और शिष्य होता तो शायद घबरा जाता, पर सत्यकाम ने इसे गुरु का आशीर्वाद मानकर स्वीकार कर लिया. वो गायों को लेकर घने जंगलों में चला गया. साल बीतते गए. सत्यकाम पूरे प्यार और लगन से गायों की सेवा करता रहा. इस अकेलेपन में, प्रकृति ही उसकी गुरु बन गई. वो दुनिया के शोर से दूर, अपने अंदर की शांति में डूबता गया.
कई सालों बाद, जब गायों की संख्या बढ़कर एक हज़ार हो गई, तो एक दिन झुंड के एक बैल ने, जिसमें वायुदेव का अंश था, इंसानी आवाज़ में कहा, "सत्यकाम!"
सत्यकाम ने हैरान होकर श्रद्धा से कहा, "कहिए भगवन्!"
बैल बोला, "अब हम एक हज़ार हो गए हैं, हमें गुरु के आश्रम ले चलो. तुम्हारी सेवा से हम खुश हैं. मैं तुम्हें ब्रह्म के एक चौथाई हिस्से का ज्ञान देता हूँ. ब्रह्म का एक हिस्सा 'प्रकाशवान' है. पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण - ये चारों दिशाएँ उसी का रूप हैं."
अगले दिन जब सत्यकाम ने यात्रा शुरू की, तो शाम को जब उसने आग जलाई, तो अग्निदेव ने उसे ब्रह्म के दूसरे हिस्से का ज्ञान दिया और कहा, "ब्रह्म का दूसरा हिस्सा 'अनंतवान' है. पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश और सागर - ये सब उसी का फैलाव हैं."
तीसरे दिन, एक हंस ने उसे ब्रह्म के तीसरे हिस्से का उपदेश देते हुए कहा, "ब्रह्म का तीसरा हिस्सा 'ज्योतिष्मान' है. अग्नि, सूर्य, चाँद और बिजली - ये सब उसी की रोशनी हैं."
और आख़िर में, जब वो आश्रम के पास पहुँचने वाला था, तो एक जल-पक्षी ने उसे ब्रह्म के चौथे और आख़िरी हिस्से का ज्ञान देते हुए कहा, "ब्रह्म का चौथा हिस्सा 'आयतनवान' है. प्राण, आँखें, कान और मन - ये सब उसी का आधार हैं." Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जब सत्यकाम एक हज़ार गायों के साथ आश्रम पहुँचा, तो उसके चेहरे पर एक दिव्य तेज चमक रहा था. उसे देखते ही गुरु गौतम समझ गए. उन्होंने पूछा, "सत्यकाम, तुम्हारा चेहरा तो किसी ब्रह्मज्ञानी की तरह चमक रहा है. तुम्हें किसने सिखाया?"
सत्यकाम ने विनम्रता से जवाब दिया, "गुरुवर, मुझे इंसानों ने नहीं, बल्कि दूसरी सत्ताओं ने उपदेश दिया. पर मेरी इच्छा है कि ये ज्ञान मैं आपसे ही सुनूँ, क्योंकि मैंने सुना है कि गुरु से मिली विद्या ही सबसे अच्छी होती है." तब गुरु गौतम ने उसे वही ज्ञान फिर से दिया और इस तरह सत्यकाम जाबाल की शिक्षा पूरी हुई. ये कहानी हमें सिखाती है कि ज्ञान का दरवाज़ा किसी कुल या वंश के लिए नहीं, बल्कि सच और लगन के लिए खुला है.
महावाक्य का रहस्योद्घाटन - उद्दालक और श्वेतकेतु का संवाद
छांदोग्य उपनिषद् की यात्रा अब अपने शिखर पर पहुँचती है. हम उस बातचीत में उतरने वाले हैं, जिसने दुनिया को सबसे शक्तिशाली महावाक्य दिया - 'तत्त्वमसि'. ये संवाद है महान ऋषि उद्दालक आरुणि और उनके बेटे श्वेतकेतु के बीच.
कहानी कुछ यूँ है. श्वेतकेतु बारह साल की उम्र में गुरुकुल गया और चौबीस साल की उम्र में, पूरे बारह साल वेद-शास्त्र पढ़कर लौटा. उसे अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था. वो खुद को सबसे बड़ा विद्वान समझता था और उसका व्यवहार रूखा हो गया था.
एक दिन पिता उद्दालक ने उसके घमंड को पहचान लिया और उससे एक सीधा सा सवाल पूछा, "बेटा श्वेतकेतु, तुम तो सारे वेद पढ़कर लौटे हो और खुद को बहुत ज्ञानी मान रहे हो. क्या तुमने अपने गुरु से उस एक ज्ञान के बारे में भी पूछा, जिसे जान लेने के बाद कुछ भी सुनना बाकी नहीं रहता, जिसे सोच लेने के बाद कुछ भी सोचना बाकी नहीं रहता, और जिसे समझ लेने के बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता?"
श्वेतकेतु हैरान रह गया. उसने ऐसा तो कुछ नहीं सीखा था. उसका घमंड से भरा सिर झुक गया. उसने कहा, "भगवन्, ये कैसा ज्ञान है? मेरे गुरुओं ने तो मुझे इसके बारे में नहीं बताया. शायद वे खुद भी नहीं जानते होंगे. आप ही मुझे इसके बारे में बताइए."
तब ऋषि उद्दालक ने अपने बेटे को पास बिठाया और वो परम ज्ञान देना शुरू किया, जो तर्कों से नहीं, बल्कि मिसालों से समझा जा सकता है.
पहली मिसाल: मिट्टी का राज़
उद्दालक ने कहा, "बेटा, जैसे मिट्टी के एक ढेले को जान लेने से मिट्टी की बनी सारी चीज़ें, जैसे घड़े, सुराही, बर्तन, सब समझ आ जाते हैं, क्योंकि उनके अलग-अलग रूप तो बस कहने-सुनने की बातें हैं, सिर्फ नाम हैं, असली सच तो बस मिट्टी ही है." "ठीक वैसे ही, बेटा, वो एक ज्ञान है, जिसे जानने से ये पूरी दुनिया समझ आ जाती है, क्योंकि ये सब उसी एक सच से बनी है." Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
दूसरी मिसाल: सोने का राज़
"जैसे सोने के एक टुकड़े को जान लेने से सोने के बने सारे गहने, चाहे कंगन हो या हार, सब समझ आ जाते हैं, क्योंकि उनका आकार तो बस एक नाम है, असली सच तो बस सोना ही है."
"उसी तरह, बेटा, इस दुनिया की शुरुआत में केवल एक ही 'सत्' (यानी सत्य) था, अकेला. उसी ने सोचा, 'मैं एक से अनेक हो जाऊँ' और उसी से ये पूरी दुनिया पैदा हुई."
ये सुनकर श्वेतकेतु की जिज्ञासा और बढ़ गई. उसने कहा, "पिताजी, कृपया मुझे और समझाइए."
तीसरी मिसाल: बरगद का बीज
उद्दालक ने कहा, "ठीक है. जाओ, उस बड़े से बरगद के पेड़ का एक फल तोड़कर लाओ."
श्वेतकेतु फल ले आया.
पिता ने कहा, "इसे तोड़ो."
"मैंने तोड़ दिया, भगवन्."
"इसके अंदर क्या है?"
"इसके अंदर बहुत छोटे-छोटे बीज हैं."
"इनमें से एक बीज को तोड़ो."
"मैंने तोड़ दिया."
"अब इसके अंदर क्या दिख रहा है?"
श्वेतकेतु ने ध्यान से देखकर कहा, "भगवन्, इसके अंदर तो मुझे कुछ भी नहीं दिख रहा."
तब पिता मुस्कुराए और बोले, "बेटा! इस बीज के अंदर जिस महीन तत्व को तुम देख नहीं पा रहे हो, उसी अदृश्य 'सच' से ये इतना बड़ा बरगद का पेड़ खड़ा हुआ है. यकीन करो बेटा, ये जो अणु से भी छोटा अस्तित्व है, वही इस पूरी दुनिया की आत्मा है. वो सत्य है, वो आत्मा है, और... तत्त्वमसि श्वेतकेतो।"
यानी, "हे श्वेतकेतु, वो तुम हो." Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
ये सुनकर श्वेतकेतु काँप गया. मैं ये शरीर हूँ, ये मन हूँ, ये घमंड हूँ, ये तो मैं जानता था. पर मैं 'वो' हूँ, वो अदृश्य शक्ति, वो ब्रह्मांड की आत्मा? ये कैसे हो सकता है? उसने फिर से प्रार्थना की, "भगवन्, मुझे और समझाइए."
चौथी मिसाल: नमक और पानी
उद्दालक ने कहा, "एक बर्तन में पानी भरो और उसमें ये नमक की डली डाल दो. कल सुबह मेरे पास आना."
श्वेतकेतु ने वैसा ही किया. अगली सुबह पिता ने पूछा, "बेटा, जो नमक तुमने कल रात पानी में डाला था, उसे बाहर निकालो."
श्वेतकेतु ने पानी में हाथ डालकर नमक को ढूँढा, पर वो नहीं मिला, क्योंकि वो पूरी तरह घुल चुका था.
पिता ने कहा, "ठीक है, अब इस पानी को ऊपर से चखो. कैसा है?"
"खारा है."
"अब इसे बीच से चखो. कैसा है?"
"ये भी खारा है."
"अब इसे नीचे से चखो. कैसा है?"
"ये भी खारा ही है."
तब उद्दालक ने कहा, "बेटा, जैसे नमक इस पानी में हर जगह मौजूद है, पर तुम उसे देख नहीं सकते, सिर्फ महसूस कर सकते हो, ठीक उसी तरह वो 'सच', वो परमात्मा, इस शरीर और इस दुनिया के कण-कण में मौजूद है, पर इन आँखों से दिखता नहीं. वही सूक्ष्म शक्ति इस दुनिया की आत्मा है, वो सत्य है, वो आत्मा है, और... तत्त्वमसि श्वेतकेतो।"
पाँचवीं मिसाल: गंधार का राही
"बेटा, सोचो कि किसी आदमी को डाकू गंधार देश से पकड़ लाएं, उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दें और उसे एक सुनसान जंगल में छोड़ दें. वो बेचारा पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशाओं में चिल्लाएगा, 'किसी ने मेरी आँखों पर पट्टी बाँधकर मुझे यहाँ छोड़ दिया है! मुझे रास्ता बताओ!'"
"तब कोई दयालु इंसान आकर उसकी आँखों की पट्टी खोल दे और उसे गंधार का रास्ता बता दे. तब वो आदमी पूछता-पाछता, गाँव-गाँव होते हुए अपने घर पहुँच जाएगा."
"बेटा, ठीक इसी तरह, हम सब उस राही की तरह हैं, जिसे अज्ञान की पट्टी ने अँधा कर दिया है और संसार रूपी जंगल में छोड़ दिया है. और जो गुरु होता है, वो उस दयालु इंसान की तरह है, जो हमारे अज्ञान की पट्टी खोलकर हमें हमारे असली स्वरूप, हमारे सच्चे घर (ब्रह्म) का रास्ता दिखाता है. वो सूक्ष्म तत्व ही इस जगत की आत्मा है, वो सत्य है, वो आत्मा है, और... तत्त्वमसि श्वेतकेतो।"
इस तरह, ऋषि उद्दालक ने नौ अलग-अलग मिसालों से श्वेतकेतु को उस परम सच का एहसास कराया. उन्होंने समझाया कि जैसे नदियाँ अलग-अलग नामों से बहती हैं, पर आखिर में समुद्र में मिलकर अपनी अलग पहचान खो देती हैं और सिर्फ समुद्र रह जाती हैं, उसी तरह हम सब जीव अलग-अलग नाम और रूप लेकर जी रहे हैं, पर हमारा असली स्वरूप वही एक ब्रह्म है.
यह सुनकर श्वेतकेतु का घमंड चकनाचूर हो गया. उसका ज्ञान अब सिर्फ किताबी नहीं रहा, बल्कि एक जीता-जागता अनुभव बन गया. उसने जान लिया कि वो यह छोटा सा शरीर या मन नहीं, बल्कि वही अनंत, हमेशा रहने वाला और आनंद से भरा ब्रह्म है. यही छांदोग्य उपनिषद् की सबसे बड़ी सीख है, जो हमें हमारी असली पहचान याद दिलाती है.
ज्ञान की सीढ़ी - नारद और सनत्कुमार का संवाद
'तत्त्वमसि' के महावाक्य को समझने के बाद भी एक सवाल उठता है—उस परम सच तक पहुँचने का तरीका क्या है? क्या कोई ऐसी सीढ़ी है जिस पर चढ़कर एक इंसान दुनिया से आत्म-ज्ञान तक पहुँच सकता है? इस सवाल का जवाब छांदोग्य उपनिषद् के सातवें अध्याय में, देवर्षि नारद और सनत्कुमार के संवाद में मिलता है.
ये कहानी बताती है कि ज्ञान का कोई अंत नहीं होता. देवर्षि नारद, जिन्हें हम एक महान ज्ञानी के रूप में जानते हैं, एक बार बहुत दुखी और बेचैन हो गए. उन्होंने चारों वेद, इतिहास, पुराण, गणित, ज्योतिष, संगीत, यानी उस समय की सारी विद्याएँ सीख ली थीं. वो ज्ञान के भंडार थे, फिर भी उनके मन में शांति नहीं थी. उन्हें आत्म-ज्ञान नहीं था और यही उनके दुख का कारण था. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वो जानते थे कि सिर्फ 'मंत्रवित्' होने से, यानी सिर्फ शास्त्रों को रट लेने से दुख खत्म नहीं होगा; 'आत्मवित्' बनना होगा, यानी आत्मा को जानना होगा. इसी खोज में वो परमज्ञानी सनत्कुमार के पास पहुँचे और एक शिष्य की तरह बोले, "भगवन्, मुझे सिखाइए."
सनत्कुमार ने कहा, "पहले तुम बताओ कि तुम क्या-क्या जानते हो, फिर मैं तुम्हें वो बताऊंगा जो उससे भी आगे है."
नारद ने गर्व से अपनी पूरी लिस्ट गिना दी. उन्होंने कहा, "भगवन्, मैं ये सब जानता हूँ. लेकिन मैं सिर्फ एक 'मंत्रवित्' हूँ, 'आत्मवित्' नहीं. मैंने आप जैसों से सुना है कि जिसे आत्मा का ज्ञान हो जाता है, वो दुख से पार हो जाता है. मैं दुख में डूबा हूँ. कृपा करके मुझे इस दुख से बाहर निकालिए."
सनत्कुमार ने शांति से कहा, "नारद, तुमने जो कुछ भी सीखा है, वो सब तो बस 'नाम' है."
ये सुनकर नारद हैरान रह गए. इतना सारा ज्ञान, और वो सब सिर्फ नाम? उन्होंने पूछा, "भगवन्, क्या 'नाम' से भी बढ़कर कुछ है?"
सनत्कुमार बोले, "हाँ, नाम से बढ़कर 'वाणी' है. क्योंकि अगर वाणी न होती तो इन नामों को कोई बोल ही नहीं पाता."
इस तरह, एक अद्भुत बातचीत शुरू हुई, जिसमें सनत्कुमार एक-एक करके नारद को ज्ञान की सीढ़ी पर ऊपर ले जाते हैं. ये सीढ़ियां कुछ इस तरह हैं:
नाम से श्रेष्ठ है वाणी (Speech), वाणी से श्रेष्ठ है मन (Mind), मन से श्रेष्ठ है संकल्प (Will), संकल्प से श्रेष्ठ है चित्त (Consciousness), चित्त से श्रेष्ठ है ध्यान (Meditation), ध्यान से श्रेष्ठ है विज्ञान (Understanding), विज्ञान से श्रेष्ठ है बल (Strength), बल से श्रेष्ठ है अन्न (Food), अन्न से श्रेष्ठ है जल (Water), जल से श्रेष्ठ है तेज (Energy), तेज से श्रेष्ठ है आकाश (Space), आकाश से श्रेष्ठ है स्मृति (Memory), स्मृति से श्रेष्ठ है आशा (Hope), और आशा से भी श्रेष्ठ है प्राण (Life Force).
सनत्कुमार कहते हैं, "जैसे रथ के पहिये के बीच में सारी तीलियाँ जुड़ी होती हैं, वैसे ही इस प्राण में सब कुछ टिका हुआ है. प्राण ही पिता है, प्राण ही माता है, प्राण ही गुरु है."
जब सनत्कुमार ने प्राण को सबसे श्रेष्ठ बताया, तो नारद को लगा कि शायद उन्हें आखिरी जवाब मिल गया है. लेकिन सनत्कुमार उन्हें और भी आगे ले गए.
तब उन्होंने असली रहस्य खोला. उन्होंने कहा, "यो वै भूमा तत्सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति, भूमैव सुखम्."
यानी, "जो 'भूमा' (अनंत, असीम) है, वही असली सुख है. 'अल्प' (छोटी, सीमित चीज़ों) में कोई सुख नहीं है. केवल भूमा ही सुख है."
नारद ने पूछा, "भगवन्, ये भूमा क्या है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
सनत्कुमार ने जवाब दिया, "जहाँ इंसान न कुछ और देखता है, न कुछ और सुनता है, और न कुछ और जानता है, वही भूमा है. और जहाँ वो कुछ और देखता, सुनता या जानता है, वो अल्प है. जो भूमा है, वही अमर है. जो अल्प है, वो नश्वर है."
ये भूमा कहीं बाहर नहीं है. वो ऊपर है, वो नीचे है, वो दाएं है, वो बाएं है. वो ही सब कुछ है. जब साधक ये महसूस करता है कि 'मैं' ही यह सब कुछ हूँ, 'आत्मा' ही यह सब कुछ है, तब वो भूमा में स्थित हो जाता है.
ये संवाद सिखाता है कि सच्ची खुशी बाहरी चीज़ों या थोड़े-बहुत ज्ञान में नहीं, बल्कि अपने अनंत स्वरूप को जानने में है. ये ज्ञान की वो सीढ़ी है, जो हमें नाम और रूप की दुनिया से उठाकर अनंत चेतना के आकाश में ले जाती है.
हृदय के भीतर ब्रह्मांड - दहर विद्या और मोक्ष का मार्ग
अब तक हमने जाना कि ब्रह्म हर जगह है, दुनिया के कण-कण में है. लेकिन छांदोग्य उपनिषद् एक और गहरा राज़ बताता है—वो विशाल ब्रह्मांड सिर्फ तुम्हारे बाहर नहीं, बल्कि तुम्हारे अंदर भी है. इस रहस्य को 'दहर विद्या' कहते हैं.
'दहर' का मतलब है 'छोटा' या 'सूक्ष्म'. उपनिषद् कहता है, "इस शरीर रूपी ब्रह्मपुर के अंदर दिल की जगह पर एक कमल का फूल है, और उस कमल के अंदर एक 'दहर आकाश' (छोटा सा आकाश) है. उसके अंदर जो है, उसी को खोजना चाहिए, उसी को जानने की कोशिश करनी चाहिए."
ये एक कमाल की बात है. ऋषि कह रहे हैं कि आपके दिल के अंदर एक छोटा सा आकाश है, और वो आकाश इतना बड़ा है कि ये पूरा बाहरी ब्रह्मांड उसी में समाया हुआ है. जो कुछ भी बाहर है—ये सूरज, चाँद, तारे, बिजली—वो सब कुछ उस छोटे से आकाश के अंदर भी मौजूद है.
ये दिल हमारा फिजिकल हार्ट नहीं, बल्कि चेतना का केंद्र है. ये वो गुफा है, जहाँ आत्मा रहती है. उपनिषद् कहता है कि शरीर के बूढ़े होने या मर जाने से उस अंदर के आकाश पर कोई असर नहीं पड़ता. वो आत्मा पाप, बुढ़ापे, मौत, दुख, भूख और प्यास से परे है.
लेकिन इस अंदर के सच को पहचानना आसान नहीं है. इसके लिए काबिल बनना पड़ता है. इसी बारे में उपनिषद् हमें देवताओं के राजा इंद्र और असुरों के राजा विरोचन की कहानी सुनाता है. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
एक बार प्रजापति ब्रह्मा ने घोषणा की, "वो आत्मा जो पाप, बुढ़ापे और मौत से परे है, वही जानने लायक है. जो उसे जान लेता है, उसे सब कुछ मिल जाता है."
ये सुनकर देवता और असुर, दोनों ने उस ज्ञान को पाने का फैसला किया. देवताओं ने इंद्र को और असुरों ने विरोचन को ब्रह्मा जी के पास भेजा.
दोनों बत्तीस साल तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए ब्रह्मा जी की सेवा करते रहे. बत्तीस साल बाद, ब्रह्मा जी ने उनकी परीक्षा लेने के लिए कहा, "जो परछाई पानी में दिखती है, वही आत्मा है."
विरोचन ये सुनकर पूरी तरह खुश हो गया. उसने सोचा कि ये 'शरीर' ही आत्मा है. वो असुरों के पास लौटा और उन्हें यही सिखाया कि शरीर ही ब्रह्म है, इसी की पूजा करो, इसी को खुश रखो.
लेकिन इंद्र के मन में शक हुआ. उसने सोचा, "अगर शरीर ही आत्मा है, तो शरीर के अंधे होने पर आत्मा भी अंधी हो जाएगी, और शरीर के मरने पर आत्मा भी मर जाएगी. इसमें तो कोई भलाई नहीं है."
वो वापस ब्रह्मा जी के पास लौटा. ब्रह्मा जी मुस्कुराए और उसे और बत्तीस साल तप करने को कहा. इसके बाद उन्होंने स्वप्न को आत्मा बताया. इंद्र ने फिर सोचा कि सपने में भी आत्मा दुख-सुख महसूस करती है, ये भी असली आत्मा नहीं हो सकती. वो फिर लौटा. इस तरह, कुल एक सौ एक साल की कठोर तपस्या के बाद, जब इंद्र का मन पूरी तरह शुद्ध हो गया, तब ब्रह्मा जी ने उसे असली रहस्य बताया. उन्होंने समझाया कि आत्मा इस शरीर, सपने या गहरी नींद की अवस्था से भी परे है. वो इन सबका गवाह (साक्षी) है, जो इन सबमें रहते हुए भी इनसे अलग है. यही तुम्हारा असली स्वरूप है.
ये कहानी सिखाती है कि आत्म-ज्ञान सिर्फ बातों से नहीं मिलता. इसके लिए तप, श्रद्धा और संयम से खुद को काबिल बनाना पड़ता है. जब मन शुद्ध और शांत हो जाता है, तभी इंसान अपने दिल की गुफा में बसे उस सच का अनुभव कर पाता है. यही मोक्ष है.
ये थी छांदोग्य उपनिषद् की एक झलक. एक ऐसी यात्रा जो ॐ की गूंज से शुरू हुई, सत्यकाम के सच की आग में तपी, श्वेतकेतु के साथ 'तत्त्वमसि' के सागर में उतरी, नारद के साथ ज्ञान की सीढ़ियों पर चढ़ी, और आखिर में इंद्र की तरह अपने ही दिल की गुफा में उस परम सच को खोजा.
इस उपनिषद् का निचोड़ सिर्फ कहानियों में नहीं है. इसका सार एक अनुभव में है. ये हमें बार-बार याद दिलाता है कि आप सिर्फ ये नाम और शरीर नहीं हैं. आप अपने विचार या अपनी भावनाएँ नहीं हैं. आप वो 'अल्प' या सीमित नहीं हैं, जिसमें हमेशा सुख की तलाश रहती है. आप 'भूमा' हैं, वो असीम, अनंत, आनंद से भरी चेतना, जो इस पूरे ब्रह्मांड का आधार है. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
'तत्त्वमसि' - 'वो तुम हो' - ये सिर्फ एक वाक्य नहीं, ये एक आईना है, जो आपको आपका असली चेहरा दिखाता है. इस ज्ञान को सुनकर जीवन बदल जाएगा, ये सिर्फ एक दावा नहीं, बल्कि एक संभावना है. क्योंकि जिस पल आप इस सच को सिर्फ दिमाग से नहीं, बल्कि अपने पूरे अस्तित्व से महसूस कर लेते हैं, उसी पल आपका डर, आपका दुख, आपकी सीमाएं खत्म हो जाती हैं.
अब कुछ पल के लिए अपनी आँखें बंद करें, और बस इस एक विचार पर ध्यान दें - 'अहं ब्रह्मास्मि' - मैं ब्रह्म हूँ. अपने दिल की गहराइयों में उतरें... वहीं शांति है, वहीं सत्य है.
ॐ शांति: शांति: शांति:
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