Uttara Gita Introduction to Divine Wisdom, Spiritual Growth, Uttara Geeta unveils the Sacred Teachings of Lord Krishna imparted to Arjuna after the Kurukshetra War, emphasizing the Path of Self-Realization, Detachment, and Devotion (Bhakti). This profound text explores Kundalini Awakening, Yoga, and the Ultimate Truth of the Self, guiding seekers toward Inner Peace and Spiritual Liberation (Moksha). Uttara Gita serves as a Beacon of Enlightenment and Growth, empowering aspirants to transcend worldly illusions and attain Divine Consciousness. 🕉️✨
उत्तरगीता एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे भगवद्गीता के उपरांत अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच हुए संवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह ग्रंथ मुख्य रूप से वैराग्य, आत्मज्ञान और मोक्ष के गूढ़ रहस्यों को स्पष्ट करता है।
जब महाभारत युद्ध समाप्त हो गया और अर्जुन ने अपने जीवन के उद्देश्य को लेकर फिर से संशय प्रकट किया, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें उत्तरगीता के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार और ज्ञानयोग का मार्ग बताया। यह संवाद अर्जुन के पुनः उत्पन्न हुए संशयों का समाधान करता है और उन्हें स्थायी वैराग्य तथा ब्रह्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
(जो अखंड, सत्-चित्-आनंद स्वरूप है, जो वाणी और मन से परे है, जो समस्त सृष्टि का आधारभूत तत्व है, ऐसे परमात्मा की मैं आराधना करता हूँ जिससे इच्छित सिद्धि प्राप्त हो।)
अर्जुन ने कहा:
जो एकमात्र, निरवयव, ब्रह्म है, आकाश से भी परे, निर्मल, अचिंत्य, अविज्ञेय और उत्पत्ति-विनाश से रहित है।
जो केवल कैवल्य स्वरूप, परम शांति युक्त, शुद्ध, अति निर्मल, कारण रहित, योग से मुक्त और साधन रहित है।
जो हृदय-कमल के मध्य स्थित है, जो ज्ञान और ज्ञेय स्वरूप है, उस ज्ञान से क्षणमात्र में ही मुक्ति मिल जाती है—ऐसे ब्रह्म का ज्ञान मुझे दीजिए, हे केशव! Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
श्रीभगवान ने कहा:
हे महाबाहु पाण्डव! तुमने अति उत्तम प्रश्न किया है, तुम बुद्धिमान हो। जो तुम मुझसे तत्वज्ञान के विषय में पूछते हो, उसे मैं संपूर्ण रूप से बताऊँगा।
आत्मा, जो हंस रूप है, उसकी योग के माध्यम से परस्पर समन्वय की भावना को ब्रह्म कहा जाता है।
शरीर में स्थित अजन्मा आत्मा की चरम स्थिति हंसस्वरूप को प्राप्त करना है। हंस का जो अक्षर रूप है, वही अक्षर ब्रह्म कहलाता है। जो उस अक्षर ब्रह्म को जान लेता है, वह जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है।
जो 'क' वर्ण से आरंभ होकर 'क' तक सीमित है, जिसमें 'उ' की चेतना रूप क्रिया है, और जिसमें 'अ' वर्ण लुप्त हो चुका है—उसका क्या अर्थ हो सकता है? Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो मनुष्य निरंतर समय के प्रवाह में स्थित होकर, वायु को अपने नियंत्रण में कर लेता है, वह संपूर्ण समय का प्रयोग करके सहस्र वर्षों तक जीवित रह सकता है।
जब तक पक्षी जैसा आकार दृष्टिगोचर हो, तब तक उसी रूप का ध्यान करें। आकाश के मध्य में अपने आत्मा को स्थापित करें और आत्मा के मध्य में आकाश का ध्यान करें। आत्मा को आकाश रूप मानकर, किसी अन्य विषय का चिंतन न करें।
जिसकी बुद्धि स्थिर है, जो मोह से रहित है, जो ब्रह्म को जानता है और उसमें स्थित रहता है, वह बाह्य रूप से आकाश में स्थित होता है तथा उसकी दृष्टि सदैव नासिका के अग्रभाग पर रहती है। उस निष्कल ब्रह्म को ही जानना चाहिए, जहाँ श्वास विलीन हो जाता है।
जहाँ प्राणद्वय (श्वास-प्रश्वास) का विलय हो जाता है, वहाँ मन को स्थिर करके उस ईश्वर का ध्यान करना चाहिए, हे पार्थ!
जो निर्मल है, षडूर्मियों (छह प्रकार के विकार) से रहित है, शुभ है, प्रकाशहीन है, मन से परे है, बुद्धि से अतीत है, और जो समस्त रोगों से मुक्त है—उसे ही जानना चाहिए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो सर्वथा शून्य है, जिसे किसी प्रकार की झलक नहीं मिलती, वही समाधि का लक्षण है। जो त्रिविध शून्यता को जान लेता है, वही बंधनों से मुक्त हो जाता है।
जिसका शरीर स्वयं ही संचालित होता है, लेकिन जिसका आत्मा समाधि में स्थिर रहता है, वही सच्ची समाधि में स्थित माना जाता है।
जो अमात्र, शब्द रहित, स्वर-वर्ण-विहीन, बिंदु-नाद- कला से परे है—वही सच्चा ज्ञानी है।
जब ज्ञान और विज्ञान से ज्ञेय तत्व हृदय में स्थित हो जाता है, तब योग और धारणा की आवश्यकता नहीं रहती।
जो वेदों के प्रारंभ में स्वर के रूप में विद्यमान है, और वेदांत में प्रतिष्ठित है, वही परमेश्वर है, जो प्रकृति से परे स्थित रहता है।
जब तक कोई मनुष्य नदी के पार नहीं पहुँचता, तब तक उसे नौका की आवश्यकता होती है, लेकिन जब वह पार उतर जाता है, तब नाव का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
बुद्धिमान व्यक्ति को शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए, ज्ञान और विज्ञान में तत्पर रहना चाहिए, और फिर अनाज से भूसे की भाँति शास्त्रों को छोड़ देना चाहिए।
जिस प्रकार कोई व्यक्ति जलती हुई मशाल से किसी वस्तु को देखकर उसे त्याग देता है, वैसे ही ज्ञानी को ज्ञान से सत्य को जानकर ज्ञान का भी त्याग कर देना चाहिए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जिस प्रकार अमृत से तृप्त मनुष्य को जल की आवश्यकता नहीं रहती, उसी प्रकार उस परम तत्व को जान लेने के बाद वेदों का भी कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो ज्ञान-अमृत से तृप्त हो जाता है, जो कृतकृत्य हो चुका योगी है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। यदि उसे कुछ करना प्रतीत होता है, तो वह अब भी तत्वज्ञान से अपरिचित है।
जिस प्रकार अविरल बहती हुई तैलधारा और घंटी की ध्वनि अविच्छिन्न होती है, उसी प्रकार प्रणव (ॐ) का जो आदि स्वरूप है, उसे जो जानता है, वही सच्चा वेदज्ञ है।
आत्मा को अरणि (अग्नि उत्पन्न करने वाली लकड़ी) मानकर, प्रणव (ॐ) को उत्तरारणि मानकर, ध्यान और निरंतर मंथन के अभ्यास से उस छिपे हुए सत्य को देखना चाहिए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
हे पार्थ! उस परम दिव्य स्वरूप का स्मरण करना चाहिए, जिसकी बुद्धि एकाग्र हो, जो स्मोक रहित अग्नि के समान तेजस्वी हो, और जो अत्यंत निर्मल स्वरूप वाला हो।
यद्यपि वह (परमात्मा) दूर प्रतीत होता है, फिर भी वह दूर नहीं है। वह शरीर में स्थित होते हुए भी शरीर से परे है। वह सदा निर्मल, सबमें स्थित, सर्वव्यापी और निरंजन है।
वह शरीर में होते हुए भी शरीरधारी नहीं है। शरीर में स्थित होते हुए भी जन्म नहीं लेता। शरीर में होते हुए भी कुछ भोगता नहीं और न ही बंधन में पड़ता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
(वह शरीर में होते हुए भी किसी प्रकार के दोष से लिप्त नहीं होता और न ही उसे कोई बाधा पहुँचा सकता है।)
जिस प्रकार तिल में तेल, दूध में घी, पुष्प में सुगंध और फल में रस स्थित रहता है, उसी प्रकार सर्वव्यापी आत्मा शरीर में स्थित रहता है।
ज्ञानी पुरुषों के हृदय में स्थित ईश्वर मन के मध्य में स्थित है। वह लकड़ी में अग्नि की भाँति प्रकाशित होता है और आकाश में वायु की तरह विचरण करता है।
जो मन में स्थित है, जो मन के मध्य में है, जो मध्यस्थ होते हुए भी मन से परे है—योगी उसी का ध्यान मन द्वारा करते हैं और स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो आकाश को मन के रूप में देखता है और मन को आधारहीन बना देता है, वही निश्चलता को प्राप्त करता है। यही समाधि की अवस्था होती है।
जो योग-अमृत का पान करता है, वह वायु के आधार पर जीवित रहकर सदा सुखी रहता है। जो नित्य यम का अभ्यास करता है, वह समाधि द्वारा मृत्यु का नाश कर सकता है।
जो ऊपर, नीचे और मध्य में शून्यता के समान है, जो संपूर्ण रूप से शून्य स्वरूप है—वही आत्मा है और यही समाधि की अवस्था का लक्षण है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो शून्यता में स्थित होकर आत्मभाव में स्थित रहता है, वह पुण्य और पाप से मुक्त हो जाता है।
अर्जुन ने पूछा:
जिसे देखा नहीं जा सकता, उसकी भावना भी नहीं की जा सकती, और जो देखा जाता है, वह नष्ट हो जाता है। तो जो ब्रह्म अवर्णनीय और अस्वर रूप है, उसका योगी किस प्रकार ध्यान करते हैं?
श्रीभगवान ने उत्तर दिया:
जो ऊपर, नीचे और मध्य में पूर्णता से परिपूर्ण है, जो संपूर्ण रूप से आत्मस्वरूप है—वही आत्मा है और यही समाधि की अवस्था का लक्षण है।
अर्जुन ने पूछा: Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सगुण ध्यान अनित्य है, और निर्गुण ध्यान शून्यता को जन्म देता है। जब दोनों ही दोषयुक्त हैं, तो योगी किसका ध्यान करें?
श्रीभगवान ने उत्तर दिया:
हृदय को निर्मल बनाकर, किसी भी प्रकार के रोग से रहित स्थिति में, "मैं ही यह संपूर्ण सृष्टि हूँ"—ऐसा अनुभव करके योगी परम सुख का अनुभव करता है।
अर्जुन ने पूछा: Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अक्षर एक समान मात्राओं वाले होते हैं और सभी बिंदु पर आश्रित होते हैं। बिंदु से नाद उत्पन्न होता है, परंतु नाद को कौन विभाजित करता है?
श्रीभगवान ने उत्तर दिया:
जो अनाहत (स्वयं उत्पन्न) शब्द है, उसी शब्द का जो ध्वनि स्वरूप है, उस ध्वनि के भीतर स्थित प्रकाश ही आत्मा है। उस प्रकाश के भीतर जो मन स्थित है, वह मन विलीन हो जाता है और वही भगवान विष्णु का परम पद है।
ओंकार ध्वनि की नाद से वायु का संहार होता है। जब वह नाद भी लय को प्राप्त हो जाता है, तब निरालंब अवस्था प्राप्त होती है।
अर्जुन ने पूछा: Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जब शरीर पंचतत्वों में विलीन हो जाता है और पाँचों प्राण शरीर से निकल जाते हैं, तो धर्म और अधर्म कहाँ चले जाते हैं?
श्रीभगवान ने उत्तर दिया:
धर्म, अधर्म, मन, पंचभूत, पाँच इंद्रियाँ और अन्य पाँच देव शक्तियाँ—ये सभी मन के साथ संयुक्त रहते हैं और जब तक आत्मतत्व का साक्षात्कार नहीं होता, तब तक जीवात्मा के साथ रहते हैं।
अर्जुन ने पूछा: Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
चर और अचर सभी जीव एक जीव के कारण जीवित रहते हैं, तो वह जीव स्वयं किसके कारण जीवित रहता है?
श्रीभगवान ने उत्तर दिया:
मुख और नासिका के मध्य प्राण सदैव प्रवाहित होता है। आकाश ही प्राण को धारण करता है और वही जीव का आधार है।
अर्जुन ने पूछा:
ब्रह्मांड में आकाश व्यापक है, और आकाश ने संपूर्ण जगत को आच्छादित कर रखा है। यह आकाश बाहर और भीतर दोनों में है, तो देवता किस प्रकार निरंजन हैं?
श्रीभगवान ने उत्तर दिया: Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
आकाश का स्वभाव ही स्थान देना है, और जो आकाश से भी व्यापक है, वही ब्रह्म है। आकाश का गुण शब्द है, परंतु जो निःशब्द है, वही ब्रह्म कहा जाता है।
अर्जुन ने पूछा:
दाँत, ओष्ठ, तालु और जिह्वा—इनमें जहाँ अक्षरों का उच्चारण होता है, वहाँ अक्षरत्व कैसे संभव है? जबकि वे सदा क्षर (नाशवान) रहते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
श्रीभगवान ने उत्तर दिया:
जो निःशब्द है, जिसमें कोई वर्ण नहीं है, जो तालु, कंठ, ओष्ठ और नासिका से परे है, जो बिना किसी रेखा और उष्मा के है—वही अक्षर है, जो किसी भी स्थिति में क्षर नहीं होता।
अर्जुन ने पूछा:
यदि ब्रह्म सर्वव्यापक है और समस्त जीवों में स्थित है, तो योगी इंद्रियों को रोककर किस प्रकार सिद्धि प्राप्त करते हैं?
श्रीभगवान ने उत्तर दिया: Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इंद्रियों को रोककर मनुष्य शरीर में ही आत्मा को देखता है। किंतु जब शरीर नष्ट हो जाता है, तो बुद्धि कहाँ रहती है? और बुद्धि के नष्ट होने पर ज्ञान कैसे संभव है?
जब तक तत्व का साक्षात्कार नहीं होता, तब तक इंद्रियों का संयम करना चाहिए। परंतु जब परम तत्व का साक्षात्कार हो जाता है, तो केवल एकत्व ही दृष्टिगोचर होता है।
देह नव द्वारों (नौ छिद्रों) से निर्मित होती है और वह नष्ट होने वाली होती है। अतः इसे ब्रह्म नहीं कहा जा सकता और न ही इसे शुद्ध माना जा सकता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यह शरीर अत्यंत मलिन है, जबकि आत्मा अत्यंत निर्मल है। यदि इस अंतर को समझ लिया जाए, तो फिर शुद्धि-अशुद्धि का विचार किसके लिए किया जाए?
इस प्रकार उत्तरगीता का प्रथम अध्याय पूर्ण हुआ।
(जो योगमार्ग में आरूढ़ नहीं हुआ है तथा जो आरूढ़ होने का इच्छुक है, उनके स्वरूप का वर्णन किया गया है। यहाँ अर्जुन यह प्रश्न करता है कि जो योग में आरूढ़ हो चुका है, उसके लिए परमात्मा से अभिन्नता किस प्रकार संभव है।)
अर्जुन ने पूछा –
सर्वव्यापक ब्रह्म को जानने के बाद, जो सर्वज्ञ और परमेश्वर है, यह निर्दिष्ट करने के लिए कि "मैं ब्रह्म हूँ", प्रमाण क्या होगा?
श्रीभगवान ने कहा – Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जैसे जल में जल मिलाने से, दूध में दूध मिलाने से और घी में घी मिलाने से उनमें कोई भेद नहीं रहता, वैसे ही जीवात्मा और परमात्मा में भी कोई भेद नहीं रहता।
जीव का परब्रह्म के साथ तादात्म्य, जो सर्वव्यापक और प्रकाशरूप परमेश्वर है, इसे प्रमाणों द्वारा जानना चाहिए। इसे एकाग्रचित्त ज्ञानी पुरुष ही स्वयं अनुभव कर सकता है।
अर्जुन ने पूछा – Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
क्या केवल ज्ञान से ही ब्रह्म का साक्षात्कार हो सकता है? यदि इसे जानने के बाद तत्काल ही आत्मसाक्षात्कार हो जाता है, तो फिर योग और धारणा की क्या आवश्यकता है?
श्रीभगवान ने कहा –
जब ज्ञान के दीपक से शरीर प्रकाशित हो जाता है और बुद्धि ब्रह्म से युक्त हो जाती है, तब ज्ञानी पुरुष ब्रह्मज्ञान की अग्नि से कर्मबन्धनों को जला देता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
उसके बाद जो पवित्र और परमेश्वरस्वरूप अद्वैत रूप है, जो निर्मल और आकाश के समान दिव्य प्रकाशयुक्त है, उसमें जीवात्मा उपाधिरहित होकर उसी प्रकार विलीन हो जाता है, जैसे जल में जल समाहित हो जाता है।
आकाश के समान सूक्ष्म आत्मा दृश्य नहीं होता, जैसे वायु अदृश्य रहता है, वैसे ही अंतरात्मा भी अदृश्य रहता है। वह बाह्य और आभ्यंतर दोनों में स्थित है, परंतु निश्चल है। जब व्यक्ति अंतर्मुख होकर ध्यान करता है, तब उसे तत्व की एकता का साक्षात्कार होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो ज्ञानी कहीं भी किसी भी प्रकार से मरता है, वह व्योम (आकाश) के समान सर्वव्यापक होने के कारण, जहाँ-जहाँ मृत्यु होती है, वहीं-वहीं लीन हो जाता है।
(जैसे आकाश समस्त शरीरों में व्याप्त है और चौदहों लोक उसमें स्थित हैं, वैसे ही देही (आत्मा) निश्चल, निर्मल, सर्वव्यापक और निरंजन (अकलुष) होता है।) Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
शरीर में व्याप्त चेतना जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के रूप में भिन्नता को प्राप्त होती है, किंतु वास्तव में यह एक ही होती है और संपूर्ण शरीर में समान रूप से व्याप्त रहती है।
जो व्यक्ति मात्र एक क्षण के लिए भी अपने मन को नासिका के अग्रभाग पर स्थिर कर लेता है, वह सौ जन्मों के संचित पापों को नष्ट कर पार हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
दाहिने नथुने में स्थित पिंगला नाड़ी अग्निमंडल से संबंधित है, इसे देवयान कहा जाता है और यह पुण्य कर्मों के अनुसार गति देने वाली होती है।
बाईं ओर स्थित इड़ा नाड़ी, चंद्रमंडल से संबंधित है। इसे पितृयान कहा जाता है, जो बाईं ओर प्रवाहित होती है।
गुदा के पृष्ठ भाग में स्थित मेरुदंड की लंबी अस्थि, जो मस्तक तक जाती है, उसे ब्रह्मदंड कहा जाता है।
इसकी अंतिम स्थिति में एक अत्यंत सूक्ष्म छिद्र होता है, जिसे ज्ञानियों ने ब्रह्मनाड़ी कहा है।
इड़ा और पिंगला के मध्य में सुषुम्ना नामक सूक्ष्म नाड़ी स्थित होती है। इसमें संपूर्ण ब्रह्मांड प्रतिष्ठित है, क्योंकि यह सर्वव्यापक और सर्वमुखी है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसके मध्य में सूर्य, चंद्र, अग्नि और परमेश्वर स्थित होते हैं। इसी में समस्त भूतलोक, दिशाएँ, क्षेत्र, समुद्र, पर्वत और शिलाएँ स्थित हैं।
इसमें समस्त द्वीप, नदियाँ, वेद, शास्त्र, विद्याएँ, कला और अक्षर स्थित हैं। सभी स्वर, मंत्र, पुराण और गुण भी इसी में स्थित हैं।
जिसमें समस्त बीज समाहित होते हैं, वह क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) है। उसमें समस्त प्राणवायु स्थित है। संपूर्ण विश्व इसी सुषुम्ना में समाया हुआ है और उसी में प्रतिष्ठित है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यह समस्त नाड़ियाँ विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होती हैं, जो सभी भूतों के अंतरात्मा में स्थित रहती हैं। यह वायुमार्ग के अनुसार ऊर्ध्वमूल और अधःशाखा स्वरूप (जैसे उल्टा वृक्ष) है।
सत्तर हजार से अधिक नाड़ियाँ वायु मार्ग से प्रवाहित होती हैं। इनमें से कुछ कर्ममार्ग से चलती हैं, कुछ सूक्ष्म छिद्रों से पारगमन करती हैं और कुछ तिरछी होकर शरीर में प्रवाहित होती हैं।
जो नाड़ियाँ ऊपर और नीचे प्रवाहित होती हैं, वे नव द्वारों को शुद्ध करती हैं। जब जीव इन नाड़ियों के माध्यम से वायु को ऊर्ध्वगति में प्रवाहित करता है और ज्ञान को प्राप्त करता है, तब वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
पूर्व दिशा में, नासिका के अग्रभाग में इन्द्र का लोक अमरावती स्थित है। हृदय में अग्निलोक स्थित है और नेत्रों में तेजस्वी पुरी विद्यमान है।
दक्षिण दिशा में, कान के भीतर यमलोक स्थित है और संन्यासियों के लिए संयमनी पुरी स्थित है। नैऋत्य दिशा में नैऋत्य लोक स्थित है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
पश्चिम दिशा में, शरीर के पीछे वरुणलोक स्थित है और कान के निकट वायुलोक स्थित है, जिसे गन्धवती पुरी कहा जाता है।
उत्तर दिशा में, कंठ प्रदेश में सोमलोक स्थित है, जिसे पुष्पवती पुरी कहा जाता है। बाएं कान के भीतर सोमलोक शरीर के भीतर स्थित रहता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
बाईं आँख में ईशान को जाना जाता है और वहीं शिवलोक स्थित है, जिसे मनोन्मनी पुरी कहा जाता है। मस्तक के शिखर पर ब्रह्मपुरी स्थित होती है। संपूर्ण ब्रह्मांड इस शरीर में ही स्थित है।
पैरों के नीचे अनंत शिव स्थित हैं, जो कालाग्नि स्वरूप में संहार के अधिष्ठाता हैं। शरीर के नीचे और ऊपर शिवस्वरूप स्थित हैं, और मध्य में भी बाह्य रूप में शिव ही स्थित हैं।
पैरों के नीचे अतल लोक को जानना चाहिए, पैरों को वितल लोक कहा गया है। पैर और टखने का संधि स्थान नितल कहलाता है तथा जंघा सुतल के नाम से जानी जाती है।
महातल को घुटनों के रूप में जानना चाहिए और जंघा के ऊपर की ऊरु-देश को रसातल कहा गया है। कटि (कमर) तालातल के रूप में जानी जाती है। इन्हें सात पाताल लोकों के नाम से जाना जाता है।
कालाग्नि नरक अत्यंत भयंकर और महापाताल नाम से प्रसिद्ध है। नाभि के नीचे स्थित स्थान को पाताल कहा जाता है, जहाँ भोगीन्द्र (सर्पों के राजा) का मण्डल स्थित है। वह संपूर्ण रूप से अनंत सर्प से घिरा हुआ है और वही जीव के रूप में स्थित रहता है।
नाभि के स्थान को भूलोक कहा जाता है, भुवर्लोक कुक्षि (पेट) में स्थित होता है। हृदय को स्वर्गलोक कहा जाता है, जहाँ सूर्य, ग्रह और तारामंडल स्थित होते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि ये सात ग्रह हैं। इनके ऊपर ध्रुवलोक स्थित है। जो योगी अपने हृदय में इन लोकों का ध्यान करता है, वह संपूर्ण सुखों को प्राप्त कर लेता है।
हृदय में महर्लोक स्थित होता है, गले में जनलोक का निवास है। भ्रू-मध्य (भौहों के बीच) में तपोलोक स्थित होता है और मस्तक के शीर्ष भाग में सत्यलोक प्रतिष्ठित होता है।
ब्रह्मांडरूपिणी पृथ्वी जल में विलीन हो जाती है। जल अग्नि से पकाया जाता है, अग्नि वायु में समाहित हो जाता है, और वायु आकाश में विलीन हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वायु आकाश को पी लेता है, और मन भी आकाश में विलीन हो जाता है। बुद्धि, अहंकार और चित्त अंत में क्षेत्रज्ञ परमात्मा में विलीन हो जाते हैं।
जो व्यक्ति एकाग्र मन से मात्र एक बार भी "मैं ब्रह्म हूँ" का ध्यान करता है, वह करोड़ों कल्पों तक किए गए पापों को पार कर जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जिस प्रकार एक घड़े में भरा हुआ आकाश, घड़े के टूटने पर आकाश में ही विलीन हो जाता है, वैसे ही जीवात्मा भी आत्मस्वरूप में लीन हो जाता है।
जो व्यक्ति घटाकाश (घड़े में स्थित आकाश) को तत्त्व से जान लेता है, वह अवलंबनरहित हो जाता है और ज्ञान के प्रकाश से परम पद को प्राप्त करता है। इसमें संदेह नहीं है।
जो मनुष्य हजारों वर्षों तक एक पैर पर तप करता है, वह भी एकाग्र ध्यानयोग की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं पहुँच सकता।
जो व्यक्ति चारों वेदों और धर्मशास्त्रों का अध्ययन करता है, परंतु ब्रह्म को नहीं जानता, वह उसी प्रकार है जैसे एक लकड़ी का चम्मच खीर का रस ग्रहण नहीं कर सकता।
जिस प्रकार एक गधा चंदन का भार तो उठा सकता है, परंतु उसकी सुगंध और सार को नहीं जानता, उसी प्रकार जो व्यक्ति अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लेता है, परंतु उसके सार को नहीं समझता, वह गधे की भाँति मात्र भार ढोता है।
असंख्य कर्म, पवित्रता, जप, यज्ञ तथा तीर्थयात्राएँ – इन सबका कोई महत्व नहीं है, जब तक कि व्यक्ति तत्त्व को नहीं जानता।
जो व्यक्ति अपने शरीर के स्वयं संचालित होने पर भी "मैं ब्रह्म हूँ" में संशय करता है, वह भले ही चारों वेदों को धारण करने वाला ब्राह्मण हो, लेकिन वह ब्रह्म के सूक्ष्म स्वरूप को नहीं समझ सकता।
गायों के अनेक रंग होते हैं, परंतु उनका दूध एक ही रंग का होता है। उसी प्रकार ज्ञान भी देहधारी प्राणियों में समान रूप से व्याप्त होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
खाना, सोना, भय और मैथुन – ये मनुष्यों और पशुओं में समान रूप से पाए जाते हैं। मनुष्यों में विशेषता केवल ज्ञान के कारण होती है। ज्ञानहीन मनुष्य पशु के समान होता है।
सुबह मल-मूत्र त्यागने में, दोपहर में भूख-प्यास मिटाने में, शाम को इंद्रिय-तृप्ति में और रात को निद्रा में ही लोग व्यस्त रहते हैं।
असंख्य नादबिंदु और करोड़ों जीवात्माएँ अंत में उस स्थान पर जाकर भस्म हो जाते हैं, जहाँ परमात्मा स्वयं स्थित होता है।
"मैं ब्रह्म हूँ" इस भाव में स्थित रहना ही महापुरुषों के लिए मोक्ष का हेतु है।
दो शब्द ही बंधन और मोक्ष का कारण होते हैं – "मेरा" और "न मेरा"। "मेरा" कहने से जीव बंध जाता है और "न मेरा" कहने से वह मुक्त हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जब मन उन्मनी (पूर्णतः शांत) हो जाता है, तब द्वैत का अनुभव नहीं होता। जब मन उन्मनी अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तभी परम पद की प्राप्ति होती है।
जो व्यक्ति मुष्टियों (मुट्ठियों) से आकाश को पीटना चाहता है, जो भूख के कारण भूसी को कूटना चाहता है, और जो "मैं ब्रह्म हूँ" नहीं जानता, उसकी मुक्ति कभी नहीं हो सकती।
इस प्रकार उत्तरगीता का द्वितीय अध्याय पूर्ण हुआ।
(योगी को व्यर्थ की क्रियाओं और वाणी के परित्याग से शांत चित्त होकर, इस तीसरे अध्याय में केवल भगवान हरि की ही शरण में जाना बताया गया है।)
श्रीभगवान ने कहा –
शास्त्र अनंत हैं, जानने योग्य विषय अनेक हैं, लेकिन जीवनकाल अल्प है और विघ्न बहुत अधिक हैं। इसलिए जो सारभूत है, उसी का उपासना करनी चाहिए, जैसे हंस जल और दूध के मिश्रण में से केवल दूध को ग्रहण कर लेता है।
पुराण, महाभारत, वेद और अनेक शास्त्र—ये सब और पुत्र, पत्नी तथा अन्य सांसारिक बंधन योगाभ्यास में बाधा उत्पन्न करते हैं।
जो यह जानना चाहता है कि "यह ज्ञान क्या है और यह जानने योग्य क्या है?" वह भले ही हजारों वर्षों तक जिए, फिर भी वह शास्त्रों के अंत तक नहीं पहुँच सकता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसलिए केवल अक्षर ब्रह्म को ही जानना चाहिए, क्योंकि जीवन क्षणभंगुर है। अतः शास्त्र-जाल को छोड़कर केवल सत्य की उपासना करनी चाहिए।
इस पृथ्वी पर जितने भी जीव हैं, वे जीभ और इंद्रियों की तृप्ति के लिए जीवन व्यतीत करते हैं। यदि कोई इनका त्याग कर दे, तो फिर पृथ्वी पर रहने का क्या प्रयोजन रह जाता है?
जो तीर्थ केवल जल से पूर्ण हैं और जो देवता केवल पत्थर अथवा मिट्टी के बने हैं, ऐसे स्थानों की प्राप्ति के लिए योगी प्रयास नहीं करते, क्योंकि वे आत्म-ध्यान में लीन रहते हैं।
ब्राह्मणों के लिए अग्नि ही देवता है, मुनियों के हृदय में ईश्वर का निवास है, जबकि अल्पबुद्धि वाले मूर्तियों की पूजा करते हैं। जो ज्ञानी हैं, वे सर्वत्र समभाव से देखते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो व्यक्ति हर स्थान पर स्थित शांत भगवान जनार्दन को नहीं देख पाता, वह ज्ञानचक्षु से हीन होने के कारण उस अंधे के समान है, जो सूर्य के उदय होने पर भी उसे देख नहीं सकता।
जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ परम पद स्थित है। जहाँ भी दृष्टि जाती है, वहाँ-वहाँ परब्रह्म ही व्याप्त है, क्योंकि वह सर्वत्र स्थित है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
नेत्रों से जितने भी रूप देखे जाते हैं, वे सभी दृश्य केवल दृष्टि के कारण ही प्रकट होते हैं, लेकिन वास्तव में आकाश निर्मल और शुद्ध है। उसी प्रकार "मैं ही अक्षर ब्रह्म हूँ, परम विष्णु और अविनाशी तत्व हूँ"—ऐसा विचार करना चाहिए।
जो व्यक्ति इस सम्पूर्ण सृष्टि को अपने स्वरूप में एक रूप से देखता है, वही परम सुख को प्राप्त करता है। इसे खग (आकाश में उड़ने वाले पक्षी) के समान देखने का अभ्यास करना चाहिए।
जो तत्व सकल और निष्कल दोनों रूपों में स्थित है, जो अत्यंत सूक्ष्म है, वही मोक्ष का द्वार खोलता है। वह अपवर्ग (मोक्ष) और निर्वाण का कारण है और वही अविनाशी परम विष्णु है।
जो सर्वत्र प्रकाशमान आकाश के समान स्थित है, जो समस्त भूतों में निवास करता है, वही सर्वव्यापक परमात्मा है। वह ब्रह्म और आत्मा दोनों का मूल है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो मनुष्य सदैव यह जानता है कि "मैं ब्रह्म हूँ", वह अपने समस्त कामनाओं को स्वयं नष्ट कर देता है। वह किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करता और सभी प्रकार के विकारों से रहित हो जाता है।
जहाँ योगी एक क्षण के लिए भी स्थिर होकर ध्यान करता है, वही स्थान कुरुक्षेत्र, प्रयाग और नैमिषारण्य के समान पवित्र हो जाता है।
जो प्राणी केवल एक क्षण या आधे क्षण के लिए भी आत्म-चिंतन करते हैं, उनका एक ध्यान हज़ारों यज्ञों से भी श्रेष्ठ होता है।
ब्रह्मज्ञान से बढ़कर कुछ भी नहीं है। यह पुण्य और पाप दोनों को भस्म कर देता है। यह मित्र और शत्रु, सुख और दुःख, प्रिय और अप्रिय, शुभ और अशुभ, मान और अपमान, निंदा और प्रशंसा—इन सभी को समान बना देता है।
जिस प्रकार फटी हुई वस्त्रधारी व्यक्ति के लिए गर्मी और सर्दी को रोकने का उपाय होती है, उसी प्रकार अडिग रूप से भगवान केशव की भक्ति ही सब कुछ है। भौतिक ऐश्वर्य का क्या प्रयोजन?
भिक्षा में प्राप्त अन्न केवल शरीर रक्षा के लिए है, वस्त्र केवल सर्दी से बचाने के लिए है। पत्थर और सोना समान हैं, साग-भाजी और उत्तम भोजन भी समान हैं। यदि योगी को कुछ सोचना ही है, तो उसे इन सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिए।
जो व्यक्ति भौतिक वस्तुओं पर शोक नहीं करता, उसे पुनर्जन्म नहीं मिलता।
(जिसने इस आत्मयोग का उपदेश दिया, जो भक्ति योग का शिरोमणि है, उस परम आनंदस्वरूप, नंदनंदन ईश्वर की मैं वंदना करता हूँ।)
इस प्रकार उत्तरगीता का तृतीय अध्याय पूर्ण हुआ।
उत्तरगीता समाप्त