Brihadaranyaka Upanishad, Brihadaranyaka Upanishad in Hindi, Brihadaranyaka Upanishad Teachings, Brihadaranyaka Upanishad Explained, Brihadaranyaka, Upanishad, wisdom of upanishads, neti neti method, Upanishads, Shukla Yajurveda, Neti Neti, Upanishads in Hindi, Upanishads Explained, Upanishad Secrets, Upanishad Ganga, Upanishadic Teachings, Upanishadic Wisdom, Upanishad Teachings, Advaita Vedanta, Atma Gyan, Brahma Vidya, Self Realization, Vedanta Philosophy, Vedanta Sutras, Vedantic Teachings, Vedic Wisdom, Vedic Teachings, Vedas, Hindu Philosophy, Sanatan Dharma, Veda, Gyan
कभी रात के सन्नाटे में, टिमटिमाते तारों को देखते हुए आपने खुद से पूछा है, 'मैं कौन हूँ? आखिर इस जीवन का मतलब क्या है? क्या ये शरीर, ये नाम, ये पहचान ही मेरी पूरी सच्चाई है? या इसके पार भी कुछ है... कुछ ऐसा जो हमेशा रहता है, जो कभी खत्म नहीं होता? क्या जन्म और मृत्यु के इस खेल से परे भी कोई दुनिया है?'
हज़ारों साल पहले, जब आज की दुनिया सोची भी नहीं जा सकती थी, भारत के घने जंगलों में कुछ ऋषियों ने इन्हीं सवालों के जवाब ढूँढने के लिए अपनी आत्मा की गहराइयों में गोता लगाया। उन्हें जो मिला, वो सिर्फ़ कोई फ़लसफ़ा या थ्योरी नहीं थी, वो एक सीधा अनुभव था, एक साक्षात्कार था। उस गहरे अनुभव को, उस गूढ़ ज्ञान को उन्होंने शब्दों में पिरोया और वो ज्ञान आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। आज, हम उसी ज्ञान के महासागर में उतरने वाले हैं। हम उस रहस्यमयी सफ़र पर निकलेंगे जो जीवन, आत्मा और उस परम सत्य के राज़ खोलता है जिसे 'ब्रह्म' कहा जाता है। ये कोई आम किताब नहीं, ये है बृहदारण्यक उपनिषद्।
सनातन धर्म का वो प्रकाश-स्तंभ जिसने सदियों से सत्य के खोजियों को आत्मा की सच्चाई से मिलाया है। ये वही उपनिषद् है जिसमें महर्षि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्म के उस रहस्य को खोला था, जिसे शब्दों में बाँधना लगभग नामुमकिन है। तो आइए, अपनी चेतना के दरवाज़े खोलकर, उस दिव्य बातचीत की ओर चलें जो हमें हमारे असली 'स्व' से मिलाने का वादा करती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
परिचय: ज्ञान के महासागर का बुलावा
बृहदारण्यक उपनिषद्! इसके नाम में ही इसकी विशालता और गहराई छिपी है। 'बृहत्' यानी विशाल, और 'आरण्यक' यानी वो ज्ञान जिस पर जंगल के एकांत में चिंतन किया गया हो। ये सबसे पुराने और सबसे बड़े उपनिषदों में से एक है और सीधे शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण का हिस्सा है, जो इसे वैदिक परंपरा की मुख्य धारा से जोड़ता है।
पर इसकी विशालता सिर्फ़ पन्नों में नहीं, बल्कि इसके विषयों में है। ये ब्रह्मांड के जन्म से लेकर चेतना की प्रकृति, आत्मा का स्वरूप, कर्म का सिद्धांत, मौत का रहस्य और आखिर में मोक्ष के रास्ते तक, हर चीज़ की गहराई से पड़ताल करता है। आदिगुरु शंकराचार्य की इस पर लिखी गई कमेंट्री, अद्वैत वेदांत की नींव का पत्थर बनी। ये उपनिषद् सिर्फ़ नियमों का संग्रह नहीं, बल्कि जीवंत संवादों की एक पूरी श्रृंखला है। यहाँ हमारी मुलाक़ात राजा जनक जैसे ज्ञानी राजा, मैत्रेयी जैसी सत्य की प्यासी साधिका, और गार्गी जैसी तेज-तर्रार तर्क करने वाली विदुषी से होती है, जो महर्षि याज्ञवल्क्य जैसे ब्रह्मज्ञानी से सीधे सवाल करती हैं।
यह उपनिषद् हमें एक ऐसे सफ़र पर ले जाता है जो बाहर की दुनिया से शुरू होकर हमारे भीतर के ब्रह्मांड में खत्म होता है। ये हमें सिखाता है कि जीवन के सबसे बड़े सवालों के जवाब किसी बाहरी किताब या गुरु में नहीं, बल्कि हमारी अपनी चेतना की गहराइयों में ही छिपे हैं। तो चलिए, इस यात्रा के पहले पड़ाव पर क़दम रखते हैं और देखते हैं कि हमारे ऋषियों ने इस दुनिया को किस नज़र से देखा।
सृष्टि का विराट यज्ञ - अश्वमेध का असली मतलब
बृहदारण्यक उपनिषद् की शुरुआत ही बेहद अनोखी और काव्यात्मक है। ये हमारे सामने सृष्टि की एक ऐसी तस्वीर रखती है जो हमारे सोचने के तरीक़े को हिलाकर रख देती है। ऋषि इस पूरे ब्रह्मांड को एक विशाल अश्वमेध यज्ञ के घोड़े के रूप में देखते हैं।
ज़रा कल्पना कीजिए, एक विराट, ब्रह्मांडीय घोड़े की। उपनिषद् कहता है, सुबह की पहली किरण उस घोड़े का सिर है। सूरज उसकी आँखें हैं, जो सारी दुनिया को देखती हैं। हवा उसकी साँस है, जो उसे ज़िंदगी देती है। उसका खुला हुआ मुँह वैश्वानर अग्नि है, और समय का चक्र उसका शरीर है। आसमान उसकी पीठ है, अंतरिक्ष उसका पेट है, और धरती उसके खुरों के नीचे की ज़मीन है। दिशाएँ उसकी पसलियाँ हैं और तारे उसकी हड्डियाँ हैं। बादल उसका माँस हैं और नदियों की रेत उसका अधखाया भोजन है। नदियाँ उसकी नसें हैं, और पहाड़ उसके लिवर और फेफड़े हैं। पेड़-पौधे उसके रोएँ हैं। उगता हुआ सूरज उसका अगला हिस्सा है और डूबता हुआ सूरज पिछला। जब वो जम्हाई लेता है, तो बिजली चमकती है; जब वो अपना शरीर हिलाता है, तो बादल गरजते हैं; और जब वो मूत्र करता है, तो बारिश होती है।
ये सिर्फ़ एक खूबसूरत कल्पना नहीं है, बल्कि एक बहुत गहरा दार्शनिक इशारा है। ऋषि हमें सिखा रहे हैं कि इस ब्रह्मांड में कुछ भी अलग-थलग नहीं है। सब कुछ एक-दूसरे से जुड़ा है, एक ही विराट चेतना की अभिव्यक्ति है। जैसे घोड़े के सारे अंग मिलकर एक घोड़ा बनाते हैं, वैसे ही ये पूरा ब्रह्मांड, अपने सूरज, चाँद, तारों, धरती और जीवों के साथ, उस एक विराट ब्रह्म का ही शरीर है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
अश्वमेध यज्ञ पुराने भारत में राजसी सत्ता का प्रतीक था। यहाँ, ऋषि उस यज्ञ को एक आध्यात्मिक रूपक में बदल देते हैं। वो कहते हैं कि असली अश्वमेध यज्ञ किसी बाहरी घोड़े की बलि देना नहीं, बल्कि इस पूरे ब्रह्मांड को ही यज्ञ का घोड़ा मानकर, अपने अहंकार को, अपनी 'मैं' की भावना को उस विराट चेतना में मिला देना है। जब कोई साधक इस नज़रिए को पा लेता है, तो उसे हर कण में, हर घटना में, सुबह के उगने से लेकर बारिश के होने तक, सिर्फ़ उस एक परम सत्य के ही दर्शन होते हैं। ये वो पूजा है जहाँ पूजने वाला, पूजा और जिसका पूजा हो रही है, तीनों एक हो जाते हैं। ये दुनिया को देखने और महसूस करने का एक क्रांतिकारी नज़रिया है, जो हमें अलगाव से एकता की ओर ले जाता है।
अस्तित्व का पहला सवाल - "मैं कौन हूँ?"
जब हम ब्रह्मांड की इस विराट एकता को देखते हैं, तो ये सवाल उठना लाज़िमी है कि इस बड़ी सी तस्वीर में मैं कहाँ हूँ? मैं कौन हूँ? उपनिषद् हमें सृष्टि की कहानी के ज़रिए इस सवाल की जड़ तक ले जाता है।
ये कहता है कि शुरुआत में, सृष्टि से भी पहले, सिर्फ़ एक ही सत्ता थी—आत्मा, जो एक पुरुष के रूप में थी। उसने चारों ओर देखा, तो उसे अपने सिवा कुछ नहीं दिखा। वो अकेला था। अकेलेपन में डर लगता है, पर उसने सोचा, "जब मेरे अलावा कोई है ही नहीं, तो डर किससे?" ये सोचते ही उसका डर खत्म हो गया।
लेकिन, उसे खुशी महसूस नहीं हुई। अकेला इंसान खुश नहीं रह सकता। उसे एक 'दूसरे' की चाहत हुई। उसकी ये इच्छा इतनी मज़बूत थी कि उसने खुद को दो हिस्सों में बाँट लिया—पति और पत्नी। इस तरह दुनिया में 'दो' होने का भाव पैदा हुआ। और यहीं से सृष्टि का चक्र शुरू हुआ।
ये कहानी सिर्फ़ दुनिया बनने की कहानी नहीं है, ये इंसानी मनोविज्ञान और आध्यात्म का एक गहरा राज़ खोलती है। ये हमें बताती है कि हमारे अंदर अधूरेपन का जो एहसास है, एक 'दूसरे' की जो तलाश है, चाहे वो पार्टनर हो, दोस्त हो, या कोई सांसारिक चीज़, वो उसी आदिम अकेलेपन से पैदा होती है। हम बाहर कुछ इसलिए खोजते हैं क्योंकि हम अपने अंदर की पूर्णता को भूल गए हैं।
उपनिषद् आगे कहता है कि वो एक आत्मा ही सब कुछ बन गया। जो कुछ भी जोड़ों में है, वो उसी से पैदा हुआ है। उसने गायें बनाईं, घोड़े बनाए, गधे बनाए, बकरियाँ बनाईं, और इस तरह सभी जीव-जंतुओं को बनाया। उसे एहसास हुआ कि "मैं ही सृष्टि हूँ, क्योंकि मैंने ही ये सब बनाया है।"
ये कहानी हमें उस महावाक्य की ओर ले जाती है जो इस उपनिषद् का दिल है: "अहं ब्रह्मास्मि" - मैं ब्रह्म हूँ। जो विराट चेतना इस पूरे ब्रह्मांड के रूप में दिख रही है, मैं उससे अलग नहीं हूँ, मैं वही हूँ। जैसे एक लहर समंदर से अलग नहीं होती, जैसे एक चिंगारी आग से अलग नहीं होती, ठीक वैसे ही ये जीवात्मा उस परमात्मा से अलग नहीं है। हमारी मुश्किल बस ये है कि हम खुद को इस छोटे से शरीर और मन तक सीमित मान लेते हैं। हम अपनी पहचान अपने नाम, परिवार, पद और दौलत से जोड़कर अपने उस अनंत, विराट रूप को भूल जाते हैं। उपनिषद् हमें इसी भूली हुई पहचान को फिर से याद करने के लिए बुलाता है। वो हमें बताता है कि जीवन का असली मक़सद इस सच्चाई को जानना है कि "मैं ये सीमित जीव नहीं, बल्कि वो अनंत ब्रह्म हूँ।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
अमरता का संवाद - याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी
ज्ञान के इस महल में अब हम एक ऐसे कमरे में दाखिल होते हैं जहाँ प्रेम, त्याग और अमरता का सबसे दिल छू लेने वाला संवाद होता है। ये संवाद है महान ऋषि याज्ञवल्क्य और उनकी पत्नी मैत्रेयी के बीच। ये कहानी हमें दिखाती है कि सच्चा ज्ञान सिर्फ़ सूखे तर्क-वितर्क में नहीं, बल्कि जीवन के गहरे प्रेम और रिश्तों के बीच भी खिल सकता है।
कहानी कुछ यूँ है: महर्षि याज्ञवल्क्य अपने गृहस्थ जीवन की सभी ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर चुके थे और अब वानप्रस्थ में जाना चाहते थे। उन्होंने संन्यास लेने का फैसला किया। उनकी दो पत्नियाँ थीं—मैत्रेयी और कात्यायनी। कात्यायनी की रुचि दुनियादारी में ज़्यादा थी, जबकि मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थीं, यानी हमेशा ब्रह्म को जानने के लिए उत्सुक रहती थीं।
याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा, "मैत्रेयी, मैं अब ये घर-बार छोड़कर जा रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अपनी सारी संपत्ति तुम दोनों में बराबर बाँट दूँ।"
ये एक ऐसा पल था जहाँ कोई भी आम औरत इतनी दौलत पाकर खुश हो जाती। लेकिन मैत्रेयी आम नहीं थीं। उनकी नज़र दौलत से कहीं आगे थी। उन्होंने अपने पति से एक ऐसा सवाल पूछा जिसने इस बातचीत को हमेशा के लिए अमर बना दिया। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
मैत्रेयी ने पूछा, "हे भगवन्! अगर ये पूरी धरती सोने-चाँदी से भर जाए और मैं अकेली इसकी मालकिन बन जाऊँ, तो क्या इससे मैं अमर हो सकती हूँ?"
ये सवाल दुनिया की सबसे बड़ी दौलत को रूहानियत की सबसे बड़ी ख्वाहिश के सामने खड़ा कर देता है। मैत्रेयी पूछ रही थीं कि क्या दुनिया की सारी दौलत मौत को हरा सकती है?
याज्ञवल्क्य ने जवाब दिया, "नहीं, प्रिये! बिल्कुल नहीं। तुम्हारी ज़िंदगी वैसी ही हो जाएगी जैसी अमीर लोगों की होती है, ऐशो-आराम से भरी हुई। लेकिन दौलत से अमरता की कोई उम्मीद मत रखना।"
ये जवाब सुनकर मैत्रेयी के अंदर वैराग्य और ज्ञान की प्यास और भी बढ़ गई। उन्होंने फौरन फैसला कर लिया। उन्होंने कहा, "येनाहं नामृता स्याम्, किमहं तेन कुर्याम्?" - "जिस चीज़ से मैं अमर ही न हो सकूँ, उसे लेकर मैं क्या करूँगी?" "हे भगवान! आप जो भी अमरता का रास्ता जानते हैं, कृपा करके मुझे बस वही बताइए।"
अपनी पत्नी के मुँह से ऐसे गहरे वैराग्य और ज्ञान की ज़बरदस्त इच्छा से भरे शब्द सुनकर याज्ञवल्क्य का दिल खुशी से भर गया। उन्होंने कहा, "प्रिये, तुम मुझे पहले भी प्यारी थीं और आज ये सवाल पूछकर तुमने मेरे प्यार को और भी बढ़ा दिया है। आओ, बैठो। मैं तुम्हें वो परम रहस्य बताता हूँ। तुम बस ध्यान लगाकर उस पर सोचना।"
इसके बाद याज्ञवल्क्य ने जो सिखाया, वो अद्वैत वेदांत का निचोड़ है। उन्होंने कहा, "अरी मैत्रेयी! पति, पति के लिए प्यारा नहीं होता, बल्कि अपनी आत्मा के लिए ही पति प्यारा होता है। पत्नी, पत्नी के लिए प्यारी नहीं होती, बल्कि अपनी आत्मा के लिए ही पत्नी प्यारी होती है। बच्चे, बच्चों के लिए प्यारे नहीं होते, बल्कि अपनी आत्मा के लिए ही बच्चे प्यारे होते हैं। दौलत, दौलत के लिए प्यारी नहीं होती, बल्कि अपनी आत्मा के लिए ही दौलत प्यारी होती है।"
याज्ञवल्क्य एक-एक करके दुनिया के सभी रिश्तों और प्यारी चीज़ों का नाम लेते हैं और कहते हैं कि इन सब में जो हमारा प्यार है, वो असल में उन चीज़ों के लिए नहीं, बल्कि उस आत्मा के लिए है जो उन सबके ज़रिए खुद को ज़ाहिर कर रही है। हम किसी इंसान या चीज़ से इसलिए प्यार करते हैं क्योंकि उनमें हमें अपने ही आत्म-स्वरूप की एक झलक मिलती है, एक खुशी मिलती है। वो खुशी उस चीज़ में नहीं, बल्कि हमारी अपनी आत्मा में है।
ये एक क्रांतिकारी विचार है। ये हमें सिखाता है कि हमारे सारे प्यार, सारे रिश्ते, सारी खोज आखिर में आत्म-प्रेम और आत्म-खोज ही है। जब तक हम ये नहीं जानते, हम चीज़ों और लोगों में खुशी ढूँढते फिरते हैं और निराश होते हैं। लेकिन जब हम ये जान जाते हैं कि प्यार और खुशी का सोता हमारे अंदर ही है, तो हमारी खोज की दिशा ही बदल जाती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
याज्ञवल्क्य कहते हैं, "इसलिए मैत्रेयी! इसी आत्मा को देखना चाहिए, इसी को सुनना चाहिए, इसी पर सोचना चाहिए और इसी का गहरा ध्यान करना चाहिए। क्योंकि हे मैत्रेयी, इस आत्मा को देखने, सुनने, सोचने और जानने से ये सब कुछ पता चल जाता है।" जैसे एक नगाड़े के बजने पर हम उसकी अलग-अलग आवाज़ों को नहीं पकड़ सकते, लेकिन नगाड़े को ही पकड़ लें तो उसकी हर आवाज़ हमारे काबू में आ जाती है, ठीक वैसे ही इस आत्मा को जान लेने से पूरे ब्रह्मांड का राज़ पता चल जाता है।
ये संवाद हमें सिखाता है कि अमरता किसी बाहरी चीज़ या कामयाबी से नहीं, बल्कि आत्म-ज्ञान से मिलती है। जब इंसान अपनी सच्ची पहचान, अपने आत्म-स्वरूप को जान लेता है, तो वो जन्म-मृत्यु के डर से आज़ाद हो जाता है, क्योंकि आत्मा न जन्म लेती है और न ही मरती है। वो हमेशा से है, और हमेशा रहेगी।
परम सत्य का रास्ता - 'नेति, नेति' का सिद्धांत
जब महर्षि याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को बताया कि आत्मा को जानने से ही सब कुछ जाना जा सकता है, तो एक सवाल उठता है: आख़िर ये आत्मा या ब्रह्म है कैसा? उसे कैसे पहचानें? उसे किन शब्दों में बताएँ?
यहाँ उपनिषद् हमें ज्ञान के एक ऐसे शिखर पर ले जाता है जहाँ शब्द ख़त्म हो जाते हैं और बुद्धि की सीमाएँ जवाब दे जाती हैं। परम सत्य को बताने के लिए ऋषि एक अनोखा तरीका अपनाते हैं, जिसे 'नेति, नेति' कहा जाता है। 'नेति' का मतलब है - 'न इति', यानी 'ये नहीं'। तो 'नेति, नेति' का मतलब हुआ - 'ये नहीं, ये भी नहीं'।
ये परम सत्य को बताने का एक नकारात्मक रास्ता है। ऋषि कहते हैं कि ब्रह्म को किसी भी परिभाषा में बाँधा नहीं जा सकता, क्योंकि वो हर परिभाषा से परे है। आप जो कुछ भी सोच सकते हैं, जो कुछ भी देख सकते हैं, जो कुछ भी महसूस कर सकते हैं, ब्रह्म वो नहीं है।
याज्ञवल्क्य कहते हैं, वो आत्मा न मोटी है, न पतली; न छोटी है, न बड़ी; न लाल है, न गीली; न छाया है, न अँधेरा है; न हवा है, न आकाश है। वो किसी से जुड़ी नहीं है, उसे कोई छू नहीं सकता। उसका कोई स्वाद नहीं, कोई गंध नहीं, कोई आँखें नहीं, कोई कान नहीं, कोई ज़बान नहीं, कोई मन नहीं। उसमें कोई चमक नहीं, कोई साँस नहीं, उसका कोई मुँह नहीं, उसका कोई नाप नहीं, उसके अंदर कुछ नहीं, उसके बाहर कुछ नहीं। वो न कुछ खाता है और न उसे कोई खा सकता है।
ये बातें हमें कहाँ ले जाती हैं? ये हमारे मन की बनाई हर तस्वीर, हर कल्पना को तोड़ देती हैं। हमारा मन हमेशा किसी चीज़ को उसके गुणों से समझता है - ये लाल है, ये ठंडा है, ये बड़ा है। लेकिन ब्रह्म में कोई गुण ही नहीं है। इसलिए जब हम उसे खोजने निकलते हैं, तो हमें उन सभी चीज़ों को नकारना पड़ता है जो वो 'नहीं' है।
इसे एक मूर्तिकार के काम की तरह समझिए। एक मूर्तिकार पत्थर की एक बड़ी चट्टान लेता है और उसमें से वो सब कुछ छेनी-हथौड़ी से हटा देता है जो मूर्ति 'नहीं' है। हर चोट पत्थर के फालतू हिस्से को हटाती जाती है, और आखिर में, जब वो सब हट जाता है जो मूर्ति नहीं था, तो मूर्ति अपने-आप सामने आ जाती है। उसे बनाया नहीं जाता, उसे सिर्फ़ उजागर किया जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
ठीक इसी तरह, 'नेति, नेति' की साधना एक आध्यात्मिक छेनी-हथौड़ी है। साधक अपने अंदर की हर पहचान को नकारता है। "क्या मैं ये शरीर हूँ?" "नेति" - नहीं, क्योंकि मैं शरीर को जानता हूँ, मैं शरीर नहीं हो सकता। "क्या मैं ये मन हूँ, ये विचार हूँ?" "नेति" - नहीं, क्योंकि मैं अपने विचारों को देख सकता हूँ, मैं विचार नहीं हो सकता। "क्या मैं ये भावनाएँ हूँ?" "नेति" - नहीं, क्योंकि मैं भावनाओं को आते-जाते देखता हूँ।
इस तरह एक-एक करके जब सभी झूठी पहचानों को हटा दिया जाता है, तो पीछे जो बचता है, वही आत्मा है। उसे परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वो जानने वाला है, ज्ञान का विषय नहीं। वो देखने वाला है, देखी जाने वाली चीज़ नहीं। उसे सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है, बताया नहीं जा सकता।
ये सिद्धांत हमें सिखाता है कि परम सत्य कोई दिमागी कॉन्सेप्ट नहीं है जिसे किताबों में पढ़कर समझा जा सके। ये एक जीवंत अनुभव है, जो मन के पार जाने पर ही मिलता है। 'नेति, नेति' का रास्ता हमें अहंकार और झूठी पहचान की परतों को छीलकर अपने शुद्ध, साक्षी, चैतन्य स्वरूप में टिकने का रास्ता दिखाता है।
ज्ञान की महासभा - राजा जनक के दरबार में याज्ञवल्क्य
अब हम बृहदारण्यक उपनिषद् के सबसे नाटकीय और रोमांचक हिस्से में चलते हैं। ये कहानी हमें मिथिला के दार्शनिक राजा जनक के भव्य दरबार में ले जाती है। राजा जनक सिर्फ़ एक राजा नहीं, बल्कि खुद एक महान आत्मज्ञानी थे, और उनका दरबार उस समय के सबसे बड़े विद्वानों का केंद्र था।
एक बार राजा जनक ने एक विशाल यज्ञ करवाया, जिसमें दूर-दूर से ब्रह्मज्ञानी पंडितों को बुलाया गया। जनक के मन में ये जानने की इच्छा हुई कि इन सबमें सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी कौन है। इस इम्तिहान के लिए, उन्होंने 1000 गायों को खड़ा करवाया और हर गाय के सींगों पर लगभग दस तोला सोना मढ़वा दिया।
सभा को संबोधित करते हुए जनक ने ऐलान किया, "हे पूज्य ब्राह्मणों! आप में से जो कोई भी सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी हो, वो इन गायों को ले जा सकता है।"
ये एक ज़बरदस्त चुनौती थी। सभा में बड़े-बड़े विद्वान थे, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो खुद को सर्वश्रेष्ठ बताकर उन गायों पर अपना हक़ जताए। सभा में सन्नाटा छा गया। तभी, महर्षि याज्ञवल्क्य ने अपने एक शिष्य से कहा, "बेटा! इन गायों को हमारे आश्रम की ओर ले चलो।"
याज्ञवल्क्य के इस आत्मविश्वास से भरे काम से पूरी सभा में हलचल मच गई। दूसरे ब्राह्मण गुस्से से भर गए। राजा के मुख्य पुरोहित अश्वल ने याज्ञवल्क्य को चुनौती दी, "याज्ञवल्क्य! क्या तुम हम सब में सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी हो?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
याज्ञवल्क्य ने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया, "मैं ब्रह्मज्ञानी को प्रणाम करता हूँ। मेरी इच्छा तो बस इन गायों को पाने की है।" लेकिन अब चुनौती दी जा चुकी थी। एक के बाद एक, उस सभा के आठ महान विद्वानों ने याज्ञवल्क्य से सवाल पूछना शुरू कर दिया। ये बहस ज्ञान का एक महायज्ञ बन गई।
गार्गी वाचक्नवी का शास्त्रार्थ: इन सभी विद्वानों में सबसे तेज और साहसी थीं विदुषी गार्गी। उन्होंने दो बार याज्ञवल्क्य को चुनौती दी। पहली बार, उन्होंने सवालों की झड़ी लगा दी।
गार्गी ने पूछा, "याज्ञवल्क्य! ये जो कुछ भी धरती पर है, वो पानी में समाया हुआ है। तो ये पानी किसमें समाया है?"
याज्ञवल्क्य ने जवाब दिया, "हवा में।"
गार्गी ने पूछा, "हवा किसमें समाई है?"
याज्ञवल्क्य ने कहा, "अंतरिक्ष लोक में।"
इस तरह गार्गी सवाल करती गईं और याज्ञवल्क्य जवाब देते गए—अंतरिक्ष लोक से गंधर्व लोक, गंधर्व लोक से आदित्य लोक, और ऐसे ही आगे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मलोक तक।
जब गार्गी ने पूछा, "ये ब्रह्मलोक किसमें समाया है?" तो याज्ञवल्क्य ने उन्हें चेताया, "गार्गी, इससे आगे मत पूछो, वरना तुम्हारा सिर गिर पड़ेगा। तुमने उस देवता के बारे में सवाल किया है जिसके बारे में ज़्यादा सवाल नहीं करने चाहिए।" याज्ञवल्क्य का इशारा था कि बुद्धि की एक सीमा होती है। गार्गी समझकर चुप हो गईं।
लेकिन कुछ देर बाद, गार्गी फिर खड़ी हुईं और कहा, "मैं इनसे दो सवाल और पूछूँगी। अगर इन्होंने जवाब दे दिया, तो आप में से कोई भी इन्हें ब्रह्म-विद्या में हरा नहीं पाएगा।" उन्होंने कहा, "याज्ञवल्क्य! जैसे कोई योद्धा दो अचूक बाण लेकर दुश्मन पर निशाना साधता है, वैसे ही मैं तुम्हारे लिए दो सवाल लेकर आई हूँ।"
गार्गी का पहला सवाल था: "याज्ञवल्क्य! जो स्वर्ग से ऊपर है, जो धरती से नीचे है, और जो इन दोनों के बीच में है, और जो भूत, वर्तमान और भविष्य कहलाता है—ये सब किसमें समाया हुआ है?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
याज्ञवल्क्य ने जवाब दिया, "गार्गी, ये सब कुछ आकाश में ही समाया हुआ है।"
अब गार्गी ने अपना आखिरी और सबसे तीखा तीर चलाया। उन्होंने पूछा, "और ये आकाश किसमें समाया हुआ है?"
अब याज्ञवल्क्य ने उस परम सत्य का खुलासा किया। उन्होंने कहा, "हे गार्गी! ब्रह्म को जानने वाले उसे 'अक्षर' कहते हैं। वो न मोटा है, न पतला... (यहाँ याज्ञवल्क्य 'नेति नेति' का सिद्धांत दोहराते हैं)... गार्गी! इसी अक्षर ब्रह्म के शासन में सूरज और चाँद अपनी जगह पर टिके हैं। इसी के अनुशासन में स्वर्ग और धरती अपनी सीमा में रहते हैं। इसी की आज्ञा से पल, पहर, दिन-रात, महीने और साल चलते हैं।"
ये जवाब सुनकर गार्गी पूरी तरह संतुष्ट हो गईं। उन्होंने सभा की ओर मुड़कर कहा, "हे पूज्य ब्राह्मणों! आप इन्हें नमस्कार करके अपनी हार मान लीजिए। आप में से कोई भी इन्हें ब्रह्म-विद्या में नहीं हरा सकता।"
ये बहस सिर्फ़ एक दिमागी जीत नहीं थी। ये इस बात का सबूत था कि सच्चा ज्ञान सिर्फ़ किताबी नहीं होता, वो अनुभव से आता है। याज्ञवल्क्य ने हर सवाल का जवाब अपनी अनुभूति के आधार पर दिया, और इसीलिए वो अजेय थे।
अस्तित्व का कानून - कर्म और पुनर्जन्म
जब हम आत्मा के अमर होने और ब्रह्म के हमेशा रहने की बात समझते हैं, तो एक सवाल उठता है: अगर आत्मा अमर है, तो वो इस दुनिया में जन्म-मृत्यु के चक्कर में क्यों फँसी है? क्यों कोई सुखी है और कोई दुखी?
बृहदारण्यक उपनिषद् इसका जवाब कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत से देता है। राजा जनक की सभा में ही, जब एक ऋषि पूछते हैं कि मरने के बाद इंसान का क्या होता है? तब याज्ञवल्क्य उन्हें एकांत में ले जाकर कहते हैं कि वो 'कर्म' ही है जो इंसान के साथ रहता है। वो कहते हैं, "अच्छे कर्मों से इंसान पुण्यवान (सुखी) होता है, और बुरे कर्मों से पापी (दुखी)।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
ये कर्म के सिद्धांत का सबसे पुराना और साफ़ बयान है। उपनिषद् कहता है कि हमारी आज की ज़िंदगी हमारे पिछले कर्मों का नतीजा है, और हमारे आज के कर्म हमारा भविष्य तय कर रहे हैं। ये कोई बाहरी शक्ति नहीं है जो हमें सज़ा या इनाम दे रही है; ये कुदरत का एक सीधा नियम है, कारण और परिणाम का एक कॉस्मिक कानून।
उपनिषद् इसे और गहराई से समझाता है। ये कर्म की जड़ में हमारी 'कामना' यानी इच्छा को रखता है। ये कहता है: "इंसान इच्छाओं से बना है।" "जैसी उसकी इच्छा होती है, वैसा ही उसका इरादा होता है। जैसा उसका इरादा होता है, वैसा ही वो काम करता है। और जैसा वो काम करता है, वैसा ही फल वो पाता है।"
ये एक शक्तिशाली मनोवैज्ञानिक चेन है। सब कुछ इच्छा से शुरू होता है। इच्छा इरादे को जन्म देती है। इरादा हमें काम करने पर मजबूर करता है। और आखिर में, हमारे काम हमारी किस्मत बनाते हैं।
मौत के समय क्या होता है? उपनिषद् एक सुंदर मिसाल देता है। जैसे एक जोंक जब किसी तिनके के आखिर तक पहुँच जाती है, तो वो किसी दूसरे तिनके को पकड़कर ही पहले को छोड़ती है, ठीक वैसे ही ये आत्मा इस शरीर को छोड़ने से पहले अपने अगले ठिकाने का इंतज़ाम कर लेती है और फिर उसमें चली जाती है। वो अगला ठिकाना हमारे कर्मों और इच्छाओं से ही बनता है।
इस तरह, जब तक हमारे अंदर इच्छाएँ बाकी हैं, हम काम करते रहेंगे, और जब तक हम काम करते रहेंगे, हम उसके फल भोगने के लिए बार-बार जन्म लेते रहेंगे। यही संसार का चक्र है। तो क्या इस चक्र से बाहर निकलने का कोई रास्ता है? अगर इच्छा ही बंधन की जड़ है, तो आज़ादी का रास्ता निश्चित रूप से इच्छाओं से पार जाने में ही होगा।
मुक्ति का महामंत्र - "अहं ब्रह्मास्मि"
हमने सृष्टि का रहस्य देखा, आत्मा की अमरता को समझा, 'नेति नेति' का रास्ता जाना, और कर्म के बंधन को पहचाना। अब हम उस आखिरी चोटी पर पहुँचते हैं जहाँ सारे सफ़र खत्म होते हैं और सारे सवाल शांत हो जाते हैं। ये मुक्ति की चोटी है, और इसकी चाबी एक महावाक्य में है: "अहं ब्रह्मास्मि" - मैं ब्रह्म हूँ।
ये सिर्फ़ एक वाक्य नहीं है, ये एक अनुभव है, एक परम साक्षात्कार है। ये उस अवस्था के बारे में है जहाँ इंसान अपने छोटे, अहंकार वाले "मैं" से नाता तोड़कर अपने अनंत, असली स्वरूप, जो कि ब्रह्म है, में स्थित हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उपनिषद् कहता है, "जो ब्रह्म ही है, वो ब्रह्म को ही पाता है।" इसका मतलब है कि मुक्ति कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो हमें भविष्य में कहीं मिलेगी। मुक्ति हमारा असली स्वभाव है, हमारी सच्ची पहचान है। हम पहले से ही आज़ाद हैं, हम पहले से ही ब्रह्म हैं; बस अज्ञान के कारण हम इस सच्चाई को भूल गए हैं।
ये मुक्ति कैसे मिलती है? उपनिषद् कहता है, "जब इंसान के दिल में बसी सारी इच्छाएँ पूरी तरह खत्म हो जाती हैं, तब ये मरने वाला इंसान अमर हो जाता है और यहीं, इसी शरीर में ब्रह्म को महसूस करता है।"
ये कर्म के सिद्धांत का दूसरा पहलू है। अगर इच्छाएँ बंधन हैं, तो इच्छाओं का पूरी तरह खत्म हो जाना ही आज़ादी है। लेकिन इच्छाएँ खत्म कैसे हों? क्या उन्हें ज़बरदस्ती दबाने से? उपनिषद् कहता है, नहीं। दबाने से इच्छाएँ और मज़बूत होकर लौटती हैं।
इच्छाएँ तब खत्म होती हैं जब इंसान 'आप्तकाम' हो जाता है, यानी जिसकी सभी इच्छाएँ पूरी हो चुकी हों। और ऐसा कब होता है? जब वो 'आत्मकाम' हो जाता है, यानी जब उसे अपनी आत्मा में ही परम आनंद मिलने लगता है, जब उसे अपने सिवा किसी और चीज़ की चाहत ही नहीं रहती।
जब एक साधक "अहं ब्रह्मास्मि" का अनुभव करता है, तो उसे पता चलता है कि वो खुद ही अनंत आनंद और पूर्णता का स्रोत है। वो कोई अधूरा जीव नहीं है जिसे खुश होने के लिए बाहरी चीज़ों की ज़रूरत हो। इस पूर्णता के एहसास में, दुनिया की सारी इच्छाएँ, जो अधूरेपन के एहसास से पैदा होती हैं, अपने-आप शांत हो जाती हैं। जैसे सूरज के उगने पर दीये की ज़रूरत नहीं रहती, वैसे ही आत्म-ज्ञान की रोशनी में इच्छाओं का अँधेरा खुद-ब-खुद मिट जाता है।
जब इच्छाएँ नहीं रहतीं, तो उनके लिए कर्म भी नहीं होते। जब नए कर्म नहीं होते, तो भविष्य में भोगने के लिए कोई फल भी इकट्ठा नहीं होता। पुराने कर्म खत्म होने पर, वो ज्ञानी फिर से शरीर नहीं लेता। वो जन्म-मृत्यु के चक्र से हमेशा के लिए आज़ाद हो जाता है। वो ब्रह्म में वैसे ही मिल जाता है जैसे नदी समंदर में मिलकर अपना नाम-रूप खो देती है और समंदर ही बन जाती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
निष्कर्ष और आज की दुनिया में इसकी अहमियत
आज जब हमने बृहदारण्यक उपनिषद् के इस ज्ञान-सागर में एक छोटी सी डुबकी लगाई है, तो हमें इसकी अहमियत पहले से कहीं ज़्यादा महसूस होती है।
आज जब हम पहचान के संकट, तनाव, चिंता और अकेलेपन से जूझ रहे हैं, ये उपनिषद् हमें पुकार कर कहता है: "आत्मानं विद्धि" - खुद को जानो। ये हमें याद दिलाता है कि हमारी असली पहचान हमारे सोशल मीडिया प्रोफाइल या बैंक बैलेंस में नहीं, बल्कि हमारी उस शांत और आनंदमयी चेतना में है।
आज जब दुनिया चीज़ों को इकट्ठा करने की अंधी दौड़ में लगी है, मैत्रेयी का सवाल आज भी गूँजता है: "जिस चीज़ से मैं अमर ही न हो सकूँ, उसे लेकर मैं क्या करूँगी?" ये हमें रुककर सोचने पर मजबूर करता है कि हम जो कुछ भी इकट्ठा कर रहे हैं, क्या वो हमें सच्ची शांति दे सकता है?
'नेति नेति' का सिद्धांत हमें हर तरह के कट्टरपंथ से आज़ाद करता है। ये हमें सिखाता है कि सच किसी एक किताब या विचारधारा में क़ैद नहीं किया जा सकता।
और आखिर में, "अहं ब्रह्मास्मि" का ऐलान हमें बेहिसाब हिम्मत और आत्मविश्वास देता है। ये हमें सिखाता है कि हम हालातों के शिकार नहीं, बल्कि अपनी किस्मत के मालिक हैं, क्योंकि हमारे अंदर ही अनंत संभावनाओं का स्रोत, वो ब्रह्म, मौजूद है।
बृहदारण्यक उपनिषद् सिर्फ़ एक दार्शनिक ग्रंथ नहीं है, ये ज़िंदगी को ज़्यादा गहराई, अर्थ और आनंद के साथ जीने की एक प्रैक्टिकल गाइड है। ये हमें अपनी चेतना का विस्तार करने और हर जीव में उसी एक आत्मा को देखने के लिए प्रेरित करती है, जिससे करुणा, प्रेम और एकता का भाव अपने-आप पैदा होता है।
हर उपनिषद् एक दर्पण है, जिसमें झाँककर हम अपने भीतर छुपे ब्रह्म को देख सकते हैं। ये केवल दर्शन की पुस्तकें नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों में उतरने के मानचित्र हैं। बृहदारण्यक उपनिषद् न केवल ज्ञान का महासागर है, बल्कि वह रोशनी है जो अज्ञान के अंधकार को भेदती है, भ्रम को मिटाती है और आत्मा को उसकी मूल पहचान से जोड़ती है। यह उपनिषद् हमें बार-बार स्मरण कराता है कि हम शरीर, मन या नाम नहीं हैं — हम स्वयं वह 'पूर्णता' हैं, जो सदा से थी, सदा है और सदा रहेगी।
यह स्मृति ही आत्मज्ञान है, यही जागृति है। और यही वह मोक्ष है, जो बाहर कहीं नहीं, बल्कि भीतर की इस चुप, पूर्ण, शाश्वत सत्ता में ही निहित है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
Upanishad Linga Kathanam, Aitareya Upanishad, Katha Upanishad, Annapurna Upanishad, Rigveda Aitareya Upanishad, Pillars of Knowledge in Advaita Vedanta, Vamadeva Upanishad, Shiva Rahasya Upanishad, Rudra Advaita Upanishad, Hidden Shiva Upanishad, advaita rasa manjari advaita vedanta upanishad teachings 108 upanishad 108 upanishads in Hindi All 108 Upanishads Mundaka Upanishad, Mundaka Upanishad in Hindi, Mundaka Upanishad explained, Chandogya Upanishad, Chandogya Upanishad in Hindi, Chhandogya Upanishad explained, Brihadaranyaka Upanishad, Brihadaranyaka Upanishad in Hindi, Brihadaranyaka Upanishad Teachings, Brihadaranyaka Upanishad Explained