The Holy Science: Unveiling the Eternal Harmony Between Spirituality & Science
"The Holy Science" (Kaivalya Darshanam) by Swami Sri Yukteswar Giri bridges the gap between ancient spiritual wisdom and modern scientific understanding. This profound text reveals the underlying unity between cosmic laws, human consciousness, and divine evolution, guiding seekers toward self-realization and ultimate liberation. Sri Yukteswar highlights the cyclical nature of time (Yuga Cycles) and explains how humanity’s spiritual awakening progresses through these cosmic phases. The book explores the fourfold spiritual path leading to Kaivalya (absolute liberation), emphasizing the importance of inner purification, self-discipline, and divine knowledge. "The Holy Science" serves as a timeless beacon for those seeking to understand the unity of science and spirituality, ultimately guiding them toward enlightenment and cosmic awareness. 🌌✨
क्या आपने कभी विचार किया है कि धर्म वास्तव में क्या है? क्या यह केवल पूजा-पाठ, मंदिरों में जाना, उपवास रखना और कर्मकांडों तक सीमित है? या फिर इसका संबंध जीवन के किसी उच्च सत्य से है? स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी द्वारा लिखित कैवल्य दर्शन का पहला भाग 'धर्म (धारणा)' हमें इस गूढ़ प्रश्न का उत्तर प्रदान करता है। यह भाग न केवल धर्म की वास्तविक परिभाषा को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि किस प्रकार सच्चा धर्म आत्मा और परमात्मा के मिलन की ओर ले जाता है।
धर्म केवल बाहरी परंपराओं और क्रियाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मा की आंतरिक शुद्धि और परम सत्य की अनुभूति का मार्ग है। यह आत्मा के शाश्वत स्वरूप को पहचानने और उसे परमात्मा से जोड़ने का साधन है। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी ने बताया है कि धर्म किसी विशेष संप्रदाय या मत से बंधा हुआ नहीं है, बल्कि यह समस्त मानवता के लिए एक समान सत्य है। इस खंड में हम धर्म के गूढ़ रहस्यों को समझेंगे और यह जानेंगे कि सच्चे धर्म का अनुसरण कर हम मोक्ष के मार्ग पर कैसे अग्रसर हो सकते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
धर्म का वास्तविक स्वरूप कोई बाहरी आडंबर नहीं है, बल्कि यह आत्मा की शुद्धि और परमात्मा से एकत्व का साधन है। यह किसी जाति, संप्रदाय या सीमित धारणाओं में बंधा हुआ नहीं है, बल्कि यह सभी जीवों के लिए एक समान रूप से लागू होता है। धर्म की सच्ची पहचान हमें बाहरी रीतियों से हटकर आत्मा की आंतरिक उन्नति पर ध्यान केंद्रित करने को कहती है।
स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी के अनुसार, धर्म और नैतिकता का गहरा संबंध है। सत्य, अहिंसा और शुद्धता केवल बाहरी गुण नहीं हैं, बल्कि आत्मा की वास्तविक प्रकृति को प्रकट करने वाले साधन हैं। जब कोई व्यक्ति सच्चे धर्म का अनुसरण करता है, तो उसके भीतर दिव्यता जाग्रत होती है। इसीलिए धर्म केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मा के उत्थान का विज्ञान है।
सच्चे धर्म का उद्देश्य आत्मा को परमात्मा से जोड़ना है। यह केवल बाहरी पूजा-पाठ नहीं, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक अनुभव है। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी बताते हैं कि धर्म और विज्ञान में कोई विरोधाभास नहीं है। वास्तव में, सच्चा धर्म पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर खड़ा है। आत्मा और ब्रह्मांडीय ऊर्जा का संबंध, प्रकाश और ध्वनि के सिद्धांत, और ध्यान के माध्यम से चेतना का विस्तार – यह सब वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझा जा सकता है।
स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी इस बात पर जोर देते हैं कि सभी धर्मग्रंथ एक ही मूल सत्य की ओर संकेत करते हैं। चाहे वे वेद हों, उपनिषद हों, बाइबिल हो या कुरान – सभी का अंतिम उद्देश्य आत्मा को परमात्मा से जोड़ना है। धार्मिक ग्रंथों में केवल भाषा और शैली का अंतर होता है, परंतु उनका सार एक ही रहता है। यदि हम सच्चे धर्म को समझें, तो हम देखेंगे कि सभी धर्म समान सत्य की ओर संकेत कर रहे हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ध्यान और योग धर्म की अनुभूति के महत्वपूर्ण साधन हैं। केवल बाहरी कर्मकांड पर्याप्त नहीं हैं, जब तक कि साधक अपने भीतर परम सत्य का अनुभव न करे। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने भीतर की चेतना को जाग्रत कर सकता है और आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहचान सकता है। स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित क्रिया योग एक प्रभावी साधन है, जो आत्मा को उसके शुद्ध स्वरूप में वापस ले जाता है और परमात्मा से एकत्व की अनुभूति कराता है।
इस पूरे अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि सच्चा धर्म कोई बाहरी रूप नहीं है, बल्कि यह आत्मा की आंतरिक यात्रा है। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी हमें यह सिखाते हैं कि धर्म केवल आस्था का विषय नहीं है, बल्कि यह अनुभव की प्रक्रिया है। यदि हम सच्चे धर्म को अपनाएँ और ध्यान व साधना के माध्यम से अपने भीतर झाँकें, तो हम अपने अस्तित्व के मूल सत्य को जान सकते हैं। यही धर्म का वास्तविक उद्देश्य है।
क्या ज्ञान केवल पुस्तकों और शास्त्रों को पढ़ने तक सीमित है? या फिर यह जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा अर्जित होने वाली एक आंतरिक अनुभूति है? स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी द्वारा लिखित कैवल्य दर्शन का द्वितीय भाग 'ज्ञान (ज्ञान)' हमें इस प्रश्न का उत्तर प्रदान करता है। यह भाग आत्मज्ञान के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट करता है और यह दर्शाता है कि किस प्रकार सच्चा ज्ञान आत्मा को अज्ञानता के बंधनों से मुक्त कर सकता है।
स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी बताते हैं कि ज्ञान का वास्तविक स्वरूप केवल बाहरी पढ़ाई या शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि यह आत्मा की गहराई में स्थित सत्य का प्रत्यक्ष अनुभव है। जब मनुष्य अपनी आत्मा के शुद्ध स्वरूप को पहचान लेता है, तभी वह वास्तविक ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। यह ज्ञान उसे जीवन और मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर देता है।
योग के शास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जब मनुष्य बाहरी इंद्रिय सुखों और माया से विमुख होकर अपने भीतर स्थित दिव्यता को जानने की चेष्टा करता है, तभी उसे आत्म-साक्षात्कार का प्रथम अनुभव होता है। यह अनुभव केवल मानसिक अवधारणा नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष अनुभूति है, जिसे संतों और योगियों ने हजारों वर्षों से सिद्ध किया है। जब व्यक्ति ध्यान और साधना के माध्यम से अपने चित्त को शांत करता है, तो उसकी आत्मा का प्रकाश स्वयं प्रकाशित होने लगता है। इस अवस्था में प्रवेश करने पर व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि वह केवल एक शरीर या मन नहीं, बल्कि अनंत ब्रह्मांडीय चेतना का अंश है। यह बोध होते ही वह जन्म और मृत्यु के चक्र से परे देख पाता है और इस सत्य को जान लेता है कि आत्मा कभी नष्ट नहीं होती।
महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में कहा है कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अभ्यास और वैराग्य का मार्ग अपनाना चाहिए। अभ्यास के बिना आत्मा के सत्य स्वरूप को जानना संभव नहीं, और वैराग्य के बिना सांसारिक आसक्तियों से मुक्ति पाना कठिन है। जब व्यक्ति अभ्यासपूर्वक ध्यान और साधना करता है, तब धीरे-धीरे उसकी आत्मा के ऊपर जमे हुए अज्ञान के आवरण हटने लगते हैं और उसे अपनी वास्तविक स्थिति का बोध होने लगता है। इस अवस्था में पहुँचने के बाद व्यक्ति को ब्रह्मांडीय ऊर्जा का अनुभव होने लगता है और वह समझ जाता है कि सारा ब्रह्मांड एक ही सत्य से निर्मित हुआ है।
वास्तविक ज्ञान का अर्थ केवल शास्त्रों के पठन-पाठन तक सीमित नहीं है। यदि ज्ञान केवल अध्ययन तक सीमित रहता, तो सभी बड़े पंडित और शास्त्रज्ञ आत्मज्ञानी होते, परंतु ऐसा नहीं है। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी बताते हैं कि जब तक ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव में नहीं आता, तब तक वह केवल शब्दों का एक जाल भर है। वास्तविक ज्ञान वही है जो व्यक्ति के भीतर एक स्थायी परिवर्तन लाए, उसे संसार के बंधनों से मुक्त करे, और उसे आत्मा की अनंत शांति में स्थिर कर दे।
शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि आत्मा को जानने वाला व्यक्ति स्वयं को संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एक रूप में देखने लगता है। द्वैत की भावना समाप्त हो जाती है, और वह देखता है कि हर जीवात्मा में एक ही परमात्मा का प्रकाश स्थित है। यह बोध केवल बौद्धिक स्तर पर नहीं, बल्कि अनुभवजन्य होना चाहिए। यही कारण है कि सभी महायोगी और आत्मज्ञानी संत ध्यान और साधना को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि बाहरी ज्ञान केवल संकेत देता है, जबकि ध्यान व्यक्ति को प्रत्यक्ष अनुभव कराता है।
ज्ञान केवल सूचनाओं का संग्रह नहीं है, बल्कि यह आत्मा की वास्तविक प्रकृति को समझने और उसे अनुभव करने की प्रक्रिया है। जब व्यक्ति बाहरी भौतिक संसार के मोह से मुक्त होकर आत्मा की ओर उन्मुख होता है, तब वह सच्चे ज्ञान को प्राप्त करता है। यह ज्ञान उसे समस्त बंधनों से मुक्त कर मोक्ष की ओर ले जाता है।
स्वामी जी के अनुसार, सच्चा ज्ञान वह है जो आत्मा को उसके मूल स्वरूप का बोध कराए। जब व्यक्ति अपनी आत्मा को पहचाने बिना केवल बाहरी ज्ञान अर्जित करता है, तो वह भ्रम और अहंकार में पड़ जाता है। लेकिन जब वह अपने भीतर झांककर आत्मा के स्वरूप को समझता है, तो उसे वास्तविक शांति और आनंद की प्राप्ति होती है।
स्वामी जी कहते हैं कि जब व्यक्ति स्वयं के अस्तित्व को गहराई से समझने का प्रयास करता है, तब उसे यह बोध होता है कि वह केवल शरीर या मन नहीं है, बल्कि ब्रह्मांडीय चेतना का अंश है। यह अनुभव उसे संसार की माया से मुक्त कर देता है और परम सत्य के मार्ग पर अग्रसर करता है। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए ध्यान और साधना आवश्यक हैं। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने भीतर के अंधकार को दूर करता है और आत्मा के प्रकाश से स्वयं को प्रकाशित करता है।
जब व्यक्ति गहन ध्यान की अवस्था में प्रवेश करता है, तो उसे यह अनुभव होता है कि आत्मा और ब्रह्मांडीय चेतना में कोई भिन्नता नहीं है। यह वही अवस्था है जिसे योगियों ने 'समाधि' कहा है। समाधि की इस अवस्था में व्यक्ति अपने अहंकार, संकीर्ण सोच, और सांसारिक इच्छाओं से ऊपर उठ जाता है। ध्यान द्वारा जब चित्त पूर्णतः शुद्ध हो जाता है, तो उसमें केवल आत्मा की दिव्यता प्रतिबिंबित होती है। यह अवस्था केवल मानसिक अवधारणा नहीं बल्कि प्रत्यक्ष अनुभव है, जिसे सभी महायोगी और संतों ने प्रमाणित किया है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी कहते हैं कि आत्मा का यह अनुभव तभी संभव है जब व्यक्ति अपने भीतर स्थित दिव्य प्रकाश को जागृत करता है। यह प्रकाश एक शाश्वत ज्योति के समान है, जो अज्ञानता के अंधकार को मिटा देता है। यह दिव्य ज्योति केवल बाहरी अध्ययन से नहीं, बल्कि एकाग्र ध्यान और गहन साधना से ही प्राप्त की जा सकती है। जब मनुष्य इस प्रकाश से अवगत होता है, तभी उसे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति होती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
शास्त्रों में कहा गया है कि 'ज्ञानी' और 'ज्ञाता' में कोई भिन्नता नहीं होती, क्योंकि जो सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह स्वयं ज्ञानमय हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि जब व्यक्ति सच्चे आत्मज्ञान को प्राप्त करता है, तब वह स्वयं प्रकाश स्वरूप बन जाता है। यही कारण है कि महान संत और ऋषि केवल शब्दों द्वारा नहीं, बल्कि अपने स्वयं के जीवन द्वारा शिक्षा देते हैं। उन्होंने अपने भीतर स्थित सत्य को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया है, और इसी कारण उनके वचनों में शक्ति होती है।
स्वामी जी आगे बताते हैं कि यह ज्ञान केवल मानव जाति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड के संचालन का भी आधार है। ग्रह, नक्षत्र, और ब्रह्मांडीय ऊर्जाएँ भी इसी शाश्वत ज्ञान के नियमों के अनुसार कार्य करती हैं। जब मनुष्य इन नियमों को समझ लेता है और स्वयं को ब्रह्मांडीय चेतना के साथ जोड़ता है, तब उसे यह अनुभव होता है कि सारा जगत उसी एक परम शक्ति से उत्पन्न हुआ है और उसी में विलीन हो जाता है।
विज्ञान भी अब इस तथ्य की पुष्टि कर रहा है कि संपूर्ण ब्रह्मांड ऊर्जा से निर्मित है और यह ऊर्जा सजीव एवं सचेतन है। योगियों और संतों ने इस तथ्य को हजारों वर्षों पहले अनुभव किया था। ध्यान के माध्यम से जब व्यक्ति अपने चित्त को एकाग्र करता है, तब वह इस ब्रह्मांडीय ऊर्जा से सीधा संपर्क स्थापित करता है। यही कारण है कि ध्यान और साधना से व्यक्ति में दिव्य शक्तियों का प्राकट्य होता है और वह अपने भीतर स्थित अपार ज्ञान का भंडार खोल सकता है।
स्वामी जी यह भी कहते हैं कि सच्चा ज्ञान केवल आत्मा को जानने का माध्यम नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि के रहस्यों को समझने का साधन भी है। जब व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करता है, तो वह यह देख पाता है कि सभी भौतिक और आध्यात्मिक तत्व एक ही मूल स्रोत से उत्पन्न हुए हैं। यही कारण है कि ज्ञानी व्यक्ति सभी में एकता का अनुभव करता है।
मनुष्य जब अपनी आत्मा को पहचानने का प्रयास करता है, तब उसे यह ज्ञात होता है कि उसकी सच्ची पहचान केवल उसका भौतिक शरीर नहीं है। आत्मा अनंत और शुद्ध है। जब ध्यान और साधना द्वारा आत्मा का साक्षात्कार होता है, तो वह समस्त सांसारिक भ्रमों से मुक्त होकर सच्चे आनंद की अनुभूति करता है।
स्वामी जी यह भी बताते हैं कि वेदों और अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन तब तक अधूरा है, जब तक कि व्यक्ति उसमें निहित सत्य को अपने जीवन में अनुभव नहीं करता। केवल पठन-पाठन से ज्ञान नहीं आता, बल्कि ध्यान और साधना से ही इसका प्रत्यक्ष अनुभव संभव है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य की पुष्टि करता है कि ज्ञान केवल बाहरी सूचना नहीं है, बल्कि यह अनुभवजन्य और आत्मिक प्रक्रिया भी है। जब हम अपने भीतर के सत्य को समझते हैं, तब हमें ज्ञात होता है कि हम केवल शरीर या मन नहीं हैं, बल्कि शुद्ध आत्मा हैं।
स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी ने इस खंड में स्पष्ट किया है कि आत्मज्ञान ही जीवन का अंतिम उद्देश्य है। जब व्यक्ति अपनी आत्मा को पहचान लेता है, तो उसे संसार की माया से मुक्ति मिल जाती है और वह परम सत्य की ओर अग्रसर होता है। ध्यान और साधना के माध्यम से ही इस परम ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।
क्या संसारिक सुखों और मोह-माया से दूर रहना ही वैराग्य है, या फिर यह एक आंतरिक स्थिति है जो व्यक्ति को आत्मिक उन्नति की ओर ले जाती है? स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी द्वारा लिखित कैवल्य दर्शन का तृतीय भाग 'वैराग्य (वैराग्य)' इस प्रश्न का उत्तर प्रदान करता है। यह भाग दर्शाता है कि किस प्रकार आत्मसंयम, त्याग और संसार से उचित विरक्ति व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर ले जाते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी बताते हैं कि सच्चा वैराग्य केवल बाहरी त्याग नहीं है, बल्कि यह मन की एक विशेष अवस्था है, जिसमें व्यक्ति संसार के प्रति आसक्ति को छोड़ देता है और केवल आत्मा के ज्ञान में लीन हो जाता है। जब व्यक्ति संसार की क्षणभंगुरता को समझ लेता है, तब उसमें वैराग्य की भावना स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। यह त्याग केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं होता, बल्कि विचारों, इच्छाओं और अहंकार के स्तर पर भी आवश्यक होता है। जब व्यक्ति सत्य का साक्षात्कार करता है, तो उसका मन स्वतः ही सांसारिक इच्छाओं से मुक्त होने लगता है और उसका चित्त स्थिरता प्राप्त करता है।
वैराग्य का वास्तविक स्वरूप स्वामी जी के अनुसार, वैराग्य का अर्थ केवल भौतिक वस्तुओं का त्याग नहीं है, बल्कि यह मन की एक अवस्था है, जिसमें व्यक्ति सांसारिक विषयों में लिप्त रहते हुए भी उनसे प्रभावित नहीं होता। यह एक उच्च अवस्था है, जिसमें व्यक्ति मोह-माया से मुक्त होकर केवल परम सत्य की ओर अग्रसर होता है। स्वामी जी समझाते हैं कि जब तक मन किसी वस्तु से आकर्षित होता है, तब तक सच्चा वैराग्य प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए वैराग्य का पहला चरण मन के भीतर संतुलन और धैर्य विकसित करना है, जिससे व्यक्ति भोग और त्याग दोनों के पार जा सके। वैराग्य केवल नकारात्मक प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि यह मन की एक सकारात्मक अवस्था है, जिसमें व्यक्ति आत्मिक शांति और स्थायित्व प्राप्त करता है।
वैराग्य और आत्मसंयम स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी कहते हैं कि आत्मसंयम के बिना सच्चा वैराग्य संभव नहीं है। जब व्यक्ति अपने इंद्रियों पर नियंत्रण रखना सीखता है और अपनी इच्छाओं को वश में करता है, तभी उसमें वैराग्य जागृत होता है। इच्छाओं का असीम विस्तार ही बंधन का कारण बनता है। इच्छाएँ जब मनुष्य को वश में कर लेती हैं, तब वह मोह के जाल में उलझ जाता है। परंतु जब व्यक्ति इंद्रियों और मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब वैराग्य का वास्तविक अनुभव होता है। आत्मसंयम से व्यक्ति अपनी चेतना को उच्च अवस्था में ले जाता है, जिससे भोग और त्याग की सीमाओं से परे जाकर सच्ची शांति का अनुभव करता है।
अन्न और संयम: भोजन का प्रभाव मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति पर पड़ता है। स्वामी जी ने सात्त्विक भोजन की महिमा का उल्लेख किया है, जो ध्यान और वैराग्य को बल प्रदान करता है। भोजन केवल शारीरिक पोषण का साधन नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धता का भी आधार है। अशुद्ध और तामसिक भोजन मन की चंचलता को बढ़ाता है, जिससे इंद्रियों का संयम कठिन हो जाता है। सात्त्विक भोजन से मन शांत होता है और ध्यान में गहराई आती है।
इंद्रिय निग्रह: केवल बाहरी संयम नहीं, बल्कि मन के भीतर भी इच्छाओं का नियंत्रण आवश्यक है। इंद्रियों की चंचलता व्यक्ति को आत्मज्ञान से दूर ले जाती है। जो व्यक्ति विषय-वासना में लिप्त रहता है, वह कभी भी आत्मसंयम और वैराग्य को प्राप्त नहीं कर सकता। संयम का अर्थ केवल जबरन इंद्रियों को रोकना नहीं, बल्कि उनके वास्तविक स्वरूप को समझना और उन्हें सही दिशा में लगाना है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
स्वाध्याय और सत्संग: ज्ञान की प्राप्ति और सत्संग का महत्व भी इस विषय में विस्तृत रूप से जोड़ा जा सकता है। स्वाध्याय और सत्संग व्यक्ति को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करते हैं। जब मनुष्य सत्संग में रहता है, तब उसका मन भी सात्त्विक विचारों से प्रभावित होता है। इसी प्रकार, स्वाध्याय द्वारा वह शास्त्रों और संतों के विचारों को आत्मसात कर सकता है।
ध्यान और प्राणायाम: कैसे साधना आत्मसंयम को मजबूत करती है और मन को वैराग्य की ओर ले जाती है। ध्यान से व्यक्ति का मन विषयों की ओर भागने के बजाय भीतर की ओर केंद्रित होने लगता है। प्राणायाम द्वारा इंद्रियों और मन को शांत कर, आत्मा के उच्चतम स्तर का अनुभव किया जा सकता है।
वैराग्य और संसार स्वामी जी यह स्पष्ट करते हैं कि वैराग्य का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति संसार से भाग जाए या अपने कर्तव्यों का त्याग कर दे। सच्चा वैराग्य वह है, जिसमें व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उसमें लिप्त नहीं होता। जैसे कमल का फूल कीचड़ में रहकर भी उससे अछूता रहता है, वैसे ही सच्चे वैराग्यवान व्यक्ति संसार में रहकर भी माया से प्रभावित नहीं होते।
संसार स्वयं में न तो बंधन का कारण है, न ही मुक्ति का मार्ग। यह व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह इसे किस प्रकार देखता है। जब व्यक्ति संसार को अपनी इच्छाओं और वासनाओं की पूर्ति का माध्यम मानता है, तब यह उसके लिए बंधन बन जाता है। परंतु जब वही व्यक्ति संसार को ईश्वर की लीला के रूप में देखता है और निष्काम भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करता है, तब यही संसार मोक्ष का माध्यम बन जाता है।
गृहस्थ और वैराग्य स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी बताते हैं कि केवल संन्यास लेना ही वैराग्य नहीं है, बल्कि गृहस्थ जीवन में रहकर भी वैराग्य संभव है। वास्तव में, यदि गृहस्थ जीवन में रहते हुए व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भी भीतर से संसार से निर्लिप्त रहता है, तो वह सच्चे वैराग्य को प्राप्त कर सकता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण भी यही उपदेश देते हैं कि जो व्यक्ति कर्तव्यों का पालन करता है, परंतु उनके फलों में आसक्त नहीं होता, वही सच्चा योगी और वैराग्यवान है।
कर्म और वैराग्य का संतुलन स्वामी जी के अनुसार, संसार में रहकर कर्म करते हुए वैराग्य बनाए रखना ही सच्ची आध्यात्मिक साधना है। मनुष्य को अपने कर्मों से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें एक ईश्वरीय अर्पण भाव से करना चाहिए। यदि कोई केवल यह सोचकर संसार का त्याग कर दे कि इससे उसे मोक्ष प्राप्त होगा, तो यह अधूरा दृष्टिकोण है। असली वैराग्य वही है, जिसमें व्यक्ति संसार में रहते हुए भी अपने मन को परमात्मा में स्थिर रखे। गीता के निष्काम कर्म सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति को कर्म करना चाहिए, लेकिन फल की चिंता किए बिना। जब व्यक्ति यह समझ जाता है कि कर्म केवल एक माध्यम है, तब वह अपने कर्तव्यों को सहजता और शांति के साथ निभाता है, और यही वास्तविक वैराग्य है।
माया और वास्तविकता स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी के अनुसार, यह संसार एक अस्थायी और परिवर्तनशील अस्तित्व है, जबकि आत्मा शाश्वत है। माया वह शक्ति है, जो आत्मा को इस परिवर्तनशील संसार से जोड़ती है और उसे भ्रमित करती है। परंतु जब व्यक्ति आत्मज्ञान के माध्यम से इस सत्य को समझ लेता है कि वह केवल देह नहीं, बल्कि शुद्ध चेतना है, तब माया का प्रभाव समाप्त हो जाता है और सच्चा वैराग्य उत्पन्न होता है। यह समझ ही व्यक्ति को बंधन से मुक्त करती है।
वैराग्य केवल त्याग नहीं है, बल्कि यह एक दिव्य जागरण है। जब व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उसके प्रभाव से मुक्त हो जाता है, तब वह सच्चे वैराग्य को प्राप्त करता है। यह अवस्था एकाएक प्राप्त नहीं होती, बल्कि साधना, आत्मसंयम, और ज्ञान के माध्यम से विकसित होती है। यह मन की एक स्थिर अवस्था है, जिसमें व्यक्ति हर परिस्थिति में समभाव बनाए रखता है और भीतर से आनंदित रहता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ध्यान और वैराग्य का संबंध स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी बताते हैं कि ध्यान और वैराग्य एक-दूसरे के पूरक हैं। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित कर सकता है और वैराग्य की अवस्था प्राप्त कर सकता है। जब ध्यान गहरा होता है, तो व्यक्ति संसार की असारता को समझने लगता है और उसमें वैराग्य उत्पन्न होने लगता है। स्वामी जी बताते हैं कि ध्यान से व्यक्ति की चेतना उस परम वास्तविकता की ओर उन्मुख होती है, जिससे उसे संसार के अस्थायी स्वरूप का स्पष्ट अनुभव होता है। जब यह अनुभूति दृढ़ हो जाती है, तब मन स्वयं ही संसार से विरक्त होने लगता है और आत्मा की ओर उन्मुख हो जाता है। ध्यान की गहराई में जाकर व्यक्ति अपने भीतर के मौन को सुन सकता है और इस मौन में ही उसे वास्तविक आनंद की अनुभूति होती है। ध्यान और वैराग्य का यह संयोजन ही व्यक्ति को आत्मिक उत्थान की ओर ले जाता है।
वैराग्य और मोक्ष स्वामी जी कहते हैं कि वैराग्य ही मोक्ष का द्वार है। जब व्यक्ति पूर्ण रूप से संसार के मोह से मुक्त हो जाता है, तभी वह अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है। यही आत्मज्ञान उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है। वैराग्य का अंतिम चरण उस स्थिति में पहुंचना है, जहां व्यक्ति न तो त्याग को महत्व देता है और न ही भोग को—वह केवल आत्मा की शुद्ध स्थिति में स्थित हो जाता है। इस अवस्था में न कोई आकांक्षा शेष रहती है, न कोई द्वंद्व, केवल शुद्ध आनंद और परम सत्य का अनुभव होता है। वैराग्य की यह परम अवस्था ही मोक्ष है, जिसमें व्यक्ति को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है और वह परम ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
वैराग्य का चरम लक्ष्य स्वामी जी कहते हैं कि वैराग्य का अंतिम उद्देश्य व्यक्ति को आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाना है। जब व्यक्ति भीतर से मुक्त होता है, तब वह सहज रूप से अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेता है। यह वैराग्य ही आत्मज्ञान का द्वार खोलता है और व्यक्ति को परम शांति और आनंद की अवस्था तक ले जाता है।
मनुष्य जीवन का परम लक्ष्य क्या है? यह प्रश्न युगों से साधकों और संतों के मन में उठता रहा है। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी द्वारा रचित कैवल्य दर्शन का चतुर्थ भाग, मोक्ष, इसी प्रश्न का उत्तर प्रदान करता है। मोक्ष केवल जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होना नहीं है, बल्कि यह आत्मा की पूर्ण स्वतंत्रता और ब्रह्म से एकात्मता की अवस्था है।
स्वामी जी स्पष्ट करते हैं कि जब तक मनुष्य स्वयं को शरीर और मन से जोड़कर देखता है, तब तक वह जन्म-मरण के चक्र में बंधा रहता है। वास्तविक मोक्ष तब प्राप्त होता है जब व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करता है और अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानता है। यह अवस्था केवल बाहरी साधना से नहीं, बल्कि गहन आत्मनिरीक्षण, ध्यान और आध्यात्मिक अनुशासन से प्राप्त होती है। जब साधक यह अनुभव करता है कि आत्मा स्वतंत्र, अनंत और शाश्वत है, तभी वह परम सत्य को प्राप्त कर सकता है।
मोक्ष की प्राप्ति के लिए सबसे आवश्यक तत्व वैराग्य और आत्मसंयम हैं। जब व्यक्ति संसार के बंधनों को छोड़कर केवल परमात्मा में लीन हो जाता है, तब वह मोक्ष की दिशा में अग्रसर होता है। स्वामी जी बताते हैं कि सांसारिक कर्मों में लिप्त रहते हुए भी व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है, यदि वह निष्काम भाव से कार्य करे और अपने कर्तव्यों को ईश्वर अर्पित कर दे। इस संदर्भ में, गीता में वर्णित निष्काम कर्म योग का महत्व भी स्पष्ट होता है। कर्म के बिना कोई जीवित नहीं रह सकता, लेकिन कर्म को आसक्ति से मुक्त कर देना ही मोक्ष की ओर पहला कदम है।
स्वामी जी समझाते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए ध्यान, साधना और आत्म-चिंतन अत्यंत आवश्यक हैं। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन को वश में करता है और इंद्रियों के प्रभाव से मुक्त होकर आत्मा के स्वरूप को समझता है। ध्यान की गहरी अवस्था में साधक अनुभव करता है कि वह केवल शरीर नहीं, बल्कि अनंत चेतना का अंश है। यही अनुभव उसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
स्वामी जी बताते हैं कि मोक्ष प्राप्ति के तीन प्रमुख स्तर होते हैं। पहला स्तर वह है जब व्यक्ति अपने भीतर आध्यात्मिक जिज्ञासा को जागृत करता है और संसार के क्षणभंगुर स्वभाव को पहचानता है। दूसरा स्तर वह है जब व्यक्ति गहन ध्यान और साधना के माध्यम से आत्मा की वास्तविकता को समझने लगता है। अंतिम स्तर वह है जब व्यक्ति अपने अहंकार, वासनाओं और सांसारिक इच्छाओं से पूरी तरह मुक्त हो जाता है और आत्मा का साक्षात्कार करता है। इस अंतिम अवस्था में व्यक्ति को कोई दुख या सुख प्रभावित नहीं कर सकता, क्योंकि वह सदा के लिए ब्रह्म में स्थित हो जाता है।
स्वामी जी यह भी बताते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा अहंकार और सांसारिक वासनाएँ हैं। जब तक व्यक्ति अपने जीवन को व्यक्तिगत इच्छाओं और अहंकार की संतुष्टि के लिए जीता है, तब तक वह इस जन्म-मरण के चक्र में ही फँसा रहता है। किंतु जब वह आत्मा की शुद्धता को समझता है और स्वयं को परम चेतना के अंश के रूप में देखता है, तब वह वास्तविक मोक्ष की ओर बढ़ता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मोक्ष प्राप्त करने के लिए साधक को मानसिक और शारीरिक अनुशासन का पालन करना आवश्यक होता है। स्वामी जी बताते हैं कि सात्त्विक आहार, नियमित ध्यान, सत्संग और सद्गुरु के मार्गदर्शन में की गई साधना से ही यह अवस्था प्राप्त होती है। केवल बाहरी साधनों से मोक्ष संभव नहीं, बल्कि व्यक्ति को अपने भीतर उतरना होगा और आत्मचिंतन करना होगा। जब व्यक्ति आत्मा के स्तर पर जीने लगता है और संसार को केवल एक नाटक की तरह देखता है, तब वह मोक्ष के द्वार पर पहुँच जाता है। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी बताते हैं कि आत्मसंयम ही सच्ची साधना की नींव है। जो साधक अपनी इंद्रियों को नियंत्रित नहीं कर सकता, वह आत्मज्ञान की उच्च अवस्था तक नहीं पहुँच सकता।
आत्मसंयम का अर्थ केवल बाहरी अनुशासन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विचारों, भावनाओं और मनोवृत्तियों की शुद्धता से भी जुड़ा हुआ है। स्वामी जी स्पष्ट करते हैं कि जब तक मन सांसारिक भोग और वासनाओं में लिप्त रहता है, तब तक आत्मा की दिव्यता को अनुभव नहीं किया जा सकता। ध्यान और सत्संग के माध्यम से मन को एकाग्र किया जा सकता है और उसे आत्मा के वास्तविक स्वरूप की ओर मोड़ा जा सकता है। स्वामी जी इस बात पर भी जोर देते हैं कि मोक्ष के पथ पर आगे बढ़ने के लिए सद्गुरु का मार्गदर्शन अत्यंत आवश्यक है।
सद्गुरु की कृपा से साधक सही दिशा में आगे बढ़ सकता है और अपने भीतर छिपे दिव्य तत्व का साक्षात्कार कर सकता है। गुरु-शिष्य परंपरा भारतीय आध्यात्मिक परंपरा की आधारशिला रही है, और यही कारण है कि स्वामी जी ने स्वयं भी इस परंपरा का पालन किया। वे बताते हैं कि जब साधक पूर्ण समर्पण भाव से गुरु की शिक्षाओं का पालन करता है, तब उसके भीतर आत्मिक उन्नति की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से होने लगती है। सद्गुरु की दीक्षा और मार्गदर्शन के बिना मोक्ष प्राप्ति अत्यंत कठिन हो जाती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसके अतिरिक्त, स्वामी जी विशेष रूप से क्रिया योग की महत्ता को समझाते हैं। वे बताते हैं कि यह एक अत्यंत प्रभावशाली साधना पद्धति है, जो साधक को शीघ्रता से आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है। क्रिया योग के माध्यम से साधक अपनी प्राण ऊर्जा को नियंत्रित करना सीखता है और आंतरिक चेतना को जागृत कर पाता है। यह योग विधि साधक को बाहरी विषय-वासनाओं से विमुख कर आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थित होने में सहायता करती है।
स्वामी जी कहते हैं कि जब साधक मन, प्राण और आत्मा के संतुलन को प्राप्त कर लेता है, तब वह वास्तव में मोक्ष की ओर बढ़ता है। ध्यान, साधना, और आत्मसंयम के माध्यम से वह इस अवस्था को प्राप्त कर सकता है। इसीलिए, स्वामी जी साधकों को निरंतर अभ्यास और धैर्य के साथ साधना करने की प्रेरणा देते हैं। जब व्यक्ति इस मार्ग पर पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ चलता है, तभी उसे वास्तविक मुक्ति की प्राप्ति होती है।
स्वामी जी स्पष्ट करते हैं कि मोक्ष प्राप्ति का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति संसार से भाग जाए या अपने कर्तव्यों का त्याग कर दे। इसके विपरीत, वह व्यक्ति जो संसार में रहते हुए भी परम सत्य को जानता है और प्रत्येक कार्य को ईश्वर की सेवा समझकर करता है, वही वास्तव में मोक्ष प्राप्त करता है। मोक्ष का संबंध केवल मृत्यु के बाद की अवस्था से नहीं है, बल्कि यह जीवन के भीतर भी संभव है। जो व्यक्ति अपने जीवन में ही जन्म और मृत्यु के द्वंद्व से मुक्त हो जाता है, वह मुक्त आत्मा बन जाता है।
मोक्ष की अंतिम अवस्था में साधक को यह बोध होता है कि वह केवल चेतना मात्र है और संपूर्ण सृष्टि उसी चेतना का विस्तार है। इस अवस्था में प्रवेश करने के बाद उसे पुनर्जन्म का कोई भय नहीं रहता, क्योंकि वह जान लेता है कि आत्मा न तो जन्म लेती है और न मरती है। आत्मा शाश्वत है और परम सत्य में विलीन होने के लिए ही इस जीवन यात्रा में प्रवृत्त होती है। जब यह ज्ञान पूर्णरूप से आत्मसात हो जाता है, तब व्यक्ति स्वयं को इस संसार के मिथ्यात्व से मुक्त कर लेता है।
स्वामी जी बताते हैं कि सच्चे मोक्ष की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही नहीं, बल्कि उसके अनुरूप आचरण भी करना आवश्यक है। बाहरी अनुशासन और योग साधना के साथ-साथ आंतरिक शुद्धता भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब तक मन में वासनाएँ और सांसारिक इच्छाएँ विद्यमान हैं, तब तक आत्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो सकता। इसलिए आत्मसंयम, संतोष और शरणागति का अभ्यास करना अनिवार्य है।
मोक्ष केवल कोई दार्शनिक विचार या धार्मिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की एक परिपूर्ण अवस्था है, जहाँ आत्मा समस्त बंधनों से मुक्त होकर अपनी शुद्ध, अनंत और दिव्य चेतना में स्थित हो जाती है। यह कोई बाहरी उपलब्धि नहीं, बल्कि आंतरिक जागरूकता की चरम परिणति है। व्यक्ति को यह समझना आवश्यक है कि मोक्ष केवल मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाली कोई स्थिति नहीं, बल्कि यह जीवन के भीतर ही संभव है। जब साधक अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानता है और सांसारिक इच्छाओं, मोह, तथा अहंकार को त्याग देता है, तब वह मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।
स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरी स्पष्ट करते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है आत्म-जागृति। यह जागरूकता केवल बाहरी ज्ञान से नहीं आती, बल्कि गहन साधना, ध्यान और आत्मनिरीक्षण से उत्पन्न होती है। जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं और वासनाओं से परे जाकर केवल ईश्वर में समर्पित हो जाता है, तब वह सच्चे मोक्ष की प्राप्ति करता है। यह समर्पण कोई बाहरी क्रिया मात्र नहीं, बल्कि अंतःकरण की गहराइयों से होने वाला पूर्ण आत्मोत्सर्ग है, जहाँ व्यक्ति स्वयं को पूरी तरह से ईश्वर की शरण में अर्पित कर देता है। यह आत्मा की परम गति है, जहाँ सभी प्रकार के दुख, भ्रम, और बंधन समाप्त हो जाते हैं और केवल शाश्वत आनंद और परम शांति शेष रह जाती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मोक्ष की इस अवस्था में व्यक्ति को यह साक्षात बोध होता है कि वह केवल नश्वर शरीर नहीं, बल्कि अनंत चेतना है, जो समय, स्थान और परिस्थितियों से परे है। जब यह बोध स्थायी हो जाता है, तब उसे पुनर्जन्म का भय नहीं रहता, क्योंकि वह जान लेता है कि आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है, बल्कि यह सदा से अस्तित्व में रही है और अनंत काल तक बनी रहेगी। यह अनुभूति ही मोक्ष की परिपूर्ण अवस्था है, जिसमें जीव और ब्रह्म का भेद समाप्त हो जाता है, द्वैत मिट जाता है और केवल एकत्व शेष रह जाता है।
स्वामी जी बताते हैं कि मोक्ष प्राप्ति की राह केवल सन्यासियों के लिए नहीं, बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुली है, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हो। सांसारिक जीवन में रहते हुए भी व्यक्ति निष्काम भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करके इस परम अवस्था को प्राप्त कर सकता है। यह मोक्ष केवल त्याग में नहीं, बल्कि सही दृष्टि, समर्पण और आध्यात्मिक अभ्यास में निहित है। जब व्यक्ति हर कार्य को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है और अहंकार से मुक्त होकर जीवन को एक साधना के रूप में देखता है, तब वह वास्तविक रूप से मुक्त हो जाता है।
अतः, मोक्ष केवल मृत्यु के बाद की कोई कल्पना नहीं, बल्कि यह जीवित अवस्था में ही अनुभूत किया जाने वाला सर्वोच्च सत्य है। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानती है और अनंत शांति एवं आनंद का अनुभव करती है। यह न केवल व्यक्तिगत मुक्ति है, बल्कि समस्त सृष्टि के प्रति दिव्य प्रेम और करुणा की भावना को जन्म देती है। जब व्यक्ति अपने भीतर की सीमाओं को लांघकर सार्वभौमिक चेतना के साथ एक हो जाता है, तब वह स्वयं को समस्त प्राणियों में देखता है और संपूर्ण सृष्टि को दिव्यता से ओत-प्रोत अनुभव करता है। यही मोक्ष की चरम अवस्था है, जहाँ केवल प्रेम, प्रकाश और परमानंद का वास होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh