Advayataraka Upanishad is a profound text that unveils the secrets of non-duality (Advaita Vedanta) and the practice of Taraka Yoga. It emphasizes transcending illusion (Maya) and realizing the oneness of Brahman through deep meditation on the Ajna Chakra (Third Eye). This Upanishad guides seekers toward spiritual awakening, self-realization, and ultimate liberation (moksha), unlocking the path to eternal bliss and supreme consciousness. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
1. अब हम अद्वय तारक उपनिषद् का विस्तारपूर्वक व्याख्यान करेंगे, जो इंद्रियों को जीतने वाले, शम आदि छह गुणों से पूर्ण तपस्वी के लिए है।
2. जो व्यक्ति "मैं चैतन्यस्वरूप हूँ" इस प्रकार निरंतर भावना करता है और अपनी आँखें पूर्ण रूप से बंद कर लेता है, या फिर थोड़ी खुली रखता है, वह अपनी अंतर्दृष्टि से भ्रूमध्य के ऊपर सत्य, चित् और आनंदस्वरूप तेजोमय ब्रह्म का दर्शन करता है और स्वयं भी उसी स्वरूप का हो जाता है।
3. "अद्वय" और "तारक" शब्दों का अर्थ यह है कि यह उपदेश गर्भ, जन्म, जरा (बुढ़ापा) और मरण के भय से तारने वाला है, इसलिए इसे "तारक" कहा जाता है। जीव और ईश्वर दोनों मायिक (माया के प्रभाव से युक्त) हैं, यह जानकर, सभी विशेषताओं को "नेति-नेति" कहकर छोड़ देने के पश्चात जो अवशेष बचता है, वही अद्वय (अद्वैत) ब्रह्म है।
4. इस सिद्धि के लिए लक्ष्य के तीन भेदों का अनुसंधान (संधान) करना चाहिए।
5. (अंतर्लक्ष्य का लक्षण)
शरीर के मध्य में ब्रह्मनाड़ी स्थित है, जो सुषुम्ना कहलाती है। यह सूर्य के समान प्रकाशित तथा पूर्ण चंद्रमा के समान चमक वाली होती है। यह मूलाधार से प्रारंभ होकर ब्रह्मरंध्र तक जाती है। इसके मध्य में विद्युत के करोड़ों ज्वालाओं के समान चमक वाली अत्यंत सूक्ष्म नाड़ी स्थित है, जो मृणालसूत्र (कमल के तने के रेशे) के समान होती है, और जिसे कुण्डलिनी के नाम से जाना जाता है। इसे मन द्वारा देखने पर मनुष्य अपने समस्त पापों का नाश कर मुक्त हो जाता है।
जब भ्रूमध्य के ऊपर विशेष ललाटमंडल में निरंतर तारकयोग के प्रभाव से प्रकाशित तेज को देखा जाता है, तब सिद्धि प्राप्त होती है। जब कानों के छिद्र में तरजनी अंगुली रखकर ध्यान किया जाता है, तो वहाँ फूँकने की ध्वनि उत्पन्न होती है। यदि इस अवस्था में मन भ्रूमध्य में स्थिर हो जाए और वहाँ स्थित नील-ज्योति स्थल को देखा जाए, तो अंतर्दृष्टि से अद्वितीय आनंद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार हृदय में भी यह ज्योति दृष्टिगत होती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसलिए मुक्तिप्राप्ति की इच्छा रखने वाले साधकों को इस अंतर्लक्ष्य का उपासना करनी चाहिए।
6. (बाह्यलक्ष्य का लक्षण)
अब बाह्यलक्ष्य का वर्णन किया जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
नासिका के अग्रभाग पर चार, छह, आठ, दस या बारह अंगुल की दूरी पर यदि कोई योगी नील वर्ण, श्यामवर्ण, रक्ताभ रंग, अथवा चमकते हुए पीले रंग के प्रकाशमान आकाश को देखता है, तो वह निश्चित रूप से योगी होता है।
यदि किसी व्यक्ति की दृष्टि चलायमान हो और वह आकाश की ओर देखे, तो उसके नेत्रों के सामने प्रकाश की किरणें उत्पन्न होती हैं। इस दृश्य को देखने से योग सिद्ध होता है। यदि तप्त स्वर्ण के समान चमकने वाली प्रकाश किरणें आँखों के किनारे, भूमि पर अथवा अन्यत्र दिखें, तो उस साधक की दृष्टि स्थिर हो जाती है। यदि सिर के ऊपर बारह अंगुल की दूरी पर कोई आकाशीय ज्योति देखे, तो उसे अमृतत्व की प्राप्ति होती है। यदि सिर पर किसी भी स्थान पर आकाशीय प्रकाश दिखने लगे, तो वह व्यक्ति पूर्ण योगी हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
7. (मध्यलक्ष्य का लक्षण)
अब मध्यलक्ष्य का वर्णन किया जाता है।
प्रातःकाल के समय किसी चित्र या अन्य वर्णों के बिना अखंडित सूर्यचक्र के समान, अग्नि की जलती हुई ज्वालाओं के समान, अथवा बिना किसी वस्तु के मध्य स्थित आकाश के समान जो दृश्य दिखता है, वही मध्यलक्ष्य है।
इसके निरंतर दर्शन से गुणरहित आकाश प्राप्त होता है।
यह चमकती तारकाकार ज्योति के रूप में प्रकाशित होकर घने अंधकार के समान प्रतीत होने वाला परम आकाश बन जाता है।
फिर यह प्रलयकालीन अग्नि के समान प्रकाशित होने वाला महाकाश बन जाता है।
इसके पश्चात अत्यंत उत्तम दिव्य प्रकाश से प्रकाशित होने वाला तत्त्वाकाश प्राप्त होता है।
फिर यह करोड़ों सूर्य के प्रकाश के समान तेजस्वी सूर्याकाश में परिवर्तित हो जाता है।
इस प्रकार बाह्य और आंतरिक दोनों प्रकार के आकाशों के पांच भेद तारकलक्ष्य कहलाते हैं। जो व्यक्ति इनका दर्शन करता है, वह मुक्त होकर उसी के समान बन जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसलिए तारक ही ध्यान का वास्तविक लक्ष्य है, और वही मन की स्थिरता प्रदान करने वाला साधन है।
8. (तारक योग के दो भेद)
तारक योग दो प्रकार का होता है—
पूर्वार्ध (प्रथम भाग) - जिसे तारक कहा जाता है।
उत्तरार्ध (द्वितीय भाग) - जिसे अमनस्क कहा जाता है।
इस संबंध में यह श्लोक कहा गया है— Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"तारक योग दो प्रकार का होता है, पूर्वार्ध और उत्तरार्ध।
प्रथम भाग तारक कहलाता है, और दूसरा अमनस्क कहलाता है।"
(९) तारक योग की सिद्धि
तारक योग का मुख्य फल यह है कि इसमें चंद्र और सूर्य का एकत्वदर्शन होता है।
जब नेत्रों के भीतर तारक रूप से चंद्र-सूर्य का प्रतिबिंब दिखाई देता है, तब वह सिद्ध हो जाता है।
तारक के माध्यम से सूर्य और चंद्र मंडलों का दर्शन होता है।
जिस प्रकार ब्रह्मांड में सूर्य और चंद्र स्थित होते हैं, उसी प्रकार पिंड (शरीर) में सिर के मध्य स्थित आकाश में भी दोनों का अस्तित्व निश्चित रूप से होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तारक के माध्यम से उस ब्रह्मांडीय सूर्य-चंद्र का साक्षात्कार किया जाता है।
इस स्थिति में, मन को एकीकृत करके ध्यान करना चाहिए।
यदि तारक योग न हो तो इंद्रियों की प्रवृत्तियों को रोकना असंभव हो जाता है।
इसलिए, आंतरिक दृष्टि (अंतर्दृष्टि) के द्वारा ही तारक का अनुसंधान करना चाहिए।
(१०) मूर्त और अमूर्त तारक का भेद
तारक दो प्रकार का होता है—
मूर्त तारक - जो इंद्रियों तक सीमित होता है।
अमूर्त तारक - जो भ्रूमध्य से परे होता है।
जो इंद्रियों की सीमा में आता है, वह मूर्त रूप है।
और जो भ्रूमध्य से भी परे स्थित है, वह अमूर्त रूप है।
सभी अवस्थाओं में, आंतरिक तत्वों के विवेचन में मन को ही माध्यम बनाकर अभ्यास करना आवश्यक है।
तारक के माध्यम से ऊर्ध्व दिशा में स्थित सत्यस्वरूप दर्शन करने से यह सिद्ध होता है कि वही ब्रह्म है, और वह सच्चिदानंद स्वरूप है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसलिए यह निश्चित हो जाता है कि ब्रह्म शुक्लतेजोमय (शुद्ध प्रकाशमय) है।
उस ब्रह्म को मन और चक्षु के सहारे, अंतर्दृष्टि द्वारा अनुभव किया जाता है।
इसी प्रकार अमूर्त तारक का भी साक्षात्कार होता है।
आंतरिक रूप से मन और चक्षु के संयोग से ही दहराकाश (हृदयाकाश) का अनुभव किया जाता है।
क्योंकि रूप ग्रहण करने की क्रिया मन और चक्षु के अधीन होती है।
अतः बाह्य और आंतरिक किसी भी रूप को देखने की क्रिया तभी संभव होती है जब आत्मा, मन और चक्षु का संयोग होता है।
इसलिए मन सहित अंतर्दृष्टि ही तारक प्रकाश को प्रकट करने का साधन है।
(११) तारक योग का स्वरूप
भ्रूमध्य के बीच स्थित द्वार (छिद्र) से दृष्टि को ऊपर उठाने पर, जो ऊर्ध्व दिशा में स्थित तेज प्रकाशित होता है, वही तारक योग कहलाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इस योग में, मन को उस तारक रूप से पूर्णतः संयोजित किया जाता है।
फिर विशेष प्रयास द्वारा भ्रूमध्य को सावधानीपूर्वक कुछ ऊर्ध्व दिशा में उठाना चाहिए।
यही प्रथम तारक योग कहलाता है।
उत्तरार्ध योग को अमूर्त अमनस्क योग कहा जाता है।
तालु-मूल (तालु के ऊपरी भाग) में एक महान ज्योतिर्मय प्रकाश स्थित होता है।
उस प्रकाश का ध्यान करना चाहिए।
इसके अभ्यास से अणिमा आदि सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
(१२) शाम्भवी मुद्रा
जब बाह्य और आंतरिक लक्ष्य में दृष्टि स्थित हो जाए और उसमें न तो निमेष (पलक झपकाना) हो और न ही उन्मेष (पलक उठाना), तब शाम्भवी मुद्रा सिद्ध होती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इस मुद्रा में स्थित ज्ञानी जहां निवास करता है, वहां की भूमि पवित्र हो जाती है।
इस स्थिति में जिसकी दृष्टि पड़ती है, वह संपूर्ण लोक भी पवित्र हो जाता है।
ऐसे परमयोगी की पूजा जिसे प्राप्त होती है, वह भी मुक्त हो जाता है।
(१३) अंतर्लक्ष्य के विकल्प
अंतर्लक्ष्य का स्वरूप जलती हुई ज्योति के समान होता है।
परमगुरु के उपदेश से— Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सहस्रार में स्थित दिव्य ज्योति,
बुद्धि गुहा (ब्रह्मरंध्र) में स्थित चेतना की ज्योति,
षोडशान्त (मूलाधार से सोलह अंगुल ऊपर स्थित केंद्र) में स्थित तुरीय चैतन्य—
यही अंतर्लक्ष्य होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसका साक्षात्कार सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव है।
(१४-१८) आचार्य का लक्षण
जो वेदों का ज्ञाता हो, विष्णु का भक्त हो,
ईर्ष्या से रहित हो, योग का ज्ञाता हो, योग में स्थित हो,
सदैव योग स्वरूप हो और शुद्ध हो—
वही आचार्य कहलाता है।
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जो गुरु भक्ति से युक्त हो और पुरुषों का ज्ञान रखने वाला हो,
वह विशेष रूप से योग्य आचार्य माना जाता है।
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गुरु शब्द का वास्तविक अर्थ—
"गु" का अर्थ अंधकार (अज्ञान) होता है।
"रु" का अर्थ उसे नष्ट करने वाला होता है।
अतः जो अज्ञान को समाप्त करता है, वह गुरु कहलाता है।
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गुरु ही परम ब्रह्म है।
गुरु ही परमगति है।
गुरु ही परम विद्या है।
गुरु ही परम आश्रय है।
गुरु ही परा काष्ठा (उच्चतम लक्ष्य) है।
गुरु ही परम धन है।
जो ब्रह्मज्ञान का उपदेश देता है, वही सबसे महान गुरु है।
(१९) ग्रंथ अध्ययन का फल
जो इस उपनिषद् का केवल एक बार भी उच्चारण करता है, वह संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है।
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इसका अध्ययन करने से—
समस्त जन्मों के संचित पाप तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं।
समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं।
सभी पुरुषार्थों की सिद्धि प्राप्त होती है।
जो इस ज्ञान को जानता है, वही वास्तव में मुक्त हो जाता है।
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॥ इति उपनिषत् ॥