Atharvashikha Upanishad is a profound text from the Atharvaveda, revealing esoteric knowledge about the Supreme Self (Paramatma) and the union of Shiva and Shakti. It explores the secrets of meditation, Kundalini awakening, and spiritual liberation, guiding seekers toward self-realization and ultimate bliss. This Upanishad emphasizes divine consciousness, transcendence, and inner awakening, offering a path to enlightenment and eternal peace. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ओङ्कार के अर्थ को प्रकाशित करने वाला, तुरीय अवस्था में देदीप्यमान, तीनों अवस्थाओं से परे त्रिपाद रूप में स्थित, रामस्वरूप उस दिव्य सत्ता का मैं नित्य ध्यान करता हूँ।
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
हे देवों! हम अपने कानों से शुभ सुनें, आँखों से मंगलदायक दृश्य देखें, सशक्त इंद्रियों और स्वस्थ शरीर के साथ देवताओं द्वारा प्रदान की गई आयु का सदुपयोग करें। इन्द्र, पूषा, तार्क्ष्य और बृहस्पति हमें कल्याण प्रदान करें।
ऋषि पैप्पलाद ने अंगिरा एवं सनत्कुमार के साथ महर्षि अथर्वण से प्रश्न किया—
भगवन्! सबसे पहले किस ध्यान का अभ्यास करना चाहिए? ध्यान क्या है? ध्यान करने वाला कौन है और ध्यान का विषय कौन है?
महर्षि अथर्वण ने उत्तर दिया—
सर्वप्रथम जिस अक्षर का ध्यान किया जाना चाहिए, वह ओंकार है। यही परम ब्रह्म है, इसके चार पाद (भाग) हैं और यह चारों वेदों से संबद्ध है। यह अक्षर ही परम सत्य है।
इसका प्रथम भाग 'अ' पृथ्वी तत्व का प्रतीक है, ऋग्वेद से संबंधित है, ब्रह्मा एवं वसुओं से जुड़ा है, गायत्री छंद में व्याप्त है और गार्हपत्य अग्नि का प्रतिनिधित्व करता है।
द्वितीय भाग 'उ' अंतरिक्ष का द्योतक है, यजुर्वेद से संबंधित है, विष्णु एवं रुद्र से जुड़ा है, त्रिष्टुप छंद में व्याप्त है और दक्षिणाग्नि का प्रतीक है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तृतीय भाग 'म' द्युलोक का प्रतिनिधित्व करता है, सामवेद से संबंधित है, रुद्र एवं आदित्य देवताओं से जुड़ा है, जगती छंद में व्याप्त है और आहवनीय अग्नि का स्वरूप है।
चतुर्थ भाग (अर्धमात्रा) समस्त ब्रह्मांड की पूर्णता को दर्शाता है। यह अथर्ववेद से संबंधित है, संहारकारी अग्नि से जुड़ा है, मरुतों द्वारा पूजित है और समस्त लोकों में व्याप्त है।
इस ओंकार के चार भागों की विशेषताएँ इस प्रकार हैं
प्रथम भाग रक्त एवं पीले वर्ण में प्रकाशित है और ब्रह्म तत्व से संबद्ध है।
द्वितीय भाग विद्युत-ज्योति के समान चमकता हुआ काला है और विष्णु तत्व से संबंधित है।
तृतीय भाग शुभ-अशुभ दोनों का प्रतिनिधित्व करता हुआ श्वेत है और रुद्र से संबद्ध है।
चतुर्थ (अर्धमात्रा) समस्त रंगों में प्रकाशित, दिव्य विद्युतमयी है और पुरुष तत्व से संबद्ध है।
अतः ओंकार स्वयं चतुर्वर्णमय, चतुराक्षरमय, चतुष्पादयुक्त और चार मुखों से विभूषित है। यह स्थूल, ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत—सभी रूपों में प्रकट होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ॐ ॐ ॐ—इसका तीन बार उच्चारण करने के बाद चतुर्थ स्थिति में आत्मा पूर्णतः शांत हो जाता है। जब प्रणव (ॐ) का अप्लुत प्रयोग किया जाता है, तब समस्त मोह समाप्त हो जाता है और आत्मज्योति प्रकाशित होती है। यह ओंकार, जो एक बार उच्चारित होने पर भी पूर्ण प्रभाव उत्पन्न करता है, समस्त अन्नमय को ऊर्ध्वगामी बना देता है।
यह समस्त प्राणों को अपने भीतर विलीन कर देता है, इसे ही प्रलय कहा गया है। यह समस्त प्राणों को परमात्मा में प्रवाहित कर देता है, इसलिए इसे प्रणव कहा गया है। चतुर्थ अवस्था में स्थित यह ओंकार समस्त देवताओं और वेदों की उत्पत्ति का स्रोत है। समस्त वाच्य वस्तुएँ प्रणव रूप में ही प्रतिष्ठित हैं।
देवता सभी प्राणियों की रक्षा के लिए संकल्पबद्ध होते हैं। यह दुःख और भय से तारने वाला है, इसलिए इसे 'तार' कहा गया है। समस्त देवता इसमें स्थित होते हैं, इसलिए यह 'विष्णु' कहलाता है। यह समस्त वस्तुओं को विकसित करता है, इसलिए इसे 'ब्रह्मा' कहा गया है। यह ध्यानयोगियों को प्रदीप के समान प्रकाशित करता है, इसलिए इसे 'प्रकाश' कहा गया है।
इस प्रकाश से उत्पन्न ओंकार, शरीर के भीतर विद्युत ज्योति के समान प्रकाशित होता है। यह प्रत्येक क्षण दिशाओं को भेदते हुए समस्त लोकों को व्याप्त कर लेता है। व्यापकता के कारण ही इसे 'महादेव' कहा जाता है।
इसके प्रथम भाग (अ) में जाग्रत अवस्था निहित है। द्वितीय भाग (उ) स्वप्न अवस्था को दर्शाता है। तृतीय भाग (म) सुषुप्ति अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है। और चतुर्थ भाग तुरीय अवस्था को प्रकट करता है।
यह आत्मा स्वयंप्रकाशित और स्वयं ब्रह्मस्वरूप है। यही ध्यान का सर्वोच्च साधन है, क्योंकि यह समस्त इंद्रियों के उपसंहार और धारण करने की शक्ति से संपन्न है। तुरीय ब्रह्म ही संपूर्ण ध्यान का सार है।
जब समस्त करणों को मन में स्थापित किया जाता है, तो ध्यान 'विष्णु' स्वरूप हो जाता है। जब प्राणों और करणों को मन में एकाग्र किया जाता है, तो ध्यान करने वाला 'रुद्र' स्वरूप हो जाता है। जब नाद के अंत में प्राण और करण परमात्मा में लय होते हैं, तब ध्यान करने वाला 'ईशान' स्वरूप प्राप्त करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यही वह ध्यान है, जिससे संपूर्ण ब्रह्म, विष्णु, रुद्र और इंद्र उत्पन्न होते हैं। समस्त इंद्रियाँ और भूत इनसे प्रकट होते हैं। परंतु कारणों का कारण केवल 'ध्येय' है। ध्यान करने वाला 'कारण' नहीं होता, बल्कि ध्यान का विषय ही कारणस्वरूप होता है।
जो व्यक्ति शिवतत्व का ध्यान करता है, वह समस्त ऐश्वर्य से संपन्न हो जाता है। आकाश के मध्य स्थित वह शिवस्वरूप स्थिर एवं अचल है। जो व्यक्ति केवल एक क्षण के लिए भी इस ध्यान में स्थित होता है, वह सौ यज्ञों के फल के समान पुण्य प्राप्त कर लेता है।
ओंकार ही समस्त ध्यान, योग और ज्ञान का परम फल है। केवल यही वेदों का सार है, यही परब्रह्म है। परमेश्वर केवल एक ही है—शिव, जो ध्यान करने योग्य है। शिव ही परम कल्याणकारी हैं।
जो कोई अन्य समस्त साधनों को त्यागकर इस अथर्वशिखोपनिषद् का अध्ययन करता है, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह सत्य है, यही उपनिषद का परम रहस्य है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
॥ इति अथर्ववेदीय अथर्वशिखोपनिषत्समाप्ता ॥