क्या आप हज़ारों साल पुराने उस राज़ को जानना चाहेंगे, जो आपकी सोच को हमेशा के लिए बदल सकता है? क्या हो अगर मैं आपसे कहूँ कि आज से हज़ारों साल पहले हमारे ऋषियों ने ज़िंदगी का एक ऐसा नक्शा तैयार कर लिया था, जो आज भी, इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, आपको सच्ची शांति और कामयाबी दिला सकता है?
हम सब ख़ुशी को बाहर ढूँढ़ते हैं - एक नई नौकरी में, बेहतर रिश्तों में, या ज़्यादा पैसों में। हम एक कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ में भाग रहे हैं, इस उम्मीद में कि अगले मोड़ पर हमें वह मंज़िल मिल जाएगी जिसका नाम है 'शांति'। पर हम जितना तेज़ भागते हैं, शांति उतनी ही दूर चली जाती है। तनाव, चिंता, अकेलापन और एक अजीब सा खालीपन, जैसे हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है। हम हर रोज़ ख़ुद से यही सवाल करते हैं - क्या ज़िंदगी बस इतनी ही है? क्या इस लगातार चलती लड़ाई का कोई अंत है?
इसका जवाब है, 'हाँ'। और ये जवाब छिपा है भारत के सबसे गहरे और शक्तिशाली ग्रंथों में - उपनिषदों में। ये सिर्फ़ किताबें नहीं हैं, ये चेतना का समंदर हैं। 108 से भी ज़्यादा उपनिषद, जिन्हें वेदों का सार यानी 'वेदांत' भी कहा जाता है, हमें ज़िंदगी को देखने का एक बिल्कुल नया नज़रिया देते हैं।
आज, हम उसी समंदर में एक डुबकी लगाएंगे। हम 108 उपनिषदों के ज्ञान से उन पाँच सबसे ताक़तवर सिद्धांतों को निकालेंगे जो आपकी सोच को जड़ से बदल सकते हैं। ये कोई भारी-भरकम लेक्चर नहीं होगा, बल्कि ये आपके लिए, आपकी ज़िंदगी के लिए, आपकी परेशानियों का एक प्रैक्टिकल गाइड होगा। तो अगले कुछ मिनटों के लिए, दुनिया की सारी चिंताएँ एक तरफ़ रख दीजिए और मेरे साथ इस सफ़र पर चलिए। ये सफ़र आपको बाहर की दुनिया से आपके अंदर की दुनिया की ओर ले जाएगा, जहाँ असली शांति और आनंद का खज़ाना मौजूद है।
हमारा सबसे पहला और शायद सबसे क्रांतिकारी सिद्धांत छांदोग्य उपनिषद से आता है: "तत् त्वम् असि"। इसका सीधा सा मतलब है - "तुम वही हो"।
ये तीन शब्द आपके होने के पूरे एहसास को बदल सकते हैं। लेकिन इसका असली मतलब है क्या? उपनिषद कहते हैं कि इस ब्रह्मांड की जो असली शक्ति है, जिसे 'ब्रह्म' कहा गया है - वो परम चेतना, वो ऊर्जा जो सितारों को चलाती है, ग्रहों को घुमाती है, और ज़िंदगी बनाती है - तुम उससे अलग नहीं हो। तुम उसी का एक हिस्सा हो, उसी का एक रूप हो।
इसे ऐसे समझिए। समंदर की एक लहर को देखिए। क्या वो लहर समंदर से अलग है? नहीं। वो समंदर से ही बनी है और आख़िर में उसी में मिल जाएगी। उसका रूप अलग हो सकता है, उसका नाम अलग हो सकता है, लेकिन उसका असली वजूद तो समंदर ही है। बिल्कुल इसी तरह, हम सब उस ब्रह्मांड की चेतना के सागर की लहरें हैं। हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी पहचान, ये सब उस लहर के रूप जैसे हैं, लेकिन हमारी आत्मा, हमारा सच्चा 'मैं', वो सागर ही है।
आज की दुनिया में हम ख़ुद को कितना छोटा महसूस करते हैं। हम अपनी कमज़ोरियों, अपनी ग़लतियों, अपनी सीमाओं से ख़ुद को पहचानते हैं। "मैं उतना अच्छा नहीं हूँ," "मुझमें ये कमी है," "मैं ये कर ही नहीं सकता।" ये एहसास, ये 'इम्पोस्टर सिंड्रोम', हमारे अंदर तक बैठ गया है। ये हमें बड़े सपने देखने से रोकता है और हमें अपनी ही बनाई हुई ज़ंजीरों में क़ैद रखता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
"तत् त्वम् असि" इस पूरी सोच पर एक हथौड़े की तरह चोट करता है। ये आपको याद दिलाता है कि आप सिर्फ़ ये शरीर या ये मन नहीं हैं। आप अनंत संभावनाओं का खज़ाना हैं। आपके अंदर वही शक्ति है जो पूरे ब्रह्मांड को चला रही है। जब आप इस सच को गहराई से महसूस करने लगते हैं, तो शक और हीनता की भावना पिघलने लगती है।
इसकी एक बहुत सुंदर कहानी है। एक शेर का बच्चा पैदा होते ही अपनी माँ से बिछड़ गया और भेड़ों के झुंड में पलने लगा। वो भेड़ों की तरह 'मैं-मैं' करने लगा, घास खाने लगा, और उन्हीं की तरह डरपोक बन गया। वो ख़ुद को भेड़ ही समझता था। एक दिन, एक बूढ़े शेर ने उसे देखा। वो हैरान हुआ कि एक शेर भेड़ों की तरह क्यों जी रहा है। वो उस जवान शेर के पास गया, लेकिन वो डरकर भागने लगा। बूढ़े शेर ने उसे पकड़ा और एक शांत तालाब के किनारे ले गया। उसने कहा, "पानी में अपनी परछाई देखो।" जब जवान शेर ने पानी में देखा, तो उसे दो चेहरे दिखे - एक बूढ़े, ताक़तवर शेर का और दूसरा ख़ुद का, जो बिल्कुल वैसा ही था।
बूढ़े शेर ने कहा, "तुम भेड़ नहीं हो। तुम मेरी तरह एक शेर हो। तुम्हारी आवाज़ 'मैं-मैं' नहीं, एक दहाड़ है।" और फिर बूढ़े शेर ने एक ज़ोरदार दहाड़ लगाई जो पूरे जंगल में गूँज उठी। उस दहाड़ को सुनकर जवान शेर के अंदर कुछ जागा। उसने भी हिम्मत करके दहाड़ने की कोशिश की, और उसके मुँह से एक शक्तिशाली दहाड़ निकली। उस एक पल में, उसका सारा भ्रम टूट गया। उसे अपनी असली पहचान मिल गई।
हम सब उस शेर के बच्चे की तरह हैं, जो समाज और अपनी ग़लत सोच के बीच ख़ुद को एक भेड़ समझकर जी रहे हैं। "तत् त्वम् असि" वो बूढ़ा शेर है जो हमें हमारी असली पहचान याद दिला रहा है। अगली बार जब आप ख़ुद को कमज़ोर या छोटा महसूस करें, तो इन तीन शब्दों को याद करिएगा। अपनी आँखें बंद करें, एक गहरी साँस लें, और ख़ुद से कहें: "अहं ब्रह्मास्मि" - मैं ब्रह्म हूँ। मैं अनंत हूँ। मैं शक्तिशाली हूँ। ये सिर्फ़ कोई पॉजिटिव सोच नहीं है; ये इस ब्रह्मांड का सबसे बड़ा सच है। इस सच को जीना ही ख़ुद को जानने की तरफ़ पहला क़दम है।
हमारा दूसरा सिद्धांत ईश उपनिषद के पहले ही श्लोक से आता है: "ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्"। इसका मतलब है - "इस ब्रह्मांड में जो कुछ भी है, चाहे वो चल रहा हो या स्थिर हो, वो सब ईश्वर से ही बना है, उसी से ढका हुआ है।"
ये एक बहुत गहरी बात है। इसका मतलब है कि इस दुनिया में कुछ भी 'साधारण' या 'अपवित्र' नहीं है। जिस हवा में हम साँस लेते हैं, जो पानी हम पीते हैं, जिस धरती पर हम चलते हैं, हर इंसान, हर जानवर, हर पेड़, हर कण - सब कुछ उस दिव्य चेतना से भरा हुआ है। ईश्वर कहीं दूर आसमान में नहीं बैठा; वो यहीं है, अभी है, हर चीज़ में मौजूद है।
जब हम इस नज़रिए को अपनाते हैं, तो हमारा ज़िंदगी के प्रति रवैया पूरी तरह बदल जाता है। आज की दुनिया हमें चीज़ों का 'मालिक' बनना सिखाती है। मेरा घर, मेरी कार, मेरा पैसा, मेरी नौकरी। हम इन चीज़ों से अपनी पहचान बना लेते हैं। और क्योंकि हम ख़ुद को इनका मालिक समझते हैं, हमें इन्हें खोने का डर हमेशा लगा रहता है। यही डर, यही असुरक्षा हमारे सारे दुखों की जड़ है। हम चीज़ों को इकट्ठा करने में अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देते हैं, और फिर उनकी रक्षा करने की चिंता में घुलते रहते हैं।
उपनिषद एक दूसरा रास्ता सुझाता है। वो कहता है, "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः" - त्याग के साथ भोग करो। इसका मतलब ये नहीं है कि आप सब कुछ छोड़कर जंगल चले जाएँ। इसका मतलब है 'मालिक होने के एहसास' को त्यागो। दुनिया की चीज़ों का इस्तेमाल करो, उनका आनंद लो, लेकिन एक ट्रस्टी या केयरटेकर की तरह, मालिक की तरह नहीं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
इसे ऐसे समझिए: आप एक ख़ूबसूरत बगीचे में घूमने जाते हैं। आप फूलों की सुंदरता का मज़ा लेते हैं, उनकी ख़ुशबू महसूस करते हैं, ठंडी हवा का आनंद लेते हैं। आप उस अनुभव से ख़ुश होते हैं, लेकिन आप उन फूलों को तोड़कर अपनी जेब में नहीं भरते। आप ये दावा नहीं करते कि ये बगीचा आपका है। आप बस एक शुक्रगुज़ार दिल से उसका आनंद लेते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
ठीक इसी तरह, हमें ज़िंदगी का आनंद लेना है। ये शरीर, ये परिवार, ये पैसा, ये कामयाबी - ये सब हमें कुछ समय के लिए ईश्वर के दिए हुए तोहफ़े हैं। हमें इनकी देखभाल करनी है, इनका सही इस्तेमाल करना है, लेकिन इनसे चिपकना नहीं है। क्योंकि जिस दिन हम इनसे चिपकते हैं, उसी दिन दुख का बीज बो दिया जाता है।
राजा जनक की कहानी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वो मिथिला के राजा थे, उनके पास बेशुमार दौलत और ताक़त थी। लेकिन साथ ही वो एक आत्म-ज्ञानी भी थे। वो राजसी कपड़े पहनते थे, महल में रहते थे, और अपनी सारी दुनियावी ज़िम्मेदारियाँ निभाते थे, लेकिन अंदर से वो पूरी तरह अनासक्त थे। वो जानते थे कि ये सब कुछ उनका नहीं है, वो केवल इसके रखवाले हैं। एक बार उनके महल में आग लग गई। सब लोग घबराकर भागने लगे, अपना कीमती सामान बचाने की कोशिश करने लगे। लेकिन राजा जनक शांत बैठे रहे। किसी ने हैरानी से पूछा, "महाराज, आपका महल जल रहा है और आप इतने शांत हैं?"
राजा जनक ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे किञ्चन दह्यते।" - "अगर पूरी मिथिला भी जल जाए, तो भी मेरा कुछ नहीं जलता।"
सोचिए, ये वैराग्य का कैसा स्तर होगा। ये समझ कि हमारा असली रूप आत्मा है, और आत्मा को न आग जला सकती है, न पानी गीला कर सकता है। जब आप हर चीज़ में ईश्वर को देखना शुरू करते हैं, तो आप चीज़ों का सम्मान करना सीखते हैं। आप प्रकृति का सम्मान करते हैं क्योंकि वो दिव्य है। आप दूसरे इंसानों का सम्मान करते हैं क्योंकि उनमें भी वही ईश्वर है। आपकी शिकायतें कम हो जाती हैं और शुक्राना बढ़ जाता है। आपको जो मिला है, उसके लिए आप आभारी होते हैं, और जो नहीं मिला, उसका आपको कोई अफ़सोस नहीं होता।
तो अगली बार जब आप अपनी कार चला रहे हों, अपने घर में बैठे हों, या अपने परिवार के साथ हों, तो एक पल के लिए रुकें। और याद करें कि ये सब कुछ एक पवित्र तोहफ़ा है। इसका आनंद लें, इसकी देखभाल करें, लेकिन मालिक होने के एहसास के बिना। यही सच्ची आज़ादी और कभी न ख़त्म होने वाली शांति का रास्ता है।
हमारा तीसरा सिद्धांत कर्म के उस रहस्य को खोलता है जो हमें अक्सर एक जाल की तरह लगता है। ये सिद्धांत, जिसे भगवद्गीता में ख़ासतौर पर समझाया गया है, उसकी जड़ें उपनिषदों में ही हैं। ये है 'निष्काम कर्म' - यानी, फल की इच्छा या लगाव के बिना अपने कर्तव्य को पूरा करना।
हमारी पूरी ज़िंदगी कर्म पर ही तो टिकी है। हम पढ़ाई करते हैं अच्छे नंबरों के लिए। हम काम करते हैं पैसे और प्रमोशन के लिए। हम रिश्ते निभाते हैं प्यार और सम्मान पाने के लिए। हर काम के पीछे एक उम्मीद छिपी होती है। और समस्या यहीं से शुरू होती है। जब हमारी उम्मीदें पूरी होती हैं, तो हमें थोड़ी देर की ख़ुशी मिलती है। लेकिन जब वे पूरी नहीं होतीं - और अक्सर ऐसा ही होता है - तो हमें निराशा, ग़ुस्सा, और दुख होता है। हमारा मानसिक सुकून पूरी तरह से बाहरी नतीजों पर टिक जाता है। हम कठपुतलियों की तरह बन जाते हैं जिनकी डोर कामयाबी और नाकामी के हाथों में होती है।
उपनिषद कहते हैं कि कर्म करने में तुम्हारा अधिकार है, लेकिन उसके फल पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" इसका मतलब ये नहीं है कि आप लक्ष्य बनाना छोड़ दें या बेहतर करने की कोशिश न करें। इसका मतलब है कि आप अपना बेस्ट दें, अपनी पूरी क्षमता और ईमानदारी से अपना काम करें, लेकिन नतीजा ईश्वर पर या क़िस्मत पर छोड़ दें।
एक सर्जन के बारे में सोचिए। जब वो ऑपरेशन थिएटर में होता है, तो उसका पूरा ध्यान अपने काम पर, अपने हर एक स्टेप पर होता है। वो अपना 100% देता है। वो उस समय ये नहीं सोचता कि मरीज़ उसे कितनी फ़ीस देगा, या अख़बार में उसकी तारीफ़ छपेगी या नहीं। अगर वो ऐसा सोचेगा, तो उसका हाथ काँप जाएगा और वो अपना काम ठीक से नहीं कर पाएगा। उसका धर्म है अपना कर्म पूरी कुशलता से करना। नतीजा उसके हाथ में नहीं है।
यही निष्काम कर्म का सार है। जब आप काम की प्रक्रिया में आनंद लेना सीखते हैं, न कि सिर्फ़ नतीजे में, तो आप एक अद्भुत आज़ादी महसूस करते हैं। नाकामी का डर ग़ायब हो जाता है, क्योंकि आपकी ख़ुशी अब नतीजे से बंधी नहीं है। आप काम इसलिए करते हैं क्योंकि वो आपका कर्तव्य है, आपका धर्म है, और उसे करने में ही एक अंदरूनी सुकून है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
ये सिद्धांत आज के छात्रों और पेशेवरों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है। परीक्षा का तनाव, परफ़ॉर्मेंस का दबाव, टारगेट पूरा करने की चिंता - इन सबने हमारी मानसिक शांति छीन ली है। हम काम को एक बोझ की तरह देखते हैं, एक ऐसी चीज़ जिसे ख़त्म करके हमें कुछ 'पाना' है।
निष्काम कर्म इस पूरी सोच को ही पलट देता है। यह कहता है कि काम अपने आप में एक इनाम है। जब आप सीखने के लिए पढ़ते हैं, न कि सिर्फ़ पास होने के लिए, तो पढ़ाई मज़ेदार हो जाती है। जब आप उत्कृष्टता के लिए काम करते हैं, न कि सिर्फ़ प्रमोशन के लिए, तो काम एक साधना बन जाता है।
इसे अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कैसे लाएँ? जब भी आप कोई काम शुरू करें, तो एक पल के लिए ख़ुद को याद दिलाएँ: "मेरा काम है अपना बेस्ट देना। नतीजा जो भी होगा, मैं उसे स्वीकार करूँगा।" अपना ध्यान 'क्या मिलेगा' से हटाकर 'मैं क्या दे सकता हूँ' पर ले आएँ। जब आप इस सोच के साथ काम करते हैं, तो आप न केवल ज़्यादा असरदार और रचनात्मक बनते हैं, बल्कि आप एक गहरी अंदरूनी शांति भी महसूस करते हैं जो किसी भी बाहरी कामयाबी से कहीं बढ़कर है। आपका काम आपकी पूजा बन जाता है, और आपकी ज़िंदगी एक उत्सव।
हमारा चौथा सिद्धांत ज़िंदगी के सबसे बड़े डर - यानी मौत - को संबोधित करता है। कठोपनिषद में नचिकेता और यमराज के बीच हुए अद्भुत संवाद से यह ज्ञान हमारे सामने आता है। ये सिद्धांत है कि 'आत्मा' - आपका असली स्वरूप - न कभी पैदा होता है, न कभी मरता है। वो अजर, अमर और हमेशा रहने वाला है।
कहानी कुछ यूँ है: नचिकेता नाम का एक युवा लड़का अपने पिता के यज्ञ से नाराज़ होकर यमराज, यानी मृत्यु के देवता, के दरवाज़े पर पहुँच जाता है। यमराज उसकी लगन देखकर ख़ुश होते हैं और उसे तीन वरदान माँगने को कहते हैं। पहले दो वरदानों के बाद, नचिकेता तीसरा और सबसे गहरा सवाल पूछता है: "मौत के बाद इंसान का क्या होता है? क्या कुछ बचता है, या सब कुछ ख़त्म हो जाता है?"
यमराज पहले तो इस सवाल का जवाब देने से हिचकिचाते हैं। वे नचिकेता को दुनिया के सारे सुख, लंबी उम्र, धन-दौलत का लालच देते हैं और कहते हैं कि ये राज़ जानना तो देवताओं के लिए भी मुश्किल है। लेकिन नचिकेता अपनी बात पर अड़ा रहता है। वो कहता है कि ये सारे सुख तो पल भर के हैं, और उसे केवल सच जानना है।
उसकी इस ज़िद को देखकर, यमराज आख़िरकार उसे आत्मा का रहस्य बताते हैं। वे कहते हैं:
"न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥"
यानी, "ये आत्म-तत्व न तो जन्म लेता है और न ही मरता है। ये न किसी से पैदा हुआ है और न ही इससे कोई पैदा हुआ है। ये अजन्मा, नित्य, हमेशा रहने वाला और सबसे पुराना है। शरीर के मारे जाने पर भी ये नहीं मारा जाता।"
ये एक अकेली सोच आपकी पूरी ज़िंदगी बदल सकती है। हम सिर्फ़ मौत से ही नहीं डरते; हम हर तरह के 'अंत' से डरते हैं। हम नौकरी खोने से डरते हैं, रिश्ता टूटने से डरते हैं, सेहत बिगड़ने से डरते हैं, बदलाव से डरते हैं। हर अंत हमें एक छोटी मौत जैसा लगता है। ये डर हमें चीज़ों और लोगों से बुरी तरह चिपकने पर मजबूर करता है, और हमें आज में जीने से रोकता है। हम हमेशा भविष्य की चिंता में रहते हैं कि कहीं कुछ 'ख़त्म' न हो जाए।
उपनिषद का ये सिद्धांत हमें यकीन दिलाता है कि हमारा असली 'मैं' कभी ख़त्म नहीं हो सकता। शरीर एक कपड़े की तरह है जिसे आत्मा एक जीवन के लिए पहनती है, और जब ये कपड़ा पुराना या फट जाता है, तो आत्मा इसे उतारकर नया कपड़ा पहन लेती है। मौत अंत नहीं, सिर्फ़ एक बदलाव है, एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव का सफ़र।
जब ये समझ हमारे अंदर गहरी उतरती है, तो डर की पकड़ ढीली पड़ जाती है। हम ज़िंदगी को ज़्यादा हिम्मत और खुलेपन के साथ जीना सीखते हैं। हम जोखिम उठाने से नहीं डरते, क्योंकि हम जानते हैं कि हमारी असली पहचान पर किसी भी नतीजे का असर नहीं हो सकता। हम रिश्तों को ज़्यादा आज़ादी से जी पाते हैं, क्योंकि हम जानते हैं कि जिस्मानी दूरी आत्मा के जुड़ाव को ख़त्म नहीं कर सकती। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यह हमें किसी अपने को खोने के दुख से उबरने की भी ताक़त देता है। जब हम किसी प्रियजन को खोते हैं, तो दुख होना स्वाभाविक है। लेकिन इस ज्ञान के साथ, हम ये भी समझते हैं कि हमने केवल उनके शरीर को खोया है, उनकी आत्मा, उनकी चेतना, हमेशा ज़िंदा है।
तो, अगली बार जब डर आपके मन पर हावी होने लगे - चाहे वो मौत का डर हो या किसी और चीज़ के ख़त्म होने का - तो नचिकेता के इस ज्ञान को याद करें। अपनी आँखें बंद करें और अपने अंदर उस हमेशा रहने वाली, कभी न मिटने वाली मौजूदगी को महसूस करने की कोशिश करें। आप वो लहर नहीं हैं जो किनारे पर आकर टूट जाती है; आप वो गहरा, शांत समंदर हैं जो हमेशा रहता है। ये एहसास आपको उस असीम शांति और निडरता से भर देगा जो किसी भी बाहरी हालात पर निर्भर नहीं है।
हमारा पाँचवाँ और आख़िरी सिद्धांत ऐतरेय उपनिषद के महावाक्य "प्रज्ञानं ब्रह्म" से आता है। इसका अर्थ है - "चेतना ही ब्रह्म है," या "शुद्ध जागरूकता (Awareness) ही सबसे बड़ी सच्चाई है।"
ये सिद्धांत हमें बताता है कि जिस चेतना की वजह से आप इस पल इन शब्दों को पढ़ और समझ पा रहे हैं, वही चेतना इस ब्रह्मांड का आधार है। ये कोई मामूली बात नहीं है। ये हमें हमारे वजूद के केंद्र में ले जाता है। अब तक हमने बात की कि 'तुम वही हो' (तत् त्वम् असि), लेकिन ये सिद्धांत बताता है कि 'वह' आख़िर है क्या। 'वह' है - शुद्ध चेतना, यानी Pure Consciousness।
हम आमतौर पर ख़ुद को अपने विचारों, अपनी भावनाओं, अपनी यादों, और अपने शरीर से जोड़ते हैं। हम कहते हैं, "मैं ख़ुश हूँ," "मैं दुखी हूँ," "मैं सोच रहा हूँ।" लेकिन उपनिषद एक गहरा सवाल पूछते हैं: वो कौन है जो जानता है कि आप ख़ुश हैं? वो कौन है जो ये देख रहा है कि आप सोच रहे हैं?
एक साक्षी है। एक शांत, स्थिर जागरूकता है जो आपके हर विचार, हर भावना, और हर अनुभव के पीछे मौजूद है, ठीक वैसे ही जैसे एक सिनेमा का पर्दा होता है जिस पर पूरी फ़िल्म चलती है। फ़िल्म में ख़ुशी के सीन भी होते हैं और दुख के भी, लेकिन पर्दे पर उन सबका कोई असर नहीं होता। वो बस एक ख़ाली कैनवास है जो हर चीज़ को होने की जगह देता है।
'प्रज्ञानं ब्रह्म' कहता है कि आप वो फ़िल्म नहीं हैं, आप वो पर्दा हैं। आप वो साक्षी चेतना हैं। आपके विचार आते-जाते रहते हैं, भावनाएँ बदलती रहती हैं, शरीर बूढ़ा होता है, हालात बदलते हैं - लेकिन वो जानने वाली 'चेतना' हमेशा एक जैसी रहती है। जब आप बच्चे थे, तब भी वही चेतना थी; आज भी वही है; और भविष्य में भी वही रहेगी।
इसी साक्षी भाव को साधना ही ध्यान का असली मतलब है। जब आप अपनी आँखें बंद करके बैठते हैं और अपने विचारों को बिना टोका-टाकी के बस देखते हैं, तो आप धीरे-धीरे अपने विचारों से अपनी पहचान हटाना शुरू कर देते हैं। आप ये महसूस करने लगते हैं कि आप सोचने वाले नहीं, बल्कि विचारों को देखने वाले हैं। ये दूरी, ये अलगाव, आपको ज़बरदस्त शांति और स्पष्टता देता है।
आज की दुनिया में हमारा मन लगातार शोर से भरा रहता है। सोशल मीडिया की सूचनाएँ, काम का तनाव, भविष्य की चिंताएँ, अतीत के पछतावे - ये शोर हमें कभी शांत नहीं होने देता। हम अपनी ही दिमागी बकवास में खोए रहते हैं। ये चीज़ें हमें रिएक्टिव बना देती हैं। किसी ने कुछ कहा, और हमें तुरंत ग़ुस्सा आ गया। कोई स्थिति बदली, और हम तुरंत चिंतित हो गए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
साक्षी चेतना का अभ्यास हमें रिएक्टिव होने के बजाय सचेत (conscious) बनाता है। जब कोई नकारात्मक विचार या भावना उठती है, तो आप उसके साथ बहने के बजाय, उसे एक बादल की तरह आते और जाते हुए देख सकते हैं। आप चुन सकते हैं कि आपको इस पर प्रतिक्रिया देनी है या नहीं। ये चुनने की शक्ति ही सच्ची आज़ादी है।
जाग्रत: जब हम बाहरी दुनिया के प्रति सचेत होते हैं।
स्वप्न: जब हम अपनी अंदर की, सपनों की दुनिया के प्रति सचेत होते हैं।
सुषुप्ति: गहरी नींद की अवस्था, जहाँ कोई विचार नहीं होता, बस शांति होती है।
तुरीय: वो शुद्ध साक्षी चेतना जो इन तीनों अवस्थाओं के पार है, लेकिन इन तीनों में मौजूद भी है। यही अवस्था 'ब्रह्म' है, परम शांति और एकता का अनुभव।
इस सिद्धांत को जीवन में उतारने का सबसे सरल तरीक़ा है 'माइंडफुलनेस' का अभ्यास। आप जो कुछ भी कर रहे हैं, उसे पूरी जागरूकता के साथ करें। जब आप खाना खा रहे हैं, तो सिर्फ़ खाना खाएँ, उसके हर स्वाद, हर ख़ुशबू को महसूस करें। जब आप चल रहे हैं, तो अपने क़दमों और अपनी साँसों पर ध्यान दें। दिन में कुछ मिनट निकालकर शांत बैठें और अपनी साँसों को आते-जाते देखें। ये छोटे-छोटे अभ्यास आपके और आपके मन के बीच एक दूरी बनाएँगे, और आपको उस शांत, स्थिर साक्षी से जोड़ेंगे जो आप वाक़ई में हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
ये समझना कि आप शुद्ध चेतना हैं, आपको सभी सीमाओं से आज़ाद करता है। आप सिर्फ़ एक इंसान नहीं हैं; आप वो ख़ाली जगह हैं जिसमें पूरा ब्रह्मांड घटित हो रहा है। यही ज्ञान का शिखर है, और यही स्थायी आनंद की चाबी है।
तत् त्वम् असि: तुम ब्रह्मांड की अनंत शक्ति हो, कोई मामूली इंसान नहीं।
ईशा वास्यमिदं सर्वं: सब कुछ पवित्र है, इसलिए चीज़ों को एक रखवाले की तरह इस्तेमाल करो, मालिक की तरह नहीं।
निष्काम कर्म: अपना बेस्ट करो और नतीजे की चिंता छोड़ दो। काम करने में ही मज़ा खोजो।
आत्मा अमर है: तुम शरीर नहीं, हमेशा रहने वाली आत्मा हो। मौत और अंत का डर बेकार है।
प्रज्ञानं ब्रह्म: तुम शुद्ध चेतना हो, अपने विचारों और भावनाओं के शांत दर्शक।
ये सिद्धांत केवल किताबी बातें नहीं हैं; ये ज़िंदगी जीने के तरीक़े हैं। ये हमें याद दिलाते हैं कि सच्ची ख़ुशी, सच्ची शांति और सच्ची आज़ादी कहीं बाहर नहीं है। वो हमारे अंदर है, हमारे असली स्वरूप को खोजने में छिपी है। उपनिषद हमें किसी बाहरी भगवान पर निर्भर होने को नहीं कहते, बल्कि वे हमें अपने अंदर की दिव्यता को जगाने के लिए कहते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
याद रखिए, आप शांति की तलाश में नहीं हैं, आप ख़ुद ही शांति हैं। आपको बस अपनी आँखें खोलकर उसे देखना है।
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