The Annapurna Upanishad is a powerful and profound scripture rooted in the wisdom of Advaita Vedanta, guiding sincere seekers toward self-realization, Jivanmukti, and deep inner renunciation. This ancient Upanishad unveils the highest teachings of non-duality, declaring the Self as Brahman—pure consciousness, eternal and beyond birth or death. Through the Annapurna Upanishad, one gains true Brahma Gyan, freedom from ego, and clarity on the direct path to liberation. The Annapurna Upanishad is a rare gem for those walking the spiritual path of Advaita Vedanta, dissolving illusion and revealing the ever-present truth of the Self. Dive into the Annapurna Upanishad and awaken to your boundless, blissful nature. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सर्वापह्नवसंसिद्धब्रह्ममात्रतयोज्ज्वलम् ।
त्रैपदं श्रीरामतत्त्वं स्वमात्रमिति भावये ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
जो समस्त अप्रमाणनाओं को नष्ट कर देने के कारण केवल ब्रह्मरूप में ही प्रकाशमान है, उस तीन चरणों वाले श्रीरामतत्त्व को मैं अपनी ही वास्तविक सत्ता मानकर भावपूर्वक ध्यान करता हूँ।
ॐ! हे देवताओं! हम अपने कानों से शुभ बातें सुनें।
हे यज्ञ करने योग्य देवता! हम अपनी आँखों से शुभ दृश्य देखें।
हम स्थिर अंगों और स्वस्थ शरीरों से आपको प्रसन्न करते हुए यज्ञकाल तक जीवन व्यतीत करें।
हमारे लिए इन्द्र, जो दीर्घ कीर्ति वाले हैं, कल्याणकारी हों।
हमारे लिए पूषा, जो सर्वज्ञ हैं, कल्याणकारी हों।
हमारे लिए गरुड़ स्वरूप तार्क्ष्य, जो संकटों का नाश करते हैं, कल्याणकारी हों।
हमारे लिए बृहस्पति कल्याण स्थापित करें।
ॐ शान्ति शान्ति शान्ति।
हरिः ॐ।
एक बार 'निदाघ' नामक योगी, महान ब्रह्मज्ञानी ऋषि 'ऋभु' के पास पहुँचे। उन्होंने दण्डवत् प्रणाम किया और आदर से पूछा—
"गुरुदेव! कृपा कर मुझे वह आत्मतत्त्व समझाइए, जिससे आपने ब्रह्म की यह स्थिति प्राप्त की।"
ऋभु बोले—
"हे निदाघ! अब तुम तैयार हो। सुनो, मैं तुम्हें वह सनातन विद्या बताता हूँ, जिससे केवल ज्ञान से ही जीवन्मुक्ति संभव है।"
"यह विद्या — बिन्दु, नाद और कला से युक्त है। नित्य, आनंदमयी और आधारहीन होकर भी सबकी अधिष्ठात्री है। यही महालक्ष्मी, यही अन्नपूर्णा है।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"इसका मन्त्र है:
ऐं ह्रीं सौं श्रीं क्लीं ॐ नमो भगवत्यन्नपूर्णे ममाभिलषितमन्नं देहि स्वाहा।
"यह मन्त्र मुझे मेरे पिता से मिला, और मैंने उसे विधिपूर्वक साधा।"
"अनेक दिनों की साधना के बाद, देवी अन्नपूर्णा स्वयं प्रकट हुईं— विशाल नेत्रों वाली, मुस्कराते हुए।"
उन्होंने कहा— "वत्स! तू कृतार्थ हो चुका है, वर मांगो।"
मैंने कहा— "माँ! आत्मतत्त्व मेरे हृदय में प्रकट हो।"
देवी बोलीं— "तथास्तु" — और अदृश्य हो गईं।
तभी मेरे भीतर यह बोध जागा कि जगत तो केवल भ्रम है।
फिर मैंने जाना — पाँच प्रकार के भ्रम हैं:
जीव और ईश्वर को अलग मानना।
आत्मा को कर्ता और गुणयुक्त समझना।
शरीर के साथ आत्मा की पहचान करना।
ब्रह्म को विकारी कारण मानना। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जगत को ब्रह्म से भिन्न और सत्य मानना।
इन भ्रमों का नाश इस प्रकार होता है:
बिम्ब-प्रतिबिम्ब से भेदभाव मिटता है।
स्फटिक में रंग पड़ने जैसे कर्तृत्व का भ्रम हटता है।
घट-मठ में एक ही आकाश जानकर आसक्ति मिटती है।
रज्जु में सर्प देखना — कारण से अलग जगत का भ्रम।
सोने से बने आभूषण — विविधता में एकता का बोध।
इसके बाद मेरा चित्त स्वयं ब्रह्मरूप हो गया।
ऋभु बोले—
"हे निदाघ! अब तुम भी इस तत्त्वज्ञान को प्राप्त करो।"
निदाघ ने विनयपूर्वक कहा—
"गुरुदेव, मुझे वह परम ब्रह्मविद्या दीजिए।"
ऋभु बोले— Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
"तू स्वयं महाकर्ता है, महाभोक्ता है, और त्यागी भी।
अब अपने स्वरूप में स्थिर हो जा — और सुखी हो जा।"
अंतिम उपदेश:
"मैं वही ब्रह्म हूँ — सदा प्रकाशित, निर्मल, आदि और अनंत।
दूसरा कुछ भी नहीं।
इस भाव में स्थित होकर तू निर्विकार हो जा —
और निर्वाण प्राप्त कर।"
"जो कुछ भी दिख रहा है — वह वस्तुतः नहीं है।
जैसे मरुस्थल में जल, या आकाश में नगर।"
ऋभु बोले—
हे मुने!
जो हमें दिखाई नहीं देता, फिर भी जैसे कुछ है वैसा लगता है —
वह मन और इंद्रियों के पार है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तू उसी में लय हो जा।
जिस चैतन्य आकाश में कोई सीमा नहीं, कोई विभाजन नहीं —
जो सबका आधार है, वही तू है। यही भाव कर।
जब चित्त पूरी तरह शून्य हो जाता है,
और केवल चैतन्य का अनुभव रह जाता है —
तब आत्मा का स्वरूप स्फुरित होता है।
जब चैतन्य, चेतना के हिस्सों से भी रहित होकर आत्मा में लीन हो जाता है —
तब वह नितांत पारदर्शी और सत्यस्वरूप बन जाता है।
यह दृष्टि शरीर में हो या शरीर के बिना —
एक समान रहती है।
यही ‘तुर्यातीत’ की दशा है।
यह ज्ञान समाधिस्थ और व्युत्थित — दोनों को प्राप्त हो सकता है।
पर यह केवल ज्ञानी को ही संभव है, अज्ञानी को नहीं।
जिसके भीतर आनंद और अनानंद समान हो जाएँ — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
उसका चेहरा भी शांत और मदमस्त हो जाता है।
बहुत लंबे समय की साधना और विचार की समाप्ति के बाद —
जो ज्ञान का अनुभव होता है, वही पुण्यपद है।
जब यह जान लिया जाता है कि सारे गुण और वस्तुएँ आत्मा नहीं हैं —
तब भीतर शीतलता उतरती है। यही समाधि कहलाती है।
जब चित्त पूरी तरह स्थिर हो जाए —
वही ‘अवासन’, वही ‘ध्यान’, वही ‘केवलता’ और ‘शांति’ है।
जब वासनाएँ क्षीण हो जाती हैं —
तब मन अकर्ता हो जाता है, और परम पद को प्राप्त करता है।
विपरीत स्थिति में — जब मन वासनाओं में लिप्त होता है —
तो यह कर्तृत्व का अहं पालता है, और वही सारे दुःखों का कारण बनता है।
इसलिए चेतना को सब भावनाओं से हटा कर —
जब भीतर की ओर लगाया जाता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तो व्यक्ति सबमें आकाश का अनुभव करता है।
जिस तरह बाजार में घूमते लोग वस्तुओं से जुड़ते नहीं —
वैसे ही ज्ञानी संसार में रहता है पर उसमें फँसता नहीं।
वह भीतर से जाग्रत होता है, चाहे वह सो रहा हो या चल रहा हो,
पढ़ रहा हो या बोल रहा हो —
गाँव, शहर, जंगल — सब उसे एक-से लगते हैं।
जिसके भीतर शीतलता है — उसे बाहर का संसार भी शीतल लगता है।
और जिसके भीतर तृष्णा की आग है — उसे यह जगत दावानल लगता है।
जो भीतर है — वही बाहर प्रकट होता है।
जो आत्मा में ही रत है, और कर्मेंद्रियों से केवल कर्म करता है —
पर न तो हर्ष से प्रभावित होता है न शोक से —
वही वास्तव में समाहित कहलाता है।
जो सब प्राणियों को अपने समान देखता है,
दूसरों की वस्तुओं को मिट्टी के समान —
और यह स्वभाव से करता है, न कि डर से —
वही सच्चा ज्ञानी है।
मृत्यु अभी आए या कल्पांत में —
जिसका अंतःकरण शुद्ध है,
वह कलंकित नहीं होता —
जैसे कीचड़ में पड़ा सोना भी सोना ही रहता है।
और अंत में ऋभु कहते हैं—
"को हूँ मैं? ये जीवन क्या है? मृत्यु क्या है?"
जो यह अंतर्यात्रा करता है —
वह महान फल को प्राप्त करता है।
ऋभु बोले—
हे मुने,
जब तू विचार करके अपने शुद्ध स्वरूप को जान लेता है,
तब मन की सारी बेचैनी शांत हो जाती है।
जिसका चित्त अब संसार में नहीं उलझता — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह ब्रह्म में स्थित हो जाता है,
जैसे हाथी छोटे जलाशय में नहीं डूबता।
लेकिन कृपण मन —
तो एक छोटे से काम में भी उलझ जाता है,
जैसे मच्छर गोशाले के जल में भी डूब जाए।
जब तक साधक सब कुछ छोड़ नहीं देता —
तब तक आत्मा को नहीं जान सकता।
जिस दिन वह संपूर्ण रूप से भीतर से मुक्त हो जाता है —
उसी दिन उसे आत्मा ही परमलोक की तरह मिलती है।
इसलिए आत्मदर्शन के लिए—
सब कुछ त्यागो!
और जो शेष बचे — उसी में स्थित हो जाओ।
जो कुछ भी दिखाई देता है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह केवल चैतन्य की कंपन लहरें हैं।
शाश्वत कुछ नहीं।
जो हमेशा संतुष्ट है,
जो वस्तुओं को यथार्थ रूप में देखता है —
उसे ही पूर्ण ज्ञान मिला है। यही "समाधि" है।
जो भीतर से अचल है, अहंकाररहित है,
द्वन्द्वों से परे है —
वह “समाधि” की स्थिरता में स्थित है।
जिसका मन पूर्ण, निःस्पृह और निश्चल है —
उसी की अवस्था को समाधि कहा गया है।
जब केवल चैतन्य की ज्योति बचती है —
और दृष्टि उसमें स्थिर हो जाती है —
तभी 'तुर्या' की अवस्था मिलती है।
यह अवस्था गहरी नींद जैसी होती है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
परंतु पूर्ण चेतना सहित।
जब मन और अहं दोनों विलीन हो जाते हैं —
तब आत्मा भीतर ही समस्त रूपों में स्थित हो जाती है।
उसके बाद —
एक दिव्य आनंद की देह उदित होती है —
जो स्वयं अपने ही मन को काटकर
परमगति को पा लेती है।
फिर होता है— वासना का लोप,
फिर आता है — शुभ प्रकाश,
फिर एक समता में स्थित महान स्वरूप का प्राकट्य,
जो बुद्धि से भी परे है।
जब चित्त पूर्ण रूप से परावर्तित हो जाता है —
तब यह सम्पूर्ण जगत,
उस अनंत आत्मा की तरह अनुभव होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
बाहर से सारे दृश्य शान्त हो जाते हैं —
और भीतर — स्वयं देवदेवता अनुभव में आ जाता है।
अगर चित्त निर्मल है और आसक्ति से रहित —
तो मुक्त होता है।
पर अगर वह आसक्ति में अटका है —
तो वर्षों की तपस्या के बाद भी वह जकड़ा ही रहता है।
जिस जीव ने भीतर से सभी बंधनों को त्याग दिया है —
वह चाहे कर्म करे या न करे,
चाहे भोगे या न भोगे —
फिर भी वह कर्ता नहीं है, भोगता नहीं है।
वह बस होता है — मिठास से भरा, मुक्त और सहज।
इति प्रथमोऽध्यायः ॥ १॥
निदाघ बोले—
हे ऋषे,
संग किसे कहते हैं?
कौन सा संग जीव को बाँधता है,
कौन मुक्ति देता है?
और इस बंधन से छुटकारा कैसे पाना चाहिए?
ऋभु उत्तर देते हैं—
जब देह और आत्मा के बीच के अंतर को छोड़ दिया जाता है—
और केवल देह को ही "मैं" मान लिया जाता है,
तो यही "संग" है — और यह बंधन का मूल कारण है।
पर जब यह अनुभव आता है कि —
"सब कुछ आत्मा ही है, मैं ही सब कुछ हूँ,
फिर मैं क्या चाहूँ? क्या त्यागूँ?" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
— यही "असंग स्थिति" है।
और यही है जीवनमुक्त की दशा।
"न मैं हूँ, न तू है, न यह है, न वह" —
ऐसे पूर्ण वैराग्य को
"असंग भाव" कहते हैं।
और यह अनुभूति — "मैं ब्रह्म हूँ!" — सदैव बनी रहती है।
जिसे कर्म का न मोह है,
न निष्कर्म का आकर्षण —
जो समता में स्थित है,
वही असंग है।
जो अपने मन से
सभी कर्मों के फलों का त्याग करता है —
वही वास्तविक त्यागी है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जब मन संकल्प से मुक्त होता है,
तब सारी चेष्टाएँ —
अपने आप शांत हो जाती हैं।
यही सबसे श्रेष्ठ उपचार है।
तब न वह क्रियाओं में लिप्त होता है,
न विचारों में,
न वस्तुओं में,
न समय के माप-तोल में।
वह केवल "चैतन्य" में विश्राम करता है —
कभी-कभी किसी सूक्ष्म भाव का आधार लेकर भी,
पर वास्तव में —
मन केवल "आत्मरस" में स्थित होता है।
अब चाहे शरीर व्यवहार करे या न करे, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
चाहे कुछ करे या न करे —
जीव तो बस आत्मा में ही रमण करता है।
या फिर —
वह उस अनुभव को भी छोड़ देता है,
और पूर्ण शांति से —
जैसे कोई प्रकाशमान रत्न —
अपने ही तेज में स्थित हो जाता है।
जब चित्त सभी विषयों से रहित हो जाता है —
और चेतना केवल आत्मा में स्थित होती है,
तो यह जाग्रत अवस्था में ही
एक प्रकार की गहरी नींद होती है।
इसी अवस्था को
"तुरीय की नींद" कहा गया है —
जो अभ्यास से प्राप्त होती है,
और जो पूर्ण परिपक्व होकर
तुरीय अवस्था में परिणत हो जाती है।
इस तुरीय अवस्था में प्रवेश करने वाला —
मृत्यु रहित हो जाता है,
वह केवल आनंदस्वरूप रह जाता है —
जो "अनानंद" से भी परे है।
जो उस अनानंद में महान आनंद को अनुभव करता है —
जो समय से भी परे है —
वही योगी वास्तव में मुक्त है —
और तुर्यातीत अवस्था को प्राप्त करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जिसने अपने समस्त जन्मों के बंधनों को तोड़ दिया है,
जिसका तम और अहंभाव लुप्त हो चुका है —
वह परात्मा में पूरी तरह लीन हो जाता है —
जैसे नमक का टुकड़ा समुद्र में घुल जाए।
जड़ और चेतन के बीच जो तत्व है —
वही परम तत्व है।
और जब वह अनुभूति में उतरता है —
तभी उसे "ब्रह्म" कहा जाता है।
जो दिख रहा है — उसमें उलझना ही बंधन है,
और उससे मुक्त होना — मोक्ष।
जब "वस्तु" और "दृष्टा" के बीच
जो सहज अनुभूति है —
वही रोगरहित, शुद्ध अनुभव है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
उसी अनुभूति को थामकर टिक जाओ —
वही निद्रा जैसी अवस्था
तुम्हें तुरीय तक पहुँचा देगी।
उसी में अपनी दृष्टि स्थिर करो।
यह आत्मा —
न स्थूल है, न अणु है,
न प्रत्यक्ष है, न अदृश्य,
न चेतन है, न जड़,
न निकट है, न दूर —
वह सच्चिदानंद स्वरूप है।
"न मैं हूँ, न कोई दूसरा,
न मैं एक हूँ, न अनेक।
मैं अद्वितीय हूँ, अविनाशी। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो कुछ भी दिखाई दे रहा है —
वह केवल मन और इंद्रियों का क्षेत्र है।
दृष्टा और दृश्य के मिलने से
जो सुख प्रतीत होता है,
वह भी उस परम स्थिति के आगे कुछ नहीं।
जहाँ यह भी अनुभव न रहे — वही सच्चा अनुभव है।
मोक्ष न आकाश में है, न पाताल में,
न धरती पर —
जब चित्त की सारी आशाएँ बुझ जाती हैं,
तभी भीतर सच्चा मोक्ष जन्म लेता है।
अगर यह विचार आ जाए कि
'मुझे मुक्ति चाहिए', Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तो समझो — मन ने एक और बंधन बाँध लिया है।
यही बंधन है, यही संसार।
जब आत्मा सब रूपों से परे हो जाती है —
या फिर सब रूपों को आत्मरूप जानती है,
तब बंधन और मोक्ष —
दोनों ही केवल कल्पना लगते हैं।
जो आत्मा में रमी हुई है,
जिसका हृदय पूर्ण है, शांत है —
जो विश्राम की चरम अवस्था में पहुँच चुका है —
उसे अब कुछ नहीं चाहिए।
जो सबका आधार है,
जो विकल्परहित चैतन्य है —
और जिसमें कोई आसक्ति नहीं रही —
वही साक्षात् जीवन्मुक्त है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह न भविष्य की चिंता करता है,
न वर्तमान में फँसता है,
न अतीत को स्मरण करता है —
फिर भी सब करता हुआ दिखाई देता है।
वह जनसंपर्क में रहते हुए भी असंपृक्त रहता है —
भक्त के साथ भक्तवत्,
धूर्त के साथ धूर्तवत् व्यवहार करता है।
बालकों के बीच बालक हो जाता है,
वृद्धों के बीच वृद्ध —
गंभीरों में गंभीर,
और दुःखियों में दुःख की गहराई में उतरता है।
वह ज्ञानी — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
गंभीर भी है, विनोदी भी,
सत्य की मधुर वाणी बोलता है,
और दैन्य से परे है।
जब अभ्यास से
प्राणों की हलचल भी रुक जाती है,
तब मन परम शांति में प्रवेश करता है,
और जो शेष रह जाता है — वही निर्वाण है।
जहाँ वाणी तक नहीं पहुँचती,
जहाँ सभी विचार शून्य हो जाते हैं —
वहीं वह परम पद स्थित है।
जो आत्मा न आदि है, न अंत —
सिर्फ प्रकाशस्वरूप है —
वही परमात्मा है।
और इसका प्रत्यक्ष अनुभव ही पूर्ण ज्ञान है।
तीनों लोकों में यही सत्य है —
सभी कुछ आत्मा ही है।
जब यह जान लिया —
तभी पूर्णता प्राप्त होती है।
यदि सब आत्मा ही है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तो फिर देखने वाला कौन? दृश्य क्या?
बंधन और मुक्ति किसकी?
सभी कुछ ब्रह्म ही तो है, जो अपने-आपको प्रकट कर रहा है।
सभी कुछ एक ही परम आकाश है।
तब मोक्ष क्या है? किसका है?
यह सारा ब्रह्म — व्यापक, पूर्ण और स्वयं में स्थित है।
जब द्वैत का अंधकार मिट जाता है,
तब आत्मा ही आत्मा को देखती है —
यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुओं में भी
ब्रह्म का ही प्रकाश दिखाई देता है।
जरा भी भेद नहीं रह जाता —
फिर तू विकल्पों की ओर क्यों भाग रहा है? Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो आदि में भी शांत है, अंत में भी शांत है —
बस वही तेरा असली स्वरूप है।
और अंततः —
सब वस्तुएँ और आत्मा एक ही हैं।
द्वैत और अद्वैत, जन्म और मृत्यु —
सभी भ्रम की तरह समाप्त हो जाते हैं।
आत्मा ही आत्मा में स्फुरता है,
जैसे समुद्र की लहरें उसी समुद्र से उठती हैं।
वह परम स्थिति — जहाँ कोई पराया नहीं,
बस निर्वृत्ति ही शेष रह जाती है —
वह हर संकट को शांत करने वाला परशु है।
जो आत्मा शुद्ध है, शांत है —
और जिसने उसे अंतर में पूरी श्रद्धा से आलिंगन कर लिया है,
जो उसमें स्थिर हो गया है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
उसको कोई भोग, कोई बाधा छू भी नहीं सकती।
जिस व्यक्ति ने इस सत्य को
गहराई से विचार कर अनुभव कर लिया है —
उसका मन अब भोगों से डगमगाता नहीं।
जैसे पहाड़ को मंद वायु हिला नहीं सकती —
वैसे ही उसे कोई आकर्षण विचलित नहीं कर सकता।
विविध कल्पनाओं में जो भिन्नता प्रतीत होती है —
वह वस्तुतः केवल प्रतीति है,
जैसे सरोवर की अनेक धाराएँ —
पर मूलतः सब जल ही हैं।
यह जानकर, जो पुरुष एकनिष्ठ हो जाता है —
उसे ही विमुक्त कहा जाता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
क्योंकि उसने सत्य को सम्पूर्ण रूप से देख लिया है।
इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥
विदेहमुक्ति कैसी होती है?
वह कौन है जो उसे प्राप्त करता है?
कौन-सा योग अपनाकर कोई उस परम अवस्था तक पहुँचता है?
महा-पर्वत सुमेरु की भूमि पर माण्डव्य नाम के एक महान ऋषि थे।
उन्होंने कौण्डिन्य मुनि की शिक्षाओं को अपनाया, और जीवन्मुक्ति को प्राप्त किया।
जब वे इस अवस्था में स्थित हो चुके,
तब उन्होंने एक दिन निश्चय किया कि
अब इन्द्रियों और मन को पूर्णतः शान्त कर दें। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
पद्मासन में स्थिर हो,
आँखें अर्धमुद्रित कर,
बाह्य और आंतरिक सभी स्पर्शों को धीरे-धीरे त्यागते गए।
फिर भी मन की चंचलता को देखकर उन्होंने कहा —
“अरे! यह मन कितना चंचल है,
संयमित करने के बाद भी यह फिर जाग जाता है!”
जैसे एक कपड़ा घड़े से, और घड़ा बैलगाड़ी से जुड़ता है,
वैसे ही यह मन विषयों से चिपकता है —
जैसे बंदर एक शाखा से दूसरी पर उछलता है।
“ये आँख, कान, त्वचा आदि —
इन्हें ही मैं मन के पाँच द्वार मानता हूँ।
ये ही बुद्धि से जुड़ी इन्द्रियाँ हैं।”
“अरे इन्द्रियों के समूह! अब तुम शान्त हो जाओ —
मैं ही चिदात्मा हूँ, साक्षी रूप से विराजमान।”
जब उन्होंने यह आत्मज्ञान से जाना —
तब सब इन्द्रियाँ शान्त हो गईं।
वो बोले — “अब मैं शांत हूँ, मुक्त हूँ,
और दिव्य सौभाग्य से ज्वरहीन हूँ।” Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अब मैं सदा ही आत्मा में स्थित हूँ,
तुर्य अवस्था में लीन —
जहाँ प्राणों की गति भी धीरे-धीरे शांत हो गई।
जैसे अग्नि — जब लकड़ियाँ जल चुकी हों —
बस ज्वाला की लहर-सी शेष रह जाती है,
वैसे ही मैं अस्त होते हुए भी जागृत हूँ,
जागते हुए भी सुषुप्त हूँ।
अब मैं समरस स्थिति में ठहर गया हूँ —
एकदम स्वच्छ, शांत।
जाग्रत होकर भी जैसे सुषुप्त में स्थित हूँ,
और सुषुप्त होकर भी जैसे पूर्णतया जाग्रत हूँ।
मैं तुर्य अवस्था को पकड़कर शरीर के भीतर स्थित हूँ,
स्थिर, स्तम्भित, अचल। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
बाह्य और आंतरिक — स्थूल और सूक्ष्म — सभी भाव अब त्याग चुका हूँ।
तीनों लोकों के संकल्पों को,
जिनका आधार केवल कल्पना थी —
उन्हें मैं त्याग चुका हूँ।
अब मैं प्रणव नाद में लयमान हूँ।
जैसे पक्षी अग्नि से निकलकर मुक्त होता है —
वैसे ही मैंने इन्द्रियों और उनके सूक्ष्म कारणों को त्याग दिया।
और अब — मैं पहुँचा उस स्वच्छ अनुभव में,
जो केवल "मैं हूँ" के बोध से परिपूर्ण है।
अब मेरे भीतर है नवजात शिशु जैसा सहज ज्ञान।
अब मन भी शान्त हो गया,
जैसे वायु गति खो दे —
वैसे ही मन की स्पंदनशक्ति समाप्त हो गई।
अब मैं चैतन्य स्वरूप को प्राप्त हुआ हूँ — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
केवल सत्ता रूप —
और वहाँ ठहर गया हूँ,
जैसे पर्वत कभी डोलता नहीं।
सुषुप्ति की स्थिरता प्राप्त कर
मैं तुर्य स्थिति में प्रविष्ट हुआ।
अब न आनंद का भान है, न अनानंद —
और फिर भी मैं ही पूर्ण हूँ —
सत्य और असत्य दोनों को पार कर चुका हूँ।
अब जो घटित हुआ —
वह उस ब्रह्म की अनुभूति है
जो शब्दातीत है —
जो शून्यवादियों को शून्य लगता है,
और ब्रह्मज्ञानी उसे ब्रह्म कहते हैं।
वह केवल शुद्ध ज्ञानमात्र है —
ज्ञानियों की दृष्टि में जो निष्कलंक है।
वह सांख्य दर्शन वालों के लिए पुरुष है,
योगियों के लिए वही ईश्वर है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह शिव ही है —
जो शैव आगमों का मूल है।
वही काल है —
जो केवल काल को ही सत्य मानने वालों का भी आधार है।
जिसने समस्त शास्त्रों का सार आत्मसात किया है,
जो हर हृदय के भीतर सहज रूप से विद्यमान है —
वही है वह परम तत्त्व।
जो सर्वत्र व्याप्त है,
जो सब कुछ है और फिर भी सबसे परे —
जो तत्त्व किसी वर्णन से परे है,
निश्छल, निर्विकल्प —
जैसे दीपक का तेज भी स्वयं उस तेज में लीन हो जाए —
वही तत्त्व, वह यथार्थ, वह स्थित है।
जिसे केवल अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है —
वही परम तत्व साक्षात है।
जो एक ही है, फिर भी अनेक जैसा दिखता है —
जो सज्जित भी है और निरंजन भी, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो सब कुछ है और कुछ भी नहीं —
वही तत्त्व स्थिर है, अचल है, परम है।
जो न जन्मा है, न कभी मरेगा,
जो न आदि है, फिर भी सर्वप्रथम है,
जो पूर्ण है और फिर भी अकलुष,
जो सर्वव्यापक है और फिर भी निर्लेप —
वही है परम स्थान,
जहाँ चेतना आकाशस्वरूप बनकर
एक क्षण में ही विशुद्ध ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाती है।
इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
हे मुनिश्रेष्ठ!
क्या जीवन्मुक्त का लक्षण आकाश में उड़ जाना या अन्य चमत्कारिक शक्तियाँ हैं?
यदि ऐसा होता भी, तो वह इस मार्ग में प्रमुख नहीं माने जाते।
जो आत्मा को नहीं जानता, वह भी मंत्र, साधना, काल और द्रव्य के सहारे
ऐसी सिद्धियाँ पा सकता है — पर यह आत्मज्ञानी का विषय नहीं।
क्योंकि आत्मज्ञानी तो केवल आत्मा में ही स्थित है —
वह अपने आत्मस्वरूप में तृप्त है, और अविद्या के पीछे नहीं भागता।
इस संसार के जो भी अनुभव हैं, वे सब अविद्यामूलक हैं —
फिर जो योगी अविद्या को ही त्याग चुका है, वह उनमें कैसे उलझ सकता है?
जो मूढ़ है या अल्पबुद्धि, वही सिद्धियों की कामना करता है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
और वह उन्हें क्रमशः कठिन साधनाओं से प्राप्त करता भी है।
साधना, मंत्र, समय और साधुओं से मिलने वाली सिद्धियाँ —
परमात्मा की प्राप्ति में सहायक नहीं होतीं।
जिसके भीतर कोई इच्छा शेष है, वह सिद्धियाँ पा सकता है —
पर जो पूर्ण हो गया, जिसकी कोई चाह शेष नहीं — उसमें इच्छा ही कहाँ?
जिसने समस्त इच्छाओं का अंत कर दिया —
जिसे आत्मा की प्राप्ति हो गई —
ऐसा महायोगी फिर सिद्धियों की ओर आकर्षित कैसे हो सकता है?
वह चाहे सूर्य की भट्ठी में हो या चंद्रमा की ठंडक में,
जलता अग्नि हो या शीतल वायु —
जीवन्मुक्त कभी चकित नहीं होता।
जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम होता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वैसे ही यह जगत कल्पना का जाल है —
पर जीवन्मुक्त उसमें आकर्षण नहीं रखता।
जो ज्ञेय और ज्ञाता के पार पहुँच गए हैं,
वैराग्ययुक्त हैं, ग्रंथियाँ छिन्न कर चुके हैं —
वे अपने शरीर में भी पूर्ण स्वतंत्र हैं।
सुख-दुःख उन्हें विचलित नहीं कर सकते —
उनका मन तो शांत पर्वत-सा अचल हो चुका है।
कठिन परिस्थिति हो या उत्सव,
मद हो या निराशा —
कोई भी मन को प्रभावित नहीं कर पाता —
क्योंकि वह मन अब नष्ट हो चुका है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मन का विनाश दो प्रकार का होता है —
एक जिसमें उसका रूप बना रहता है, और दूसरा जिसमें रूप भी मिट जाता है।
जीवन्मुक्ति में मन तो रहता है, पर आत्मा में लीन हो जाता है।
देहमुक्ति में वह पूरी तरह विलीन हो जाता है।
जब तक मन है, दुःख है —
और जब मन का अंत हो गया, वहीं परम शांति है।
मन को उसकी जड़ों से समाप्त कर देना ही अंतिम मुक्ति है।
हे निष्पाप!
जब यह मनपूर्ण मूढ़ता मिट जाती है,
तभी सच्चे स्वरूप का प्रकट होना संभव है —
इसी को ‘चित्तनाश’ कहा गया है।
जब मन मैत्री, करुणा, क्षमा जैसे गुणों से परिपूर्ण होता है,
तब वह सर्वोत्तम संस्कार बन जाता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करता है।
जीवन्मुक्त का मन भले स्वरूप रहित नाश को प्राप्त न हो,
पर वह आत्मा में लीन होकर बिना कामनाओं के शांत रहता है।
किन्तु देहमुक्ति के बाद जो नाश होता है —
वह पूर्ण रूप से निराकार, निष्कल —
अर्थात सम्पूर्ण विलयन है।
विदेहमुक्त वह है —
जो अब किसी भी गुण, सत्ता, शरीर या भौतिकता से परे है —
सकल गुणों का आधार होते हुए भी,
वह स्वयं अब लय को प्राप्त हो चुका है।
विदेहमुक्ति — वह परम निर्मल, परम पावन स्थिति है —
जहाँ सत्त्व भी समाप्त हो जाता है,
जहाँ स्वयं का कोई अनुभवकर्ता भी शेष नहीं रहता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जब चित्त का पूर्ण विनाश हो जाता है,
जिसे विरूप कहा गया है —
उस स्थिति में कुछ भी शेष नहीं रहता।
न वहाँ कोई गुण होते हैं, न दोष।
न वहां श्री है, न अश्री —
न लोक का कोई भाव है।
न वहाँ उदय है, न अस्त।
न हर्ष है, न अमर्ष।
न प्रकाश है, न अंधकार।
न दिन है, न रात्रि, न कोई संध्या।
न सत्य की कोई स्थिति है, न असत्य की —
और न ही कोई मध्य का भाव। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो बुद्धि और संसार के समस्त आडंबरों को पार कर गए हैं,
उनके लिए वह अवस्था इतनी व्यापक होती है —
जैसे आकाश के लिए वायु!
जहाँ दुःख शांत हो गया है,
जहाँ कोई जड़ता नहीं,
जहाँ केवल एक रस, एक धीमी-सी आनंद की लहर है,
जहाँ रज-तम का लेश नहीं —
ऐसे विराट आकाश-जैसे पद में
मन के अंतिम संस्कार भी गल जाते हैं।
हे महाप्राज्ञ,
तुम भी इन वासनाओं को त्याग कर
निर्वासनमना बनो।
अपने चित्त को एकाग्र कर,
निर्विकल्प स्थिति को धारण करो। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह चेतना — जो इस सृष्टि को प्रकाशित करती है,
जो सदा स्वयं प्रकाशित रहती है —
वही जगत की साक्षी है,
वही समस्त आत्माओं का मूल है।
वह समस्त प्राणियों की प्रतिष्ठा है —
जो प्रज्ञानघन (शुद्ध चेतना का घनरूप) है।
वही ब्रह्म — सत्य, ज्ञान और आनंद का वन है।
जिसे यह अनुभव हो जाए कि
"मैं ही वह एक ब्रह्म हूँ",
वह मुनि पूर्ण हो जाता है — कृतकृत्य!
वह ब्रह्म —
जो समस्त का आधार है,
जो द्वंद्व से परे है, सनातन है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सच्चिदानंदरूप है —
वाणी और मन की पहुँच से परे है।
वहाँ कोई चंद्रमा, कोई सूर्य प्रकाशित नहीं होता।
वहाँ कोई देवता कार्य नहीं करते,
कोई वायु नहीं चलती।
केवल वही स्वयं प्रकाशित देव —
वह बिना किसी संश्लेषण के
विरज, विशुद्ध रूप में प्रकट होता है।
जब वह देखा जाता है —
तो हृदय की सभी ग्रंथियाँ टूट जाती हैं,
सभी संशय समाप्त हो जाते हैं,
और उसके कर्म भी क्षीण हो जाते हैं।
उस शरीर में दो पक्षी हैं —
एक जीव, जो फल भोगता है,
दूसरा ईश्वर, जो केवल साक्षी है —
वह भोग नहीं करता।
वास्तव में भिन्नता केवल माया से है —
अन्यथा दोनों चेतना से ही बने हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यद्यपि अनुभव में भिन्न हैं,
पर चित्त की निवृत्ति से
यह भिन्नता भी समाप्त हो जाती है।
जब यह बोध दृढ़ हो जाता है
कि केवल एक ही चित्-तत्त्व है —
तब न शोक होता है, न मोह।
वह ब्रह्म —
जो सत्य और चिद्रूप का घन है,
जो इस सम्पूर्ण जगत का अधिष्ठान है —
जब मुनि अनुभव करता है कि “वह मैं हूँ” —
तो वह वीतशोक हो जाता है।
जो अपने शरीर में ही
उस स्वयं प्रकाशित ब्रह्म को देख ले — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वही पापरहित हो जाता है।
अन्य लोग तो केवल माया में ही लिपटे रहते हैं।
केवल धीर पुरुष ही
उस आत्मा को जानकर
सच्चे ज्ञान की साधना करता है।
वह व्यर्थ के शब्द-जाल में नहीं उलझता —
क्योंकि वह वाणी की थकावट है।
एक बालक की भांति,
वह निरालंब हो जाता है —
क्योंकि ब्रह्मज्ञान और बाल्यभाव एक-से होते हैं।
जब समस्त कर्मों के बीज — शुभ या अशुभ —
मन की वासनाओं में विलीन हो जाते हैं,
तो यही शरीर — संसार के बीज के समान होता है।
यह शरीर —
भाव और अभाव के जाल का कोश है,
दुःख रूपी रत्नों का संदूक है,
और इसकी जड़ — वह चित्त है
जो आशा के वश में है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
चित्त रूपी वृक्ष के दो मूल बीज हैं – एक है प्राण की गति, दूसरा है दृढ़ भावना।
जब प्राण नाड़ियों में चलायमान होता है, तभी चित्त की संवेदनशीलता जन्म लेती है।
संवेदना तो सर्वत्र व्याप्त है, पर उसका अनुभव प्राण के स्पंदन से ही संभव होता है।
इसलिए संवेदनाओं को रोकना नहीं, बल्कि प्राण की गति को साधना अधिक श्रेयस्कर है।
योगीजन चित्त को शांत करने हेतु प्राण का निग्रह करते हैं — प्राणायाम, ध्यान और विविध प्रयोगों के द्वारा।
यह अभ्यास अंततः चित्त को सुखद संवेदनाओं की अवस्था में पहुँचाता है — परम कारण यही है।
जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु को गहरी भावना से पकड़ लेता है और अन्य सभी विचारों को त्याग देता है,
तो यही अवस्था ‘वासना’ कहलाती है।
और जब कुछ भी ग्रहण या त्यागने का भाव नहीं रह जाता — जब सब कुछ छोड़ दिया जाता है —
तब चित्त उत्पन्न ही नहीं होता।
जब मन वासनाओं से पूर्णतः खाली हो जाता है, तब वह कुछ भी सोचने में अक्षम होता है —
यह अवस्था ही ‘अमनस्त्व’ है, जो परम शांति को जन्म देती है।
जब कोई भाव किसी भी वस्तु में नहीं उठता, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तब हृदय का आकाश शून्य हो जाता है — वहाँ चित्त कैसे जन्म लेगा?
जब कोई व्यक्ति उस भाव को अपनाता है, जहाँ अभाव की भावना ही प्रमुख होती है,
तो उस भाव के अनुसार ही वस्तु का स्वरूप उसके लिए प्रकट होता है — यही 'अचित्तता' है।
जब भीतर के सारे विचार त्याग दिए जाते हैं, और कोई व्यक्ति शांत भाव से स्थिर होता है,
तो भले ही चित्त दिखाई दे, वास्तव में वह असत्य होता है — एक छल मात्र।
जिनके चित्त से वासनाओं के बीज गिर चुके होते हैं,
वे पुनर्जन्म से मुक्त — जीवन्मुक्त कहलाते हैं।
उनका चित्त सत्त्वस्वरूप में स्थित होता है — पूर्ण ज्ञान को प्राप्त।
ऐसे ज्ञानी देह त्याग के बाद आकाशवत् हो जाते हैं — जैसे चित्त कभी था ही नहीं।
जब संवेदनशीलता, प्राण की गति और वासना — इन सभी का त्याग कर दिया जाता है,
तब चित्त का वृक्ष अपनी जड़ से कट जाता है — जैसे वृक्ष का मूल ही समाप्त हो जाए।
संविद में जो भी पहले देखा गया हो या अब उभर रहा हो,
ज्ञानी उसे पहचानकर साफ करता है — निरंतर। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यही शुद्धिकरण है जो संसार बनाता है,
और यही इसका पूर्ण प्रक्षालन — मोक्ष कहलाता है।
हे साधक! तू जड़ता को त्याग, आनंद को भी छोड़ — संवेदना से परे हो जा।
जिसकी चेतना वस्तु-ध्यान से रहित है, वह जड़ नहीं कहलाता —
भले वह सैकड़ों कार्य करता रहे।
जो हृदय में संवेद्य होकर भी लिप्त न हो, वही जीवन्मुक्त है।
जब आत्मा वासनाओं से पूरी तरह खाली हो जाती है,
तब वह एक बालक या मूक व्यक्ति की तरह हो जाती है — शांत, लेकिन पूर्ण चेतना में।
तब वह मन जड़ता से मुक्त होता है, संवेदना से भी परे —
और वही प्रज्ञावान उसमें टिक जाता है — बिना किसी लिप्तता के।
जो समस्त वासनाओं को त्यागकर, निर्विकल्प समाधि में स्थित हो जाता है,
वह स्वयं उस चेतना में लीन हो जाता है — और वह चेतना भी अंततः विलीन हो जाती है।
चलते हुए, स्पर्श करते हुए, गंध लेते हुए भी —
जो व्यक्ति इन सबसे अलिप्त रहता है, वही सच्चा सुखी है — अजड़, आनंदातीत और संवेदनारहित।
जो इस दृष्टि को पकड़ लेता है, वह चाहे कठिन परिश्रम में क्यों न हो,
दुःखसागर के पार चला जाता है — गुणों के सागर में डूबकर।
जो सभी विशेषताओं को त्यागकर केवल शुद्ध सत्ता में स्थित होता है,
वही एकरूप, महारूप, सच्चिदानंद स्वरूप को प्राप्त होता है।
काल, कला, वस्तु — इन सबकी सत्ता को छोड़कर,
केवल सत्तामात्र में स्थित हो जा।
एकमात्र सत्तासामान्य का ध्यान करने वाला,
वही परिपूर्ण और परम आनंदस्वरूप हो जाता है — दिशाओं को भर देता है अपने स्वरूप से।
जहाँ केवल सत्तामात्र रह जाती है, कोई भिन्नता नहीं,
वही स्थान प्रारंभ और अंत दोनों से रहित होता है — उसका कोई बीज नहीं होता।
वहाँ संविद लीन हो जाती है, निर्विकल्प रूप से ठहर जाती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह पुरुष — जिसने उस पद को पा लिया — दुःख की ओर फिर नहीं लौटता।
वही सबका कारण है — परंतु उसका कोई कारण नहीं।
वही समस्त सारों का सार है — उससे परे कोई सार नहीं।
उसी चैतन्य दर्पण में समस्त दृश्य वस्तुएँ प्रतिबिंबित होती हैं —
जैसे सरोवर में वृक्षों की छाया।
वही निर्मल, निष्कलुष आत्मतत्त्व है —
जो इसे जान लेता है, उसका चित्त शांति को प्राप्त करता है।
जो इस स्वरूप को जान लेता है, वह सही अर्थों में भवभय से मुक्त होता है।
इन सभी श्लोकों में बताए गए उपायों में,
जिस किसी का अभ्यास किया जाए — उससे वह परम पद शीघ्र ही प्राप्त हो सकता है।
यदि कोई पुरुष प्रयासपूर्वक वासनाओं को त्यागकर सत्तासामान्य में स्थिर हो जाए,
तो वह एक ही क्षण में उस अविनाशी पद को प्राप्त कर सकता है।
यदि कोई प्रेमपूर्वक उस सत्तामात्र में स्थित हो जाए, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तो वह थोड़े से ही प्रयास में उस पद को पा सकता है।
यदि तू संविद् तत्व में ध्यानपूर्वक स्थित हो जाए,
तो थोड़े अधिक प्रयास से भी वह पद प्राप्त हो सकता है।
यदि तू वासनाओं के पूर्ण परित्याग में प्रयास करे,
तो जान ले — जब तक मन पूरी तरह विलीन नहीं होता, वासना समाप्त नहीं होती।
जब तक वासनाएँ जीवित हैं, मन शांत नहीं होता।
और जब तक तत्त्वज्ञान नहीं होता, तब तक चित्त में शांति कैसे संभव?
जब तक चित्त शांत नहीं होता, तत्त्वबोध नहीं होता।
जब तक वासनाएँ मिटती नहीं, तब तक तत्त्व की अनुभूति नहीं होती।
और जब तक तत्त्व की पूर्ण प्राप्ति नहीं होती,
तब तक वासनाओं का अंत नहीं होता।
तत्त्वज्ञान, मन का लय और वासना का क्षय —
तीनों एक-दूसरे के कारण बनते हैं — और इनकी सिद्धि कठिन है।
इसलिए भोग की इच्छा को त्यागकर, इन तीनों का अभ्यास कर —
वासना क्षय, तत्त्वज्ञान और मनोनाश।
जब ये तीनों लंबे अभ्यास से एक साथ होते हैं,
तब वे फलदायी सिद्ध होते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इन तीनों के अभ्यास से हृदय के गहरे गाँठें टूट जाती हैं —
जैसे कमल की डंडी टूट जाती है।
तत्त्वज्ञ कहते हैं — वासना का पूर्ण परित्याग और प्राण की गति का निग्रह —
दोनों का फल एक ही है। इसलिए दोनों में से किसी का भी अभ्यास कर।
वासना के त्याग से चित्त, अचित्त बन जाता है।
प्राण की गति रोकने से भी वही स्थिति प्राप्त होती है — जो चाहे वह कर।
प्राणायाम, गुरु की युक्तियों, संयमित आहार और आसनों के अभ्यास से —
प्राण की गति रोकी जा सकती है।
संसार से असंग होकर, जन्म-मरण की कल्पना को त्यागकर,
और शरीर की विनाशशीलता को जानकर — वासनाएँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं।
प्राण की गति और चित्त की गति — दोनों एक ही हैं।
इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि वह प्राण को पूर्ण प्रयास से साधे।
मन को साधना असंभव है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जब तक युक्तिपूर्वक प्रयास न किया जाए।
शुद्ध संविद को आश्रय बनाकर,
रागद्वेष से रहित और स्थिर हो जा।
जो संवेद्यरहित, एकमात्र सर्वोच्च पद है —
उसे हृदय में पकड़, और वहीं स्थित हो जा — क्रिया करते हुए भी कर्तापन का त्याग कर।
वहीं तू सच्चे शांति और सौंदर्य को प्राप्त करेगा।
यदि कोई पुरुष थोड़े से भी विवेक से अपने मन को नियंत्रित कर ले,
तो समझो उसने जन्म का सच्चा उद्देश्य पूर्ण कर लिया।
इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
जो व्यक्ति चलते समय, खड़े रहते समय, जागते या सोते समय भी विचार में नहीं रहता —
उसका चित्त यदि जड़ बना रहे, तो समझो वह जीते-जी मृत कहलाता है।
जिसे पूर्ण ज्ञान का आलोक प्राप्त हो गया हो,
वह आत्मा स्वयं अजाना रहकर भी सर्वज्ञ होता है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह न भयभीत होता है, न कुछ ग्रहण करता है,
और न ही वैवश्य या दीनता उसे छू पाते हैं।
ज्ञानी पुरुष यदि अपवित्र, अपथ्य या विषयुक्त वस्तु भी खा ले,
तो वह उसे ऐसे पचा लेता है जैसे पकी हुई वस्तु — उसमें दोष नहीं लगता।
सज्जनों ने बताया है — जो संग का त्याग करता है वही मुक्त होता है।
संगत्याग से जन्म का भी अंत हो जाता है।
इसलिए हे निष्पाप! तू भावनाओं के संग को त्याग — और जीवन्मुक्त बन जा।
जब पदार्थों के होने या न होने से हर्ष या अमर्ष जैसे विकार उत्पन्न होते हैं,
वही मलिन वासना 'संग' कहलाती है।
परंतु जो जीवन्मुक्त होते हैं, उनकी वासनाएँ हर्ष और विषाद से रहित हो जाती हैं —
वे पूर्णतः शुद्ध हो जाती हैं — और फिर वे जन्म का कारण नहीं बनतीं।
जो व्यक्ति दुःख आने पर थकता नहीं,
और सुख मिलने पर उल्लसित नहीं होता, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो आशाओं के वैवश्य को त्याग देता है —
वही व्यक्ति अग्नि के समान निर्विकार और निर्लिप्त हो जाता है।
मैं वह ब्रह्म हूँ — जो दिशा, काल और किसी सीमा से परे है —
जो दोनों छोरों से रहित है, केवल चैतन्य है, अक्षय है, और शांत है —
और इसके अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं।
जो व्यक्ति यह निश्चयपूर्वक जान लेता है — "मैं ही वह ब्रह्म हूँ" —
वह भीतर और बाहर से मुक्त हो जाता है।
वह मौन रहता है, शांतचित्त होता है, और अपने आत्म-सुख में स्थित रहता है।
वहाँ न चित्त रहता है, न अविद्या, न मन, और न जीव।
केवल ब्रह्म ही शेष रहता है — जो आदि और अंत से रहित,
असीम समुद्र के समान स्वयं में ही विस्तृत है।
जब तक देह में 'मैं हूँ' का भाव रहता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जब तक दृश्य वस्तुओं में आत्मता का अनुभव होता है,
और जब तक 'यह मेरा है' जैसी धारणा बनी रहती है —
तब तक चित्त और उसके भ्रम बने रहते हैं।
जो साधक अपनी चेतना को भीतर की ओर मोड़ लेता है —
वह इस त्रिजगत् को तृण के समान चिदाग्नि में आहुति देता है।
और इस प्रकार चित्त तथा उसके भ्रम स्वयं शांत हो जाते हैं।
मैं ही चैतन्य आत्मा हूँ — पूर्ण, अखंड, पर और अपरा से रहित।
अपने इस स्वरूप को स्मरण कर — और स्मृति से भी परे हो जा।
आध्यात्मिक ज्ञान का जो मंत्र है —
वह भीतर गहराई से भावित हो, तो यह तृष्णा रूपी विष को नष्ट कर देता है —
जैसे शरद ऋतु की धूप बर्फ को पिघला देती है।
जो वासनाओं को जानकर उनका पूर्ण त्याग कर देता है,
वह वासनाओं के सत्त्व रूप में स्थित हो जाता है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
और वही कैवल्य पद को प्राप्त करता है।
जिस स्थिति में वासनाएँ लीन हो जाती हैं,
परंतु अभी भी बीज के रूप में शेष रहती हैं —
वह केवल सुषुप्ति है, सिद्धि नहीं।
पर जहाँ वासना का बीज भी नष्ट हो चुका हो —
वही स्थिति 'तुर्य' कहलाती है — और वही सिद्धिप्रद होती है।
वासना की जड़ें अग्नि के समान हैं —
ऋण, रोग, शत्रु, स्नेह, वैर और विष —
इनका थोड़ा अंश भी शेष रहे तो वह दुःख का कारण बनता है।
जो साधक वासना के बीज को पूर्णतः जला देता है —
वह सत्त्व के सामान्य रूप में स्थित हो जाता है।
चाहे वह देहधारी हो या विदेह — वह फिर कभी दुःख नहीं भोगता।
अज्ञान यही है — "यह ब्रह्म नहीं है" — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
और इसका नाश तब होता है जब यह निश्चित हो जाए — "यही ब्रह्म है।"
ब्रह्म ही चैतन्य है, ब्रह्म ही यह सारा जगत है,
ब्रह्म ही जीवों की परंपरा है,
मैं ब्रह्म हूँ, मेरा चित्त भी ब्रह्म है,
और मेरे शत्रु, मित्र, बंधु — सभी ब्रह्मस्वरूप हैं।
जब यह भावना दृढ़ हो जाती है कि — "सब कुछ ब्रह्म ही है" —
तब वही व्यक्ति स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
और फिर उसे हर ओर वही शांत, चैतन्य ब्रह्म अनुभूत होता है।
जब मन मार्गों की गिनती से परे, संस्काररहित स्थिति में होता है,
और चित्त कहीं स्थित नहीं होता,
तब जो अनुभव होता है — वह भी चैतन्य ब्रह्म ही है — जो सर्वव्यापक है।
संकल्पों से रहित, कौतुकों से मुक्त,
और समस्त प्रयासों से परे — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ऐसे चिद्रूप आत्मा को पूर्ण रूप से आश्रय बना।
ऐसे ही पूर्णबुद्धि वाले धीर पुरुष —
जो निरासक्त चित्त से स्थित हैं —
वे न जीवन से हर्षित होते हैं, न मृत्यु से व्यथित।
प्राण — यह दिन-रात ब्रह्म की स्पंदनशक्ति है,
जो देह के भीतर और बाहर निरंतर गतिशील है —
और सदैव ऊपर की ओर स्थित है।
अपान भी वही ब्रह्म की स्पंदनशक्ति है,
जो देह के भीतर-बाहर निरंतर गतिशील है —
परंतु वह नीचे की दिशा में कार्य करता है।
जागृत और स्वप्न की स्थितियों में —
जिस प्राणायाम की स्वाभाविक गति चलती रहती है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह ज्ञानी को सहज प्राप्त होता है —
अब उसी के गूढ़ रहस्य को सुनो।
जब श्वास बाहर की ओर द्वादश अंगुल तक फैलती है,
और उस स्पर्श को अनुभव किया जाता है —
तो उसे 'पूरक' कहा जाता है।
हे सुव्रत! अपान चंद्रमा है — वह शरीर को पुष्ट करता है।
प्राण सूर्य या अग्नि है — वह इस शरीर को पचाता है।
जब प्राण का क्षय होने लगे
और अपान की गति शीर्ष को छूने लगे —
तो प्राण और अपान के इस मिलन में —
चैतन्य आत्मा को आश्रय बना।
जहाँ अपान अस्त हो चुका हो और प्राण अभी उदित न हुआ हो —
उस क्षण की शुद्ध, निर्दोष स्थिति — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वही चित्त का परम तत्त्व है — उसे धारण कर।
जहाँ न अपान अस्त हुआ हो,
और न ही प्राण उदित हुआ हो —
सिर्फ नासिका के अग्रभाग में गति का चक्र चल रहा हो —
वही चित्त का शुद्ध तत्त्व है — उसे अपनाओ।
यह जो जगत् प्रतीत हो रहा है —
यह केवल आभास मात्र है —
न यह सत्य है, न स्थायी।
इसलिए जो इस भिन्नता की गणना का त्याग करता है —
वही सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करता है।
ब्रह्म भी यदि केवल आभास रूप में अनुभव हो,
और चित्त की धारणा से कलुषित हो —
तो उसे भी त्याग दो — और Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
उस निराभास, निर्विकल्प स्वरूप में स्थित हो जाओ।
जो मन भय उत्पन्न करता है,
शांति का नाश करता है,
और धैर्य को हर लेता है —
उस मन रूपी पिशाच को निकाल फेंको —
फिर तुम वही हो जो तुम हो — स्थिर, अविचल।
इस समस्त ब्रह्मांड में,
केवल चैतन्य आकाश ही शेष रहता है —
जो पर और अपरा से रहित है —
कल्पांत में भी वही अवशेष है —
शुद्ध, निर्विकल्प चैतन्य।
जिस क्षण कोई इच्छा पूरी होती है —
और तुष्टि आती है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वहीं समझो कि तुष्टि का कारण स्वयं इच्छा ही है।
यह तुष्टि, अतुष्टि तक सीमित है —
इसलिए इच्छा का पूर्णतः परित्याग कर दो।
आशा का रूप बदलकर निराशा बन जाए —
भावनाएँ लुप्त हो जाएँ —
मन अमन बन जाए —
यह सब तभी संभव है, जब तुम असंग होकर जीओ।
जब इंद्रियाँ भीतर से वासनारहित हो जाती हैं,
तो वे जो कुछ भी ग्रहण करती हैं —
वह विकार उत्पन्न नहीं करता —
जैसे आकाश में सैकड़ों कम्पन भी कोई विकृति नहीं लाते।
चित्त के खुलने और बंद होने से
संसार की सृष्टि और लय होती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसलिए वासना और प्राण के संयोग को रोक कर —
चित्त को उस उन्मेष में स्थिर करो —
जहाँ कोई संकल्प न हो, कोई द्वंद्व न हो।
प्राण की गति — उन्मेष और निमेष —
इनसे सृष्टि का प्रलय और उदय होता है।
अब अभ्यास और प्रयोग द्वारा
उसी उन्मेष को शून्य कर दो।
मूर्खों में भी — उन्मेष और निमेष से ही
कर्मों का उदय और लय होता है।
परंतु तुम — गुरु और शास्त्र के साथ —
उस चक्र को बलपूर्वक विलीन कर दो।
सिर्फ चेतना के स्पंदनमात्र से Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
चित्त, अचित्तता में प्रवेश कर जाता है।
और प्राणों के निरोध से —
वही परम पद साक्षात होता है।
जो सुख दृश्य और दर्शन के संयोग में प्राप्त होता है —
वही पारमार्थिक सुख है।
उसे तुम — अन्तःस्थित एकान्तबुद्धि से —
ब्रह्मदृष्टि में अनुभव करो।
जहाँ चित्त की कोई उदयवस्था न हो —
वही अकृत्रिम सुख है —
जो क्षय या अति से मुक्त है,
न कभी उदित होता है, न ही समाप्त।
जिसका चित्त अब चित्त नहीं कहलाता —
वही चित्त वास्तव में चित्ततत्त्व है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
और वही अवस्था तुर्य है —
जो तुर्यातीत की ओर बढ़ती है।
जो मुनि समस्त संकल्पों को त्याग चुका है,
जो सम और शांतचित्त है —
जो संन्यास और योग से युक्त है —
वही ज्ञानवान है, वही मुक्त है।
जिसमें सभी संकल्प शांत हो गए हों,
वासनाएं ठोस रूप में न रह गई हों,
और कोई भी भाव की कल्पना शेष न हो —
वही परम ब्रह्म कहा गया है।
जो एकनिष्ठ समाधि के द्वारा,
सम्यक् ज्ञान के प्रकाश में जीते हैं —
वही सांख्य कहलाते हैं —
और वही योग के पार भी होते हैं।
जो प्राण और अन्य वायु तत्त्वों को शांत करके
उस पद को प्राप्त करते हैं —
वो ज्ञानी योगयोगी कहे जाते हैं — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो अनामय, अनादि और अनंत होते हैं।
वास्तव में सबके लिए जो श्रेष्ठ और सहज पद है,
वह है — शुद्ध, अकृत्रिम, मौन अवस्था।
और उसे प्राप्त करने के तीन साधन हैं —
एक ही लक्ष्य में मन का लगाव,
प्राण का निरोध,
और चित्त का पूर्ण क्षय।
इन तीनों में — यदि एक सिद्ध हो जाए —
तो अन्य दो भी स्वयं सिद्ध हो जाते हैं।
क्योंकि प्राण और चित्त —
सदैव अविनाभाव से जुड़े होते हैं।
ये दोनों — जैसे आधार और अधेय — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
एक साथ रहते हैं या नष्ट होते हैं।
यदि दोनों का संपूर्ण अंत हो जाए —
तो वही होता है मोक्ष — वही श्रेष्ठ कार्य।
यदि तू सब भावनाओं और चिंताओं को त्याग कर,
स्थिर हो जाए —
तो अहंकार के लय के साथ ही
तू स्वयं परम पद बन जाता है।
इस सम्पूर्ण जगत में —
केवल महाचैतन्य ही सत्य है —
जो निष्कलंक, सम, शुद्ध,
और अहंकार से रहित है।
वह एक बार प्रकाशित हो जाता है —
तो फिर सदा प्रकाशित रहता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह निष्कलंक, नित्य, समभाव में स्थित —
वही है ब्रह्म, वही परमात्मा —
उसी के अनेक नाम हैं।
अब यदि यह दृढ़ निश्चय हो जाए कि — "मैं वही हूँ" —
तो जीवन में कुछ शेष नहीं रहता —
सब पूर्ण हो जाता है।
न अतीत की चिंता,
न भविष्य की कल्पना।
अब मैं — केवल दृष्टि में ही स्थिर हूँ —
वर्तमान की चेतना में ही जी रहा हूँ।
यह जो आज मुझे मिला है —
वही सब कुछ है,
और जो भी आएगा — वह सुंदर होगा। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अब मैं किसी की स्तुति नहीं करता,
न ही किसी की निंदा।
क्योंकि मुझसे अलग अब कोई और है ही नहीं।
न शुभ से प्रसन्न होता हूँ,
न अशुभ से दुखी।
अब मेरा मन शांत है —
न उसमें चंचलता रही,
न शोक,
न ही कोई इच्छा शेष।
अब मैं मुनि की भांति
पूर्ण स्वास्थ्य और शांति में जी रहा हूँ।
अब मैं यह नहीं जानता — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
कि यह मेरा है या पराया,
यह मित्र है या शत्रु।
ब्रह्म की दृष्टि में —
स्पर्श ही नहीं करता मैं किसी को।
वासनाओं के त्याग से
जन्म-मरण की पीड़ा मिट जाती है।
जब मन वासनाओं से भरा हो —
तो वह ज्ञान का साधन है।
और जब वासनारहित हो जाए —
तो वही निर्विकल्प ब्रह्म है।
चित्त के लय को प्राप्त होने पर
द्वैत पूर्णतः समाप्त हो जाता है।
फिर शेष रह जाता है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
परम शान्त, अचल, निरामय एकत्व।
वह जो अनंत है, अजन्मा है,
अव्यक्त, अजर और अचल है,
जो अद्वितीय, अनादि और अनन्त है —
उसी का अनुभव ही मूल अनुभूति है।
वह एकमात्र है —
आदि और अंत से रहित,
शुद्ध चैतन्य स्वरूप,
इतना सूक्ष्म —
कि आकाश से भी परे है।
वही ब्रह्म मैं हूँ —
इसमें कोई संदेह नहीं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
दिशाओं और काल से परे,
निर्मल, नित्य प्रकाशित,
हर ओर व्याप्त —
सर्वार्थमय होकर भी
केवल एक ही अर्थ में स्थित —
वही शुद्ध चैतन्य बनो।
यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
एक ही शांत सत्ता है —
जिसमें आदि, मध्य और अंत नहीं।
भाव और अभाव से परे —
उसे जानो, और सदा सुखी रहो।
मैं न बंधन में हूँ,
न ही मुक्ति की आवश्यकता है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैं तो स्वयं ब्रह्म हूँ,
निर्दोष, द्वैत से मुक्त,
सच्चिदानन्द स्वरूप।
ऐसा अनुभव यदि दृढ़ हो जाए —
तो तू जीवन्मुक्त हो जाएगा।
इस देह और विषयों की धारणा से
सभी पदार्थों को दूर कर दे।
और अपने भीतर की
शीतल, शांत, शुद्ध चेतना में
स्थायी रूप से स्थित हो जा।
"यह अच्छा है, यह नहीं" —
यही है दुःख का बीज।
जब इस भेद को Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
समानता की अग्नि में जला देगा —
तो दुःख आने का अवसर ही नहीं रहेगा।
शास्त्रों, सज्जनों और
वैराग्य के अभ्यास से —
प्रज्ञा को सबसे पहले पुष्ट करो।
ऋत, सत्य, परम ब्रह्म —
संसार का एकमात्र औषध है —
जो अत्यंत पवित्र, नित्य,
आदि-मध्य-अंत से रहित है।
वह ब्रह्म — न स्थूल है,
न स्पर्श्य, न आँखों से देख सकने योग्य,
न उसका कोई रस है,
न गंध — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह अप्रमेय और अनुपम है।
हे शुभ व्रती!
अपने को सच्चिदानन्द ब्रह्म जान,
और इस दृढ़ विचार से कह —
"मैं वही हूँ!"
यही ध्यान, सब बंधनों से मुक्ति देता है।
समाधि — वही संविद की उत्पत्ति है,
जहाँ आत्मा —
सर्वत्र स्थित होकर भी
शुद्ध और दोषरहित बना रहता है।
जो एक है —
मायाजन्य भ्रांति से Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अलग-अलग प्रतीत होता है —
लेकिन वास्तव में वह अद्वैत है —
न संसार है, न कोई भ्रम।
जैसे घटाकाश और महाकाश कहे जाते हैं —
वैसे ही आत्मा भी —
भ्रमवश जीव और ईश्वर रूप में प्रतीत होता है।
जब मन में चैतन्य का अनुभव
सर्वत्र समान रूप से होने लगे —
तब योगी बिना किसी भेद के
स्वयं ब्रह्म में स्थित हो जाता है।
जब योगी —
सभी प्राणियों को अपने भीतर देखता है,
और अपने को सभी में — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तब वह सदा ब्रह्मस्वरूप होता है।
और जब वह समाधि में स्थित होकर
किसी भिन्नता को देख ही नहीं पाता —
तब वह परब्रह्म में विलीन होकर
एकमात्र रह जाता है — केवल एक।
शास्त्र, सज्जनों का संग,
वैराग्य और अभ्यास —
ये पहली भूमि हैं —
जो मोक्ष की इच्छा को जन्म देती हैं।
दूसरी भूमि है — विचारणा।
तीसरी — सशक्त भावना।
चौथी — विलीनता,
जो वासनाओं के अंत को लाती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
पाँचवीं भूमि में —
मन और संवेदना शुद्ध होकर
सच्चिदानंद रूप में प्रकट होते हैं।
यहाँ जीवन्मुक्त जीता है —
मानो आधा जाग्रत, आधा सुप्त।
छठी भूमि —
असंवेदनात्मक है —
जहाँ आनंद ही एकमात्र अनुभव है —
सुषुप्ति जैसी, पर उससे कहीं गहन।
सातवीं भूमि —
तुर्य की पूर्ण शान्त अवस्था है।
यह ही केवल मुक्ति है —
जहाँ समता, स्वच्छता और माधुर्य है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
और जो भूमि तुर्य से भी परे है —
वही परम निर्वाण है।
यह सातवीं भूमि ही —
पूर्ण प्रौढ़ता है —
जहाँ विषयों का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति —
ये तीन प्रारंभिक अवस्थाएँ हैं।
चौथी — स्वप्न के समान है —
जहाँ जगत प्रतीत होता है।
पाँचवीं — आनंद की सघन अवस्था है,
जिसे सुषुप्ति कहा गया है।
छठी — संवेदना-रहित —
जिसे तुर्यपद कहा गया है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
और सातवीं —
तुर्यातीत की परम अवस्था है —
जो मन और वाणी से परे है —
स्वप्रकाशी, शुद्ध आत्मा की स्थिति।
जब चेतना अंतर्मुख होकर
पूरी तरह बाहर की वस्तुओं से विलीन हो जाए —
तब वह मुक्त होता है —
और उसकी मुक्ति में
कोई संदेह नहीं रह जाता —
क्योंकि वह महासमता बन जाता है।
मैं न मरता हूँ, न जीता हूँ।
न मैं सत् हूँ, न असत्। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जब यह जान लिया कि "मैं कुछ नहीं, केवल चेतना हूँ",
तब जीवन में कोई शोक नहीं बचता।
मैं लिप्त नहीं होता, जरा मुझे नहीं छूती,
मैं शुद्ध चेतना का आकाश हूँ – वासनारहित, शांत, अंशरहित।
जिसने यह पहचाना, वह कभी दुखी नहीं होता।
'मैं' की भावना से परे,
मैं शुद्ध हूँ, जागरूक हूँ, अजर हूँ, अमर हूँ।
मैं शांति और समता से दीप्त हूँ –
और जिसने यह अनुभव कर लिया, वह भी दुख से परे हो गया।
घास के तिनके में, आकाश में, सूर्य में,
मनुष्य में, पशु में, देव में –
जो एकरस व्याप्त है, वही मैं हूँ।
जब यह आत्मबोध होता है – Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तब कोई चिंता, कोई कमी नहीं रहती।
सभी भावनाओं और अनुभूतियों को पार कर,
जो शेष रह जाए – वही परम ब्रह्म है।
उसी में स्थित हो जा।
वह वाणी के पार है, विषयों से रहित है,
और परमानंद की लहरों में लीन है –
अपने ही आत्मा में रमण करता है।
जो सभी कर्मों को त्याग चुका है,
जो सदा संतुष्ट है, किसी पर आश्रित नहीं –
उसे पुण्य छू नहीं सकता, पाप बांध नहीं सकता।
जैसे क्रिस्टल में पड़ने वाला प्रतिबिंब उसे रंग नहीं देता,
वैसे ही आत्मज्ञानी को कर्मफल रंग नहीं सकता।
जो भजन करता है, पूजन करता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
हँसता है, रोता है –
फिर भी भीतर से मुक्त रहता है,
जैसे वह सब कुछ केवल देख रहा हो।
वह स्तुति-निंदा से परे है,
अचल है, विकाररहित है।
उसे पूजा की ज़रूरत नहीं,
न कोई सामाजिक नियम उसे बाँधते हैं,
न उनसे वह अलग होता है।
वह तीर्थ में शरीर त्यागे या किसी अछूत के घर में –
अगर ज्ञान की सम्पूर्णता है,
तो वह मुक्त होता है, इच्छाओं से रहित।
बंधन का कारण – संकल्प है।
संकल्पों को छोड़ दे – Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
और उसी अभ्यास में तुझमें मोक्ष जागेगा।
सावधान हो –
जब भी तुझे कोई चीज़ आकर्षित करे,
समझ ले तू बंधन में है।
जब कुछ भी रुचिकर न लगे –
तू मुक्त है।
तृण से लेकर शरीर तक,
जड़ से लेकर चेतन तक,
कुछ भी तुझे आकर्षित न करे।
‘मैं हूँ’ और ‘मैं नहीं हूँ’ –
इन दोनों से परे,
जो सम, शुद्ध और सहज स्थित हो –
वही तुर्य अवस्था है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
शुद्ध समता और शांति –
यही जीवन्मुक्त की स्थिति है।
वह न जाग्रत है, न स्वप्न, न सुषुप्ति –
यह सब संकल्पों का खेल है।
बुद्धों को यह जगत विलीन प्रतीत होता है,
और अबुद्धों को स्थिर।
पर जब अहंकार की कलाएं मिट जाएं,
और समता भीतर जन्म ले –
तब तुर्य अवस्था स्फुरित होती है।
यही सभी शास्त्रों का अंतिम सिद्धांत है –
ना माया, ना अज्ञान –
केवल शुद्ध, शांत ब्रह्म की अवस्था। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
चिदाकाश में,
शांत, सम, समग्र शक्तियों से भरपूर ब्रह्म में
स्थिर हो जा।
सभी को छोड़कर
तू महान मौन बन –
मनहीन, चित्तशून्य, आत्मा से पूर्ण।
जो बाहर से मूक, अंध, बधिर प्रतीत होता हो,
पर भीतर से दीपित हो –
वही सच्चा ज्ञानी है।
जाग्रत रहते हुए भी भीतर सुषुप्त सा रह,
बाहर के कर्म सहजता से कर।
चित्त ही दुःख है –
उसका त्याग ही सुख है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अपने चित्त को चिदाकाश में विलीन कर –
जहां न कोई विचार हो, न अनुभव।
दृश्य चाहे सुंदर हो या कुरूप –
तू सदा स्थिर रह,
जैसे कोई पाषाण खड़ा हो।
यही आत्मिक प्रयास है –
यही मुक्ति का द्वार है।
यह वेदान्त का गूढ़तम रहस्य है –
जो केवल शांतचित्त, शुद्धहृदय को ही दिया जाता है।
जो इसे गुरु-कृपा से पढ़ता है –
वह जीवन्मुक्त होता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
और अंततः स्वयं ब्रह्म ही बन जाता है।
इत्युपनिषत् ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५॥
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इत्यन्नपूर्णोपनिषत्समाप्ता ॥