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छान्दोग्य उपनिषद् में श्वेतकेतु ने जो ब्रह्मविद्या यामारुणि से प्राप्त की थी,
उस ब्रह्मविद्या का मैं संक्षेप में वर्णन करूंगा, जिससे सहज बुद्धि को लाभ हो।
वेदों को पढ़ लेने के अहंकार में डूबा हुआ श्वेतकेतु,
अंतर्मुख नहीं था; उसे अंतर्मुख करने के लिए गुरु ने आश्चर्यचकित कर देनेवाले शब्द कहे।
जब "एक तत्व" को जाना जाता है, तो सब कुछ जो नहीं सुना गया, वह भी जैसे सुना गया हो जाता है,
जो न जाना गया वह जाना जाता है, और जो न समझा गया वह भी समझ में आ जाता है।
यदि ऋग्वेद का ज्ञान हो जाए, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
तो यजुर्वेद आदि वेदों को भी जाना जा सकता है —
इसलिए एक ही बुद्धि से सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो सकता है — यह एक अलौकिक बात है।
परन्तु यह बात सामान्य मिट्टी, तांबा, लोहा आदि में नहीं देखी जाती,
कि मिट्टी को जान लेने से सब मिट्टी से बने पदार्थों को स्पष्टता से जाना जा सके।
मिट्टी से घट, शराव आदि वस्तुएँ बनती हैं — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
विभिन्न रूपों के विकार के कारण वे विभिन्न दिखाई देती हैं —
परन्तु यदि मिट्टी का ज्ञान हो, तो वह सब भी समझ में आ जाता है;
जो कहा जाए कि नहीं समझ में आता, वह बात नहीं टिकती।
घट का जो रूप है, वह रूप जिस आधार पर टिका है, वह मिट्टी है —
मिट्टी ही आधार है और रूप आकार है — दोनों मिलकर ही घट हैं।
यदि केवल आधार (मिट्टी) का ही ज्ञान हो जाए,
तो घट को भी जाना गया मान लिया जाता है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जैसे गाय की पूँछ छू लेने से पूरी गाय का स्पर्श माना जाता है,
उसी प्रकार यह ज्ञान भी पूर्ण होता है।
जैसे केवल रूप के ज्ञान से घट के ज्ञान का निषेध किया जाता है,
उसी प्रकार जब आधार का ज्ञान होता है तो फिर घट को क्यों नहीं जाना गया माना जाए?
आकार और आधार — दोनों के ज्ञान में समान भाग होता है —
मिट्टी के बिना केवल आकार मात्र से घट कहीं नहीं दिखाई देता।
घट आदि कार्यरूप वस्तुएँ मिट्टी रूपी कारण द्रव्य से उत्पन्न होती हैं।
तार्किक कहते हैं कि घट में जो मिट्टी है, वह भिन्न होकर उसमें समवेत रहती है।
वह अपनी युक्ति से यह कहता है, पर यह लोक में स्वीकार्य नहीं है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
घट में मिट्टी यदि अलग मानी जाए, तो उसका तत्त्व क्या कहा जाए?
क्या वह केवल वाणी से ही आरंभ होती है या सचमुच पृथक् लाई जाती है — बताओ।
यदि वह वाणी से ही आरंभ हो, तो वह कुछ भी नहीं — आकाश के फूल के समान है।
मृगतृष्णा के जल में स्नान करना, आकाश-पुष्प से शिखा बनाना,
और बाँझ स्त्री का पुत्र — ये सब निरर्थक और असत्य हैं।
बुद्धिमान् भी घट को मिट्टी से पृथक् नहीं कर सकता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
इसलिए यह स्वीकार करना उचित है कि घट मिथ्या है, सत्य नहीं।
तुमने समवाय संबंध कहा, पर हम आरोप संबंध को स्वीकार करते हैं।
जैसे किसी खम्भे पर चोर का आरोपण होता है, वैसे ही मिट्टी पर घट का।
आरोप से पहले और बाद में उसका अभाव ही है, इसलिए वह असत्य है।
जो वस्तु आदि और अंत में नहीं है, वह वर्तमान में भी वैसे ही असत्य होती है।
तीनों कालों में जो बना रहता है, वह खम्भा सत्य है — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उसी तरह मिट्टी भी सत्य है, यह देखा जाए।
सत्य और असत्य के मिश्रण से घट कहा जाता है।
मिट्टी और घट — दोनों के लिए शब्द, ज्ञान और क्रिया अलग-अलग होते हैं।
जैसे खम्भे और चोर में अलग-अलग देखे जाते हैं, वैसे ही यहाँ भी।
विवेकी पुरुष जानते हुए भी दो प्रकार के व्यवहार करता है —
पर उसका तात्पर्य मिट्टी में ही रहता है, घट जैसे असत्य में नहीं।
गन्ने में रस होता है, उसके रेशे भी होते हैं — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
बुद्धिमान् रस को ही ग्रहण करता है।
उसी प्रकार घट में भी मिट्टी वाले भाग को ही महत्त्व देना चाहिए।
घट आदि में जो मिट्टी का भाग है, उसे ही आदरपूर्वक जानना चाहिए।
वे सब समष्टि ज्ञान से ही जाने जाते हैं।
मिट्टी एक होते हुए भी सभी रूपों में व्यापक होती है,
पर उन रूपों की उपाधियों से भिन्न होकर,
जब निष्कलंक ज्ञान होता है, तब सब कुछ उपहित बुद्धि के रूप में जान पड़ता है।
कंगन आदि में सत्य भाग को सुवर्ण की बुद्धि से जाना जाता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
और कुल्हाड़ी आदि में सत्य भाग को लोहा समझकर।
जो भी कार्य होता है, उसकी बुद्धि उसके अपने उपादान से ही बनती है।
इस व्याप्ति को बताने के लिए अनेक दृष्टांत श्रुतियों में दिए गए हैं।
यदि सारी सृष्टि के लिए उपादान एक ही हो — यह श्रुति में कहा गया है —
तो जब एक को जान लिया, तो सब कुछ जान लिया — फिर इसमें अलौकिकता कहाँ रही?
श्रवण गुरु व शास्त्र से होता है,
मनन अपनी युक्तियों से होता है,
और ज्ञान अपनी अनुभव से — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
श्रवण, मनन और निदिध्यासन का संकर नहीं होना चाहिए।
श्वेतकेतु ने जब यह विश्वास किया कि एक ज्ञान से ही सबका ज्ञान संभव है,
तो वह अंतर्मुख हुआ — और उसके लिए सबका उपादान बतलाया गया।
यह जो जगत् आज नाम और रूप से युक्त देखा जा रहा है,
सृष्टि से पहले वह केवल ‘सत्’ था — नाम और रूप से रहित।
जैसे मिट्टी, ताँबा और लोहा — इनसे उत्पन्न वस्तुएँ
अपने विकार से पहले केवल उपादान ही थीं —
वैसे ही यह सम्पूर्ण जगत् भी मूलतः वही था।
स्व-जाति, विजाति और उत्थानजन्य भेदों से रहित होने के कारण,
वह "सत् वस्तु" एकमेव अद्वितीय है — इस प्रकार समझो। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वृक्ष का स्वगतो भेद उसकी शाखा आदि अवयवों के कारण होता है,
सजातीय भेद अन्य वृक्ष से और विजातीय भेद शिला आदि से होता है।
परंतु "सत्य" के अवयव नहीं होते, इसलिए वह अखण्ड ही होता है।
इसलिए उसमें न तो सजातीयता है, न विजातीयता — ये दोनों दुर्बल तर्क हैं।
"एक", आदि शब्दों से इन तीन भेदों को नकारा गया है।
जो वस्तु समस्त भेदों से रहित हो, वही अखण्ड सत् है — उसे ही देखो।
"अस्ति" — यह शब्द और बुद्धि — ये दोनों नाम और रूप में प्रकट होते हैं।
इनके अभाव के कारण सृष्टि से पूर्व शून्य ही था — ऐसा अवैदिक कहते हैं।
किन्तु नाम-रूप से युक्त यह सृष्टि यदि शून्य से उत्पन्न मानी जाए, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
तो यह ठीक नहीं, जैसे बाँझ के पुत्र से अन्य पुत्र की उत्पत्ति हो — यह असम्भव है।
यदि कारण शून्य हो, तो नाम भी शून्य, रूप भी शून्य — ऐसा विचार अनुचित है।
शून्य का अनुबोधन कभी प्रकट नहीं होता, परंतु सत् का प्रकट ज्ञान होता है।
अतः यह निश्चित हो कि समस्त सृष्टि का कारण सत् ही है।
उसने "मैं अनेक हो जाऊँ" ऐसा संकल्प करके माया से सृष्टि की।
यदि वस्तुतः बहुता (अनेकता) हो जाए, तो अद्वैत सत् नष्ट हो जाए।
परंतु "नाश न हो" — इस श्रुति वाक्य से व्यापक सृष्टि की व्याख्या की गई है।
"प्रकर्ष" का अर्थ है — पूर्व की तुलना में अधिकता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वह "माया" न तो सच्ची है, न शून्य — क्योंकि वह दोषयुक्त है।
माया से बहुरूपता उत्पन्न होने पर भी सत् अद्वैत नष्ट नहीं होता।
क्योंकि माया के रूपों का कोई द्वितीयत्व (स्वतंत्र सत्ता) सम्भव नहीं है।
माया एक अचिन्त्य शक्ति है — वह असम्भव को भी सम्भव कर देती है।
इसी माया के कारण सत् को उपादान और निमित्त कारण कहा गया है।
"मैं अनेक हो जाऊँ" — यह उपादान (सामग्री) भाव का संकेत है, जैसे मिट्टी।
"उसने इच्छा की" — यह निमित्त (कर्त्ता) भाव है, जैसे कुम्हार। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
माया की विशेष वृत्ति में जो चेतना की छाया है, वही है उसका दीक्षणम् (इच्छा)।
उसने देख कर, संकल्प से, तेज को उत्पन्न किया — यह उसकी लीला थी।
तैत्तिरीय उपनिषद कहता है कि पहले आकाश और वायु की सृष्टि हुई।
और आरण्यक ऋषि ने कहा कि सृष्टि की आरंभिका तेज (प्रकाश) ही था।
सृष्टि की व्याख्या केवल ब्रह्म को इंगित करने के लिए की जाती है।
क्योंकि इस जगत की पूर्णता को बताना वास्तव में सम्भव नहीं।
यद्यपि तेजस् जड़ है, फिर भी उसमें कञ्चुक (माया की आवरण) युक्तता है।
इसलिए पहले सत्-ब्रह्म की भाँति उस तेज का संकल्प हुआ, और फिर उससे जल उत्पन्न हुआ।
जल में भी वही कञ्चुक है — फिर उससे ब्रह्म ने पृथ्वी और अन्न को उत्पन्न किया।
तेज, जल और अन्न से देह के बीज उत्पन्न हुए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जनन की दृष्टि से तीन प्रकार के जीव होते हैं —
जारायुज (गर्भ से), अण्डज (अण्डे से), और उद्भिज्ज (उत्पत्ति से)।
इनमें जीव रूप से प्रवेश के लिए ब्रह्म ने संकल्प किया।
फिर उसने देखा और उत्पन्न कीं तेज, जल और अन्न की देवताएँ।
उनसे उसने त्रिवृत्त (तीनों का मिश्रण) करके देह आदि की सृष्टि की।
तेज में जल और अन्न के अंश मिलाकर त्रिवृत्त किया गया।
वैसे ही अन्य दोनों के साथ भी मिश्रण करके त्रिवृत्त किया जाना चाहिए।
तेज, जल, और अन्न — इन त्रिवृत्त भूतों से अण्डजादि देहों की रचना की गई।
और ब्रह्म ने उन सबमें जीव रूप से प्रवेश किया। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
अहंकार यदि चेतना से युक्त हो और प्राण का धारक हो,
तो वही जीव कहलाता है — वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होता है।
इस प्रकार सत् वस्तु में ही मायारूप आरोप करके संसार की सृष्टि की गई।
उस अज्ञानजन्य आरोप की निवृत्ति हेतु विचार करना चाहिए।
त्रिवृत्त (तीन तत्वों का मिश्रण) का सृष्टिक्रम, आरंभ में ही विचारकों द्वारा बताया गया है।
तेज में भी जल और अन्न के अंश उपस्थित होते हैं।
ज्वाला में जो लालिमा है, वह तेज का स्वरूप है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उसमें थोड़ा श्वेत — जल का — और थोड़ा कृष्ण — पृथ्वी का अंश होता है।
इस प्रकार तीन रूपों से युक्त अग्नि, भौतिक अग्नि कही जाती है।
जो केवल कारण से रहित होकर नाममात्र से आरंभ हो, वह व्यर्थ है।
इस प्रकार दृश्य जगत् की मिथ्यात्वता बताने के लिए यह क्रम आरंभ हुआ।
तेज, जल, और अन्न — इन तीनों से चाक्षुष (दृश्य) जगत की उत्पत्ति बताई गई है।
सूर्य, चंद्रमा और विद्युत् — इनमें भी अग्नि की भाँति मिथ्यात्व का ज्ञान होना चाहिए।
इनके प्रसार को समझ कर कार्य की मिथ्यात्वता का अनुमान लगाया जाना चाहिए।
यदि तेज, जल और अन्न — इन तीन कार्यों की मिथ्यात्वता सिद्ध हो जाए,
तो केवल अद्वैत सत् ही शेष रहता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
इन सबका कारण सत् ही सत्य है — यही पूर्व आचार्यों की मति है।
दृश्य में जो बाह्य है, वह भौतिक ही हो, किन्तु देह में ऐसा नहीं।
यह मूढ़ बुद्धि वालों की नृत्य-भांति है कि देह को भी भौतिक कहा जाता है।
जो पार्थिव अन्न खाया जाता है, वह बुद्धि, माँस और मल के रूप में —
सूक्ष्म, मध्य और स्थूल भागों में — इस देह में परिणत होता है।
जल की परिणति प्राण, रक्त और मूत्र — तीन प्रकार से होती है।
तेज की परिणति वाणी, मज्जा, और अस्थि के रूप में होती है, जैसे घी, तैल आदि।
स्थूल और मध्य भागों में कारणों की अनुगति स्पष्ट होती है।
बुद्धि, प्राण और वाणी में संदेह को दधि के दृष्टांत से समझाया गया है।
जैसे दधि में विलीन दधि-अंश (मलाई) दिखाई नहीं देता, किन्तु —
दधि की क्रियाशीलता उसमें विद्यमान है, यह सर्वमान्य है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वैसे ही मन, प्राण और वाणी — अन्नादि की क्रिया से उत्पन्न हों —
क्योंकि वे इंद्रियों के परे हैं, प्रत्यक्ष कारण की अनुगति नहीं देखी जाती।
तार्किक कहता है कि मन नित्य द्रव्य है, अन्न से उत्पन्न नहीं होता।
उसे अंगार (अंगारे) के दृष्टांत से समझाया जाता है।
जैसे लकड़ी के समाप्त होने पर अंगार केवल जुगनू सा प्रतीत होता है —
किन्तु लकड़ी के बढ़ते ही अग्नि प्रज्वलित होती है — वैसे ही विद्या और मन की वृद्धि होती है।
अन्न के त्याग पर पन्द्रह दिनों में मन क्षीण हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
इसलिए श्वेतकेतु कुछ भी स्मरण करने में असमर्थ हो गया।
किन्तु जैसे ही अन्न से मन पुष्ट हुआ, उसी क्षण उसने वेदों का स्मरण किया।
इससे अन्वय और व्यतिरेक द्वारा सिद्ध हो कि मन अन्नमय है।
जब समस्त का भौतिकत्व इस प्रकार स्थिर हो — Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
तो भूतों के अतिरिक्त जो कुछ है, वह नहीं है, जैसे भूत भी सद्वस्तु से भिन्न नहीं हैं।
जो अद्वैत सत् है, वही जगत् का कारण है, जिसे श्वेतकेतु ने जाना —
किन्तु इतने से उसका जीवत्व समाप्त नहीं होता।
अपितु जब वह अपने ब्रह्मरूप को जानता है, तब जीवत्व नष्ट होता है।
यह सोचकर गुरु पुनः उस शिष्य को प्रेरित करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
"स्वप्न का अंत जानो, जिसे मैं मुख से स्पष्ट करता हूँ।
सुप्ति में अपना स्वरूप सत्-तत्त्व ही है, यह स्पष्ट रूप से समझो।"
जब पुरुष सुषुप्ति को प्राप्त होता है, तब लोग कहते हैं —
"यह सो गया", इस शब्द का तात्पर्य विचार किया जाए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
अज्ञानी ‘स्वपिति’ शब्द को क्रियापद मानते हैं,
किन्तु विवेकी इसे नामपद (सुबन्त) मानते हैं — जो वस्तुतत्त्व का प्रकाशक है।
स्वप्न और जागरण में जीव सत्-तत्त्व से भिन्न सा प्रतीत होता है —
किन्तु सुषुप्ति में वह पूर्णतः सत् से एकरूप हो जाता है।
प्राणधारण के कारण आत्मा का जीवत्व नहीं है, वह स्वभावतः नहीं होता।
उसका सत्-स्वरूप स्वतः सिद्ध है — यह 'स्वपिति' शब्द से स्पष्ट है।
‘स्वम् अपि इति’ — अर्थात् "अपने में स्थित होता है" — यही इस शब्द की निरुक्ति है।
वास्तविक स्वरूप सुषुप्ति में प्राप्त होता है — ऐसा कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जाग्रत और सुषुप्ति की अवस्थाएँ मन की उपाधियाँ हैं, आत्मा की नहीं।
इसी हेतु ‘पक्षी के दृष्टांत’ से बुद्धि को समझाया जाता है।
जो पक्षी डोरी से बंधा है, वह विविध दिशाओं में उड़ता है —
किन्तु जब आकाश में कोई आधार न पाता, तब वह अपने बंधन-स्थान को लौट आता है।
वैसे ही मन जब सत्-तत्त्व से प्रेरित होकर जागरण को प्राप्त होता है —
और जब वहाँ विश्रांति नहीं पाता, तब पुनः सत्-तत्त्व में लीन हो जाता है।
मन के साथ आत्मा की छाया भी सदा आती-जाती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यही गति और गतिरोध संसार है — और वह अपने ही आत्मा में कल्पित है।
जब मन लीन होता है, तब उपाधिरहित आत्मा संसार से रहित हो जाता है —
और अपने वास्तविक स्वरूप में सुषुप्ति में स्थित रहता है।
चेतना की छाया और स्थूल शरीर तथा इन्द्रियाँ आत्मबोध के द्वार हैं।
मन्त्र कहता है — “रूपं रूपम्” — यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
प्रत्येक शरीर में आत्मा की छाया-रूप में प्रतिबिम्बित होता है आत्मबुद्धि के लिए।
माया से इन्द्र (ईश्वर) ने अनेक प्रकार के शरीर बनाए आत्मबुद्धि हेतु।
इन्द्रियों के रथों से युक्त होकर वह आत्मा अपने स्वरूप को जानने हेतु —
छाया का आश्रय लेकर सुप्तावस्था के वर्णन में बोध को प्राप्त होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
"अशनाय" (भूख) और "पिपासा" (प्यास) की कथन से आत्मा देह में बोधगम्य होता है।
जैसे 'स्वपिति' शब्द — वैसे ही यह द्वन्द्व 'अशनायापिपासा' कहलाता है।
अशनाया (भूख) को लोग क्षुधा कहकर व्यक्त करते हैं — विवेकी उसका विवेचन करते हैं —
कि वह खाये हुए पदार्थ को ले जाती है — जैसे जल (अप्सु) द्वारा इसका निर्वचन होता है।
पिया गया जल खाये हुए अन्न को द्रवित करके ले जाता है —
इसलिए "अशनाया" शब्द से इसका बोध होता है — और मल, माँस आदि की उत्पत्ति अन्न से होती है।
जो अन्न (भोजन) विण्मांस (मल-मांस) का कारण है, उसका उत्पादक जल है,
जल का उत्पादक तेज (ऊष्मा) है, और तेज का भी मूल कारण सत् (असली सत्ता) है।
कार्य (फल) के माध्यम से कारण का अनुमान करना चाहिए, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
इस प्रकार परमार्थ कारण (सत्) को जानना चाहिए — विश्वास अनुमान से उत्पन्न हो।
मल आदि अन्न के कार्य हैं, अन्न सत्य से ही उत्पन्न हुआ है,
जैसे घट (घड़ा) केवल मिट्टी में ही देखा जाता है, न किसी और में।
जैसे व्रीहि (धान) आदि अन्न केवल सत्य में ही (सत् में) देखा जाता है, जल में नहीं,
जल भी केवल ऊष्ण (गर्म) तेज में ही स्वेद (पसीना) रूप में होता है।
तेज भावरूप (सूक्ष्म) होता है, वह सत् के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता।
और सत् की उत्पत्ति का कोई कारण नहीं, इसलिए किसी और कारण की खोज नहीं करनी चाहिए।
सब देहें मूलतः सत् से ही उत्पन्न हुई हैं और वर्तमान में भी उसी में स्थित हैं,
अन्त में भी वे उसी सत् में ही लीन हो जाती हैं — यह जानो कि सत् ही अद्वैत तत्त्व है।
जैसे भूतों (पंचतत्वों) के अतिरिक्त कोई भौतिक वस्तु नहीं होती, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वैसे ही भूत भी सत् के अतिरिक्त नहीं हैं — यह उपपत्ति से सिद्ध किया गया।
‘अशनाया’ (भूख) के माध्यम से बुद्धि को सत्-तत्त्व में प्रविष्ट कराया गया,
अब ‘पिपासा’ (प्यास) के माध्यम से भी उस सत् में बुद्धि उतारी जाती है।
‘उदन्य’ (जल से सम्बंधित) शब्द प्यास का पर्याय है — विवेकी इसे समझते हैं,
उदकं जयती — "जल को जीतता है", इस अर्थ में यह तेज में प्रयुक्त होता है।
जो जल पीया गया है वह शरीर में स्थित होकर तेज से पचाया जाता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
तब उससे मूत्र और रक्त उत्पन्न होते हैं — ये दोनों जल से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि ये द्रव हैं।
उन दोनों (मूत्र और रक्त) से जल का अनुमान होता है, उनसे तेज का, और फिर सत् का।
इस व्यापकता को समझकर, पुनः सब में सत् की योजना (विस्तार) कही जाती है।
जो जो अवयव (अंग) शरीर में हैं, वही पदार्थ बाहर भी हैं, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उन सब में केवल सत्-मात्र की रूपता निश्चित की जाए।
भौतिकत्व पहले देह और बाह्य में बताया गया,
अब इन्द्रियों के द्वार से उसे जानने के लिए मरण-क्रम (मृत्यु की प्रक्रिया) का वर्णन किया जाता है।
मरते समय वाणी आदि की वृत्तियाँ मन में लीन होती हैं,
मन की वृत्ति प्राण में, और प्राण की वृत्ति तेज में लीन हो जाती है।
जब श्वास रुकती है, तब लोग शरीर की ऊष्णता से जीवन की पुष्टि करते हैं,
किन्तु वह ऊष्मा जो है, वह तेज — अन्ततः सत् में लीन हो जाता है।
जो पदार्थ छाया-देह और इन्द्रिय-द्वारों से जाना गया, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वही यह समस्त जगत है — सूक्ष्मतम रूप वाला — वह कोई अन्य वस्तु नहीं है।
स्थूलता और अणुत्व के कारण वस्तु एक होते हुए भी दो रूपों में प्रकट होती है।
स्थूल वस्तु इन्द्रियों से ग्रहण की जाती है, और नाम-रूपात्मक जगत कहलाती है।
सत्-अद्वैत सूक्ष्म होता है, क्योंकि वह इन्द्रिय विषय नहीं है,
और यही सूक्ष्म रूप इस स्थूल का आधार है — यह युक्तियुक्त रूप से कहा गया।
जिस वस्तु का अणुत्व (सूक्ष्मता) बताया गया है, वह सत्य है, क्योंकि वह कभी बाधित नहीं होता।
स्थूलता माया से कल्पित है — ज्ञान से उसकी बाधा होती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जो कभी बाधित न हो, वही आत्मा है — सबका — वह कल्पित नहीं है।
हे श्वेतकेतु! जो अद्वैत सत् है — वही तुम हो — तुम कोई साधारण मानव नहीं हो।
चेतना की छाया से युक्त अहंकार ही वेदों के चारों भागों का अध्ययन करता है।
किन्तु तुम तो उस अहंकार के साक्षी स्वरूप हो, इसलिए तुम वही "सत्" हो, न कि कुछ और।
श्वेतकेतु के हृदय की गांठ विवेक के कारण खुल गई।
और उसने बुद्धि की दोष और संशय को मिटाने के लिए कहा — "कृपया पुनः समझाइए।"
यह कहा गया है कि जीव सुषुप्ति में 'सत्' में लीन हो जाता है।
यदि ऐसा है, तो फिर "मैं 'सत्' में लीन हुआ था" — ऐसी बुद्धि क्यों नहीं होती?
जिस प्रकार विभिन्न वृक्षों के रस एक होकर मधु में स्थित होते हैं, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
किन्तु मधु में प्रत्येक वृक्ष का रस ज्ञात नहीं होता — उसी प्रकार सभी लयों से कोई बुद्धि नहीं रहती।
यहाँ जीव की उपाधियों का लय होता है, किन्तु बीज रूप में कुछ शेष रहता है,
जिसके कारण वही उपाधियुक्त जीव दूसरे दिन उसी शरीर में जागता है।
चित्त की एकाग्रता हेतु यह शंका विषयों में नहीं लानी चाहिए।
पूर्व में जो कहा गया, वही समझने के लिए गुरु ने पुनः उसे बताया।
स्वयं को प्राज्ञ मानकर, तत्व में अविश्वास करते हुए,
श्वेतकेतु ने पुनः-पुनः प्रश्न किया, और गुरु ने पुनः-पुनः उत्तर दिया।
सुषुप्ति में बुद्धि न होने पर भी, जागरण में बुद्धि उपस्थित रहती है।
तो फिर "मैं 'सत्' से आया" — यह ज्ञान क्यों नहीं होता? Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
सुषुप्ति में 'सत्' का स्वरूप न जानकर, उसका एकत्व प्राप्त होता है।
किन्तु 'सत्' से आने का स्मरण नहीं होता — जैसे जल से बादल बनकर फिर वर्षा हो जाती है।
गंगा का जल समुद्र में मिलकर, बादल द्वारा खींचकर फिर बरसता है।
किन्तु यह स्मरण नहीं होता कि यह वहीं का जल है — उसी प्रकार यहाँ भी स्मृति नहीं होती।
व्याघ्र आदि भी सुषुप्ति में ही जागते हैं — वासना के प्रभाव से।
इससे वासना नष्ट नहीं होती — यही बात फिर से बताई जा रही है।
यदि कहा जाए कि नश्वर जीव का एकत्व नित्य 'सत्' से नहीं हो सकता,
तो देखो, जीव कभी नष्ट नहीं होता — जैसे वृक्ष में जीव। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जिस शाखा में जीव होता है, उसे जीव त्यागता है तो वह सूख जाती है,
अन्य शाखाएं नहीं सूखतीं — वैसे ही शरीर जीव के चले जाने पर ही मरता है।
नाम और रूप से युक्त स्थूल शरीर, जब 'सत्' में लीन होता है, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
तो वह सूक्ष्म 'सत्' कैसे उत्पन्न हुआ — यदि यह पूछा जाए, तो बीज से वटवृक्ष के उदाहरण को देखो।
न्याय और शास्त्र से सिद्ध बात को अविश्वासी नहीं जान पाता।
हे श्वेतकेतु! श्रद्धा रखो और अंतर्मुखी बनो।
यदि 'सत्' सर्वत्र है, तो सभी उसे क्यों नहीं जान पाते?
मुक्ति की इच्छा रखने वाला उसे कैसे जानता है — इसका दृष्टांत कहा जाता है।
जैसे जल में मिला लवण त्वचा से ज्ञात नहीं होता, Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
किन्तु जिह्वा से जाना जाता है — उसी प्रकार 'सत्' को उपाय से जाना जाता है।
जब 'सत्' सभी इन्द्रियों से परे है, तो उपाय क्या है?
यह उपाय 'उपदेश' है — जैसे गन्धार की दिशा बताई जाती है।
जो गन्धार देश का था और वन में डाकुओं ने उसकी आंखें बांध दी थीं,
एक कृपालु व्यक्ति ने उसका बंधन खोलकर उसे मार्ग बताया।
उसने उस बताए मार्ग को भूले बिना, बुद्धिमत्ता से गन्धार पहुँच गया।
उसी प्रकार अज्ञान से आच्छादित सत्य तत्व को उपदेश द्वारा जाना जाता है।
विद्वान के लिए संचित और आगामि कर्म का श्लेष नष्ट हो जाता है।
प्रारब्ध जब भोगकर क्षीण होता है, तब वह मुक्त हो जाता है — पुनर्जन्म नहीं होता।
यदि पूछा जाए, उसकी बुद्धि कैसी होती है? — तो जैसे वाक् आदि इन्द्रियाँ,
मूढ़ व्यक्ति की भी वैसे ही होती हैं — किंतु उनमें कोई विशेष अंतर नहीं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
दो व्यक्तियों की मृत्यु एक साथ हुई, पर एक मुक्त हो गया, दूसरा नहीं — ऐसा क्यों?
कारण यह है कि ज्ञानी सत्य में स्थित होता है, मूढ़ असत्य में।
जैसे चोर और अचोर दोनों को चोरी के संदेह में पकड़ा गया,
दोनों ने कहा कि हमने चोरी नहीं की — फिर भी जांच की गई।
उन्हें तप्त परशु पर रखा गया — जिस ने असत्य भाव से कहा, वह जल गया।
वह चोर समझा गया और दंडित हुआ। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जो सत्यसंध था और चोर नहीं था, वह नहीं जला और मुक्त हो गया।
इसी प्रकार अज्ञानी असत्य भाव से जलता है — ज्ञानी सत्य में स्थित होता है।
जो "मैं नश्वर हूँ" ऐसा भाव करता है, वह मरता और जन्म लेता है।
जो "मैं ब्रह्म हूँ" ऐसा भाव करता है, वह मुक्त होता है — जन्म नहीं लेता।
बुद्धि के दोष को दूर करने के लिए ये दृष्टान्त दिए गए हैं।
गुरु ने बार-बार यही उपदेश दिया कि "तुम 'सत्' हो" — नौ बार कहा।
श्वेतकेतु की हृदयगांठ मनन से कट गई, संशय समाप्त हो गया।
उसने 'सत्' के अद्वैत स्वरूप को अपने आत्मा में विशेष रूप से अनुभव किया।
इस प्रकार श्वेतकेतु की ब्रह्मविद्या स्पष्ट रूप से व्याख्यायित हुई।
विद्यातीर्थ महेश्वर हम पर प्रसन्न हों और कृपा करें। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
इति श्रीमद्विधारण्यमुनिविरचिते अनुभूतिप्रकाशे
छान्दोग्योपनिषदि श्वेतकेतुविद्याप्रकाशो नाम तृतीयोऽध्यायः