Amrit Nada Upanishad
अमृतनाद उपनिषद
अमृत नाद उपनिषद
Amrit Nada Upanishad
अमृतनाद उपनिषद
अमृत नाद उपनिषद
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ॐ जिस परब्रह्म की दिव्य महिमा अमृतनाद उपनिषद् में प्रकट होती है — वह अक्षरातीत, परम चेतना, त्रैपद आनंद के साम्राज्य रूप में मेरे हृदय में सदा प्रकाशित होती रहे।
आओ, हम दोनों इस ज्ञानयात्रा में एकजुट हों। एक-दूसरे का संरक्षण करें, साथ मिलकर सामर्थ्य अर्जित करें। हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, और हमारे बीच कोई कलह न हो।
ॐ शांति, शांति, शांति।
वह मेधावी, जो शास्त्रों का गंभीर अध्ययन करता है और बारंबार अभ्यास में रत रहता है — जब वह परम ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेता है, तो वे समस्त ग्रंथ उसके लिए तुच्छ होकर उल्का के समान त्याज्य हो जाते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वह साधक ओंकार को रथ बनाता है, विष्णु को सारथी बनाता है, और ब्रह्मलोक की यात्रा हेतु रुद्र की आराधना में संलग्न हो जाता है।
जब तक वह साधक योगमार्ग पर स्थित होता है, वह रथ से यात्रा करता है। लेकिन जब उसे मार्ग की पूर्णता प्राप्त होती है — तब वह न रथ को, न मार्ग को — कुछ भी शेष नहीं रखता; वह स्वयं उस मार्ग से परे चला जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वह मात्रा, लिंग, शब्द, व्यंजन — सभी की सीमाओं से ऊपर उठकर — स्वररहित 'म' की सूक्ष्मता के माध्यम से उस परम पद की ओर प्रस्थान करता है।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध — ये पांचों विषय और चंचल मन — सब बिखराव के कारण हैं। जब साधक आत्मा की रश्मियों पर मन को एकाग्र करता है, तो यही प्रत्याहार कहा जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क और समाधि — ये छह अंग योग की पूर्णता का आधार हैं।
जैसे पर्वत की धातुओं को अग्नि द्वारा शुद्ध किया जाता है, वैसे ही इंद्रियजनित दोष — प्राण-निग्रह (प्राणायाम) द्वारा भस्म हो जाते हैं।
प्राणायाम दोषों को, धारणा पापों को, प्रत्याहार संसर्ग को, और ध्यान — अनीश्वर भावों को जलाकर समाप्त कर देता है।
जब इन पापों का क्षय हो जाए, तब साधक को मन में शुभ, सौम्य और रमणीय विचारों का चिन्तन करना चाहिए।
यह रमणीयता — वायु के निष्कासन (रेचक), आकर्षण (पूरक), और स्थिरता (कुम्भक) में प्रकट होती है। प्राणायाम के ये तीन अंग ही योग की साक्षात् क्रिया हैं।
जिस प्राणायाम में व्याहृति, प्रणव, और गायत्री मन्त्र सहित जप होता है, और लम्बे श्वास के साथ तीन बार दोहराया जाता है — वही श्रेष्ठ प्राणायाम कहा गया है।
जब साधक वायु को आकाश की ओर खींचता है, आत्मा को शून्यता में स्थित करता है — यह रेचक का लक्षण है।
जैसे कमलनाल से जल को खींचा जाता है, वैसे ही साधक अपने मुख से वायु को आकर्षित करता है — यह पूरक है।
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जब न उच्छ्वास होता है, न निःश्वास — शरीर स्थिर रहता है — यही कुम्भक की पूर्ण स्थिति है।
रूप को अंधे के समान न देखे, शब्द को बहिरे की तरह न सुने, और देह को निष्प्रभ, निर्जीव वृक्ष के समान अनुभव करे — यह प्रशांत अवस्था है।
बुद्धिमान व्यक्ति मन को संकल्पकर्ता जानकर आत्मा में संक्षिप्त करता है, और उसी आत्मा में स्थिर हो जाता है — यही धारणा कहलाती है।
शास्त्रों के अनुकूल विवेचन — तर्क है। जिस ज्ञान से मन पूर्णरूपेण सम हो जाए — वही समाधि है।
सम भूमि पर, रमणीय और दोषरहित स्थान में, मानसिक सुरक्षा के साथ, मन्त्र-जप द्वारा मंडल बनाकर, पद्मासन, स्वस्तिकासन, या भद्रासन में उत्तराभिमुख होकर स्थित हो।
एक नासिका को अंगुली से बंद कर, वायु को भीतर खींचकर अग्नि को स्थिर करता हुआ — शब्द (नाद) का ध्यान करे।
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'ॐ' — यह एकाक्षर ब्रह्म है। उसी 'ॐ' के माध्यम से रेचन करे, और दिव्य मन्त्रों द्वारा आत्ममल को बारंबार शुद्ध करे।
फिर पूर्वोक्त विधि से क्रमशः ध्यान करे। स्थूल से अतीस्थूल की ओर — नाभि से ऊपर की ओर चित्त को केंद्रित करे।
तिर्यक्, ऊर्ध्व और अधो दिशाओं को छोड़कर — वह महान बुद्धिमान योगी, अचल और निस्पंद होकर निरंतर योगाभ्यास में स्थित होता है।
तालमात्रा में स्थिर और निस्पंद होकर धारणा को साधे। द्वादशमात्रा की समयसीमा में योग के काल को नियत करे।
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जो अक्षर अघोषित है, व्यञ्जन रहित है, स्वररहित है, न तालु में है, न कंठ में, न ओष्ठ या नासिका में — और जो न कभी उच्चरित होता है, न क्षरता है — वही अक्षर है।
जिसके द्वारा साधक मार्ग को देखता है — वही प्राण उसे उस दिशा में ले जाता है। इसलिए सन्मार्ग पर चलने हेतु उसका अभ्यास करना चाहिए।
हृदय का द्वार, वायु का द्वार और मस्तिष्क का द्वार — ये तीनों ही मोक्ष के मार्ग हैं — जिन्हें शास्त्रों में बिल, सुषिर और मंडल कहा गया है।
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योगी को भय, क्रोध, आलस्य, अधिक निद्रा, अत्यधिक जागरण, अधिक आहार या उपवास — इन सब से स्वयं को सदा विमुक्त रखना चाहिए।
जो साधक इस विधि से नित्य अभ्यास करता है, उसे क्रमशः ज्ञान स्वयं ही प्रकट होता है — तीन माह में — इसमें कोई संशय नहीं।
चार महीने में वह देवों का दर्शन करता है। पाँचवें मास में वह महान शक्ति प्राप्त करता है। और छठे मास में — वह इच्छा मात्र से कैवल्य को प्राप्त करता है।
पृथ्वी तत्त्व में पाँच मात्राएँ हैं, जल में चार, अग्नि में तीन, वायु में दो, और आकाश में एक मात्रा है। इन सबसे परे — आधी मात्रा का चिन्तन कर — साधक आत्मा में आत्मा को अनुभूत करता है।
प्राण — तीस अंगुलों का विस्तार लिए हुए — वहीं स्थित है जहाँ वह प्रतिष्ठित होता है — यही बाह्य प्राण का क्षेत्र है।
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हर दिन और रात मिलाकर मनुष्य के भीतर एक लाख तेरह हज़ार छह सौ अस्सी श्वास-प्रश्वास होते हैं — यह संख्या योगशास्त्र के गूढ़ रहस्यों में से एक मानी जाती है, जिसका संबंध केवल सांसों की गिनती से नहीं, बल्कि प्राण की सूक्ष्म तरंगों और नाड़ी प्रवाह की गति से है। जबकि सामान्य योग गणना के अनुसार दिन-रात्रि में लगभग इक्कीस हज़ार छः सौ श्वास होते हैं, जो प्रति मिनट पंद्रह श्वास के औसत से मेल खाता है, तब यह अधिक बड़ी संख्या यह संकेत देती है कि यहां बात सांसों से आगे जाकर ऊर्जा के सूक्ष्मतम आंदोलनों की हो रही है। यह भी संभव है कि यह संख्या नाड़ी गति या हृदय के स्पंदनों की दैनिक गणना हो — जो प्रति मिनट औसतन सत्तर से अस्सी धड़कनों के अनुसार, गणिततः एकदम सटीक बैठती है। यही वह क्षेत्र है जहाँ योग, विज्ञान और आध्यात्म की सीमाएँ धुंधली होकर एक हो जाती हैं — और जीवन, मात्र एक शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक रहस्यमय लय में प्रवाहित होता हुआ अद्भुत चैतन्य बन जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
प्राण हृदय में, अपान गुदा में, समान नाभि में, उदान कंठ में, और व्यान समस्त अंगों में व्याप्त रहता है।
प्राण रक्त वर्ण का होता है — रत्न के समान चमकता है। अपान इन्द्रगोप की आभा लिए होता है। समान — गोदुग्ध जैसा उज्ज्वल होता है। उदान पीताभ है, और व्यान अग्निशिखा जैसा प्रज्वलित होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
वह साधक — जिसका वायु इस मंडल को भेदकर मस्तिष्क में प्रवेश करता है — चाहे उसका शरीर छूटे या नहीं — वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
वह जन्म-मरण से पार हो जाता है। — यही उपनिषद् का अंतिम वचन है।
यह उपनिषद् हमें आत्मा की उस रहस्यमयी ध्वनि की ओर ले जाता है —
जहाँ शब्द मौन में विलीन हो जाते हैं, और चेतना ब्रह्म से एक हो जाती है।
यह कहता है — शरीर से परे, प्राणों से पार,
जब साधक मन, प्राण और इन्द्रियों को स्थिर करता है —
तो वही अमृत की धार, वही अनाहत नाद,
उसके भीतर स्वयं खुल जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यह उपनिषद् योग के छः अंगों — प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, तर्क और समाधि —
के माध्यम से साधक को उस परम शांति तक ले जाता है
जहाँ न पुनर्जन्म है, न मृत्यु — केवल चिरंतन स्वरूप का बोध है।
और तब... Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
इसी अमृतनाद की वाणी में छिपा है आत्मा का रहस्य —
जो इसे जान ले, वह स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो जाता है।
अब समय है — भीतर उतरने का, मौन की उस धारा में प्रवाहित होने का,
जहाँ शब्द नहीं, केवल अनुभव बोलते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उठो, साधक बनो — और इस अंतर्ज्योति की ओर अपने हर श्वास को मोड़ दो।
क्योंकि अमृत तुम्हारे भीतर ही प्रतीक्षा कर रहा है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
॥ हरि ॐ तत्सत् ॥
॥ इति कृष्णयजुर्वेदीय अमृतनादोपनिषत्समाप्ता ॥