Secrets of Ishwar Gita for Spiritual Awakening and Inner Peace, Kurma Puran. Ishwar Gita, a divine discourse from the Kurma Purana, unveils the path of self-realization, detachment, and devotion to the Supreme. Through profound teachings on Atma Gyan (self-knowledge), Bhakti (devotion), and Dharma (righteousness), it guides seekers toward inner peace and spiritual awakening. Ishwar Gita emphasizes transcending the ego, understanding the nature of the soul, and merging with the ultimate reality. This timeless wisdom from Sanatan Dharma empowers aspirants to attain liberation (Moksha) and experience eternal bliss and harmony. 🕉️✨
"ईश्वरगीता" कूर्मपुराण का एक विशिष्ट भाग है। इसमें आत्मज्ञान, भक्ति, मोक्ष और धर्म के गूढ़ सिद्धांत वर्णित हैं। यह गीता वेदों के रहस्यों को प्रकट करती है और योग, ध्यान तथा शिव-तत्व की महिमा को विस्तार से समझाती है।
"ईश्वरगीता" कूर्मपुराण का एक दिव्य और विशिष्ट भाग है, जिसमें आत्मज्ञान, भक्ति, मोक्ष और धर्म के गूढ़ रहस्यों का प्रबोधन किया गया है। यह गीता केवल शास्त्रों का ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन के परम सत्य को प्रकट करने वाला एक दिव्य उपदेश है। वेदों के गूढ़ तत्वों को उजागर करते हुए, यह योग, ध्यान और शिव-तत्व की अपरिमेय महिमा को विस्तार से समझाती है, जो साधकों को मोक्ष की ओर अग्रसर करती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ऋषियों और व्यासजी के मध्य संवाद
ऋषियों ने व्यासजी से कहा—
हे महर्षे! आपने पहले स्वायंभुव सर्ग का सम्यक् निरूपण किया, ब्रह्माण्ड की महानता का विस्तार एवं मन्वन्तर-विभाजन का विवरण भी प्रकट किया।
उसमें आपने परमेश्वर, जो समस्त देवताओं के भी ईश्वर हैं, का वर्णन किया। धर्मपरायण सत्पुरुषों और ज्ञानयोग में रत मुनियों द्वारा नित्य आराध्य उस देव का उपदेश दिया।
अब हम आपसे वह अद्वितीय ज्ञान जानना चाहते हैं, जिससे समस्त संसार-संतापों का नाश हो जाए, तथा जो केवल ब्रह्मस्वरूप में स्थित करता है, जिससे हम परम तत्त्व का साक्षात्कार कर सकें।
हे प्रभो! आप स्वयं साक्षात् नारायण हैं। महर्षि कृष्णद्वैपायन के रूप में अवतरित होकर समस्त ज्ञान के पूर्ण अधिकारी हैं। अतः हम पुनः आपसे इस ज्ञान को जानने की प्रार्थना करते हैं।
तभी सूतजी, जो इस संवाद को कह रहे थे, बोले—
ऋषियों के इस विनम्र निवेदन को सुनकर मैंने स्मरण किया और कथा कहने के लिए तत्पर हुआ।
इसी बीच स्वयं महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास वहाँ पधारे, जहाँ परम तपस्वी मुनियों का महान् सत्र संपन्न हो रहा था।
उन वेदों के मर्मज्ञ, कालमेघ के समान तेजस्वी, कमल-दल-नेत्र महर्षि व्यास को देखकर श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने श्रद्धा सहित प्रणाम किया।
लोमहर्षण, जिन्होंने पहले ही उन्हें देखा था, भूमि पर दण्डवत् प्रणाम कर गुरु की प्रदक्षिणा करके, हाथ जोड़कर उनके समीप खड़ा हो गया। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
शौनकादि महर्षियों ने व्यासजी से कुशलक्षेम पूछकर उन्हें संतोष प्रदान किया और उनके लिए योग्य आसन की व्यवस्था की।
व्यासजी ने कहा—
हे मुनिश्रेष्ठों! क्या तुम्हारे तप, स्वाध्याय और श्रुति-ज्ञान में किसी प्रकार की हानि तो नहीं हुई?
तब सूतजी ने अपने गुरु व्यासजी से कहा—
हे महामुने! अब आप मुनियों को वह ब्रह्मस्वरूप ज्ञान प्रदान करने की कृपा करें।
ये समस्त मुनिगण अत्यंत शांत, तपस्वी एवं धर्मनिष्ठ हैं। ये जिज्ञासु जन आपकी वाणी को सुनने के लिए उत्सुक हैं, अतः आप कृपा कर तत्त्वज्ञान का वर्णन करें।
वह दिव्य ज्ञान, जो मुक्ति देने वाला है और जिसे आपने स्वयं मुझे प्रदान किया, जिसे पूर्वकाल में स्वयं भगवान विष्णु ने कूर्मावतार में कहकर प्रकट किया था। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सूतजी बोले—
इस प्रकार मेरी वाणी सुनकर सत्यवती-सुत व्यासजी ने भगवान रुद्र को प्रणाम कर, हृदय को परम सुख देने वाली दिव्य वाणी से उन्हें उत्तर प्रदान किया।
व्यास जी बोले—
मैं अब तुम्हें वह कथा सुनाने जा रहा हूँ जिसमें स्वयं महादेव से योगीश्वरों ने गूढ़ प्रश्न किए थे। तब स्वयं महादेव ने इसका उत्तर दिया था।
अनेक ऋषि एकत्र हुए हैं, जिनमें सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, अंगिरा, रुद्र, भृगु, कणाद, कपिल, वामदेव, शुक्र, वसिष्ठ आदि महान मुनि सम्मिलित हैं। वे सभी मन को संयमित किए हुए हैं।
ऋषियों का आपसी संवाद—
हम सभी ब्रह्मविद्या के ज्ञाता हैं, परंतु अब हमारे मन में एक महान संशय उत्पन्न हुआ है। इस संशय को दूर करने के लिए हम सभी ने बदरिकाश्रम में घोर तप किया है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तपस्या के दौरान, ऋषियों ने नारायण को नर रूप में देखा। सभी योगियों ने वेदों में वर्णित स्तोत्रों से उनकी स्तुति की और भक्ति-भाव से प्रणाम किया।
भगवान नारायण बोले—
हे मुनियो! मैं जानता हूँ कि आप सभी किसी गूढ़ जिज्ञासा को लेकर तप कर रहे हैं। बताइए, आप कौन-सा ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं? Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ऋषियों ने कहा—
हे विश्वात्मन्! हे सनातन नारायण! हम सभी गूढ़ प्रश्नों के उत्तर हेतु आपकी शरण में आए हैं।
हे प्रभु!
यह समस्त संसार क्यों बना है?
आत्मा कौन है और मुक्ति क्या है?
यह संसार किस कारणवश बना और चलता रहता है?
संसार का अधिपति कौन है और सब कुछ देखने वाला कौन है?
वह परात्पर ब्रह्म क्या है?
इतना सुनकर, सभी मुनियों ने नारायण को नमन किया और ध्यानपूर्वक देखने लगे। तभी उन्होंने देखा कि तपस्वी रूप में स्थित भगवान महादेव अपने स्वाभाविक तेज से प्रकट हो गए। उनका स्वरूप अद्भुत था—श्रीवत्स के चिह्न से युक्त, तप्त स्वर्ण के समान देदीप्यमान, शंख, चक्र, गदा और धनुष धारण किए हुए।
इसी क्षण, महेश्वर भगवान शिव प्रकट हुए। उनके मस्तक पर चंद्रमा सुशोभित था, वे त्रिनेत्रधारी थे और उनका मुख प्रसन्नता से भरा हुआ था। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सभी ऋषियों ने शिव की स्तुति की:
जय हो, हे महादेव! जय हो, हे भूतपति!
आप ही समस्त मुनियों के अधिपति हैं, आप ही जगत के यंत्र को चलाने वाले हैं।
आप ही जन्म, पालन और संहार के कारण हैं।
हे सहस्ररूपधारी! हे अंबिका के प्रिय!
आपको हमारा बारंबार प्रणाम! Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
भगवान शिव हृषीकेश श्रीहरि को हृदय से लगा लेते हैं और गंभीर स्वर में कहते हैं—
भगवान शिव बोले:
हे विष्णु! यह मुनिगण यहाँ क्यों पधारे हैं? किस उद्देश्य से यह इस तीर्थ स्थान में एकत्र हुए हैं?
भगवान विष्णु, शिव की ओर मुख करके निवेदन करते हैं—
भगवान विष्णु बोले:
हे प्रभो! ये सभी मुनि महान तपस्वी हैं, जिनके पापों का नाश हो चुका है।
ये दिव्य दर्शन के इच्छुक हैं और इनके हृदय में गूढ़ जिज्ञासाएँ हैं।
यदि आप इन पर प्रसन्न हों, तो अपने ज्ञान को इनके समक्ष प्रकट करें।
हे महेश्वर! आप ही अपने स्वरूप को सबसे भली-भाँति जानते हैं।
आपके अतिरिक्त और कोई भी आपको पूरी तरह नहीं जानता।
अतः आप स्वयं ही अपने स्वरूप को मुनियों के समक्ष प्रकट करें।
श्रीहरि ने इतना कहकर सभी मुनियों की ओर देखा और तब शिव ने अपनी योग-सिद्धि का प्रदर्शन करना आरंभ किया।
भगवान शिव बोले:
हे मुनियों! Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
तुम सभी मेरी दिव्य वाणी को ध्यानपूर्वक सुनो।
मैं तुम्हें अब परात्पर ज्ञान प्रदान करूँगा।
अपने मन को शांति से भर लो और इस ज्ञान को आत्मसात करो।
इस प्रकार, महादेव ने अपने रहस्यमय ज्ञान का उपदेश आरंभ किया।
ईश्वर उवाच
हे ब्रह्मवादी मुनियों! मैं तुम्हें एक ऐसा परम गूढ़ और सनातन ज्ञान देने जा रहा हूँ, जो अव्यक्त और रहस्यमय है।
जिसे देवता भी अपनी समस्त चेष्टाओं के बावजूद समझ नहीं पाते, और न ही इसे सामान्य द्विज (ब्राह्मण) जान सकते।
इस ज्ञान को आत्मसात कर, पूर्वकाल में भी ब्रह्म को जानने वाले श्रेष्ठ मुनि ब्रह्मभाव को प्राप्त हो गए थे।
उन्होंने संसार में पुनः जन्म नहीं लिया, क्योंकि यह ज्ञान स्वयं संसार-बंधन से मुक्त करता है।
यह परम गोपनीय ज्ञान अत्यंत दुर्लभ है, यह रहस्यों में भी सबसे गूढ़ रहस्य है।
किन्तु आज, मैं इसे तुम भक्तिपरायण ब्रह्मवादी मुनियों के लिए प्रकट कर रहा हूँ।
आत्मस्वरूप का विवेचन Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वह आत्मा केवल एक है—
वह पूर्णतः निर्मल, शुद्ध, अति सूक्ष्म, और सनातन है।
वह प्रत्येक जीव के भीतर स्थित है,
वह साक्षात् चेतना मात्र है, और तमस (अज्ञान) से परे है।
वही अंतर्यामी, वही पुरुष, वही प्राण, वही महेश्वर है।
वही काल रूप में स्थित है, वही अव्यक्त रूप से विद्यमान है।
वही यह समस्त जगत है—यही श्रुतियों का वचन है।
उसी से यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है, और अन्ततः उसी में विलीन हो जाता है।
किन्तु वह स्वयं माया से बंधा हुआ प्रतीत होता है और विभिन्न रूपों को धारण करता है।
संसार एवं आत्मा का भेद Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
परन्तु वास्तव में, न वह संसार में बंधता है, न ही संसारमय होता है।
वह न पृथ्वी है, न जल, न अग्नि, न वायु, और न ही आकाश।
न वह प्राण है, न मन, न अव्यक्त, न शब्द, न स्पर्श।
न वह रूप है, न रस, न गंध, और न ही वह अहंकार है।
हे मुनिश्रेष्ठो! न वह हाथ-पैर वाला है, न मल-मूत्र का त्याग करने वाला, न ही वह कोई इन्द्रियधारी है।
वह न करता है, न भोगता है, न ही प्रकृति या पुरुष से बंधा है।
वह न माया है, न प्राण।
सत्य स्वरूप में केवल चैतन्य ही परम अर्थ में विद्यमान है।
जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार का कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं होता,
उसी प्रकार आत्मा का संसार से कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है।
जिस प्रकार छाया और सूर्य का प्रकाश एक नहीं होते,
उसी प्रकार प्रपंच (भौतिक जगत) और परमात्मा का भी कोई संबंध नहीं होता।
इसी तरह, यह संसार और आत्मा भी परमार्थतः भिन्न हैं।
यदि आत्मा वास्तव में मलिन (अशुद्ध) और विकारी (परिवर्तनशील) होती,
तो वह कभी मुक्त नहीं हो सकती थी—
चाहे अनगिनत जन्मों तक प्रयास क्यों न किया जाए।
परंतु मुनिजन योग द्वारा स्वयं को परमार्थ रूप में देखते हैं।
वे आत्मा को विकाररहित,
सभी दुखों से मुक्त, आनंदमय और अविनाशी रूप में अनुभव करते हैं।
जब कोई यह सोचता है— Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैं कर्ता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ, मैं पतला हूँ, मैं स्थूल हूँ—
तो यह केवल अहंकार की कल्पना है,
जो आत्मा पर आरोपित कर दी जाती है।
परंतु वेदों को जानने वाले विद्वान कहते हैं—
आत्मा मात्र साक्षी है, वह प्रकृति से परे है।
वह शुद्ध, अविनाशी और सर्वत्र व्याप्त है।
इसलिए, यह संसार जो समस्त जीवधारियों के लिए बंधन स्वरूप है,
वास्तव में अज्ञान से उत्पन्न हुआ है।
अज्ञान के कारण ही आत्मा को भिन्न-भिन्न रूपों में देखा जाता है,
जबकि वास्तव में, वह नित्य प्रकाशमान, स्वयं-ज्योतिर्मय,
सर्वव्यापी और परम पुरुष है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
परंतु जब कोई विवेक (ज्ञान) खो देता है,
तब अहंकार उसे यह भ्रम देता है कि 'मैं कर्ता हूँ'।
किन्तु ऋषि जन उसे सद-असद रूप में स्थित अव्यक्त रूप में देखते हैं।
जो ब्रह्मवादी मुनि कारण रूप में स्थित प्रधान (मूल प्रकृति) को जानते हैं,
वे यह भी समझते हैं कि आत्मा प्रकृति से परे होते हुए भी,
उसी से सम्बंधित प्रतीत होता है।
जो आत्मा वास्तव में अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म है,
उसे ठीक से न समझ पाने के कारण,
मनुष्य उसे संसार से जोड़कर देखता है।
और यही अज्ञान,
सभी दुखों का कारण बनता है।
राग (आसक्ति), द्वेष (घृणा) और अन्य सभी दोष,
मात्र भ्रांति के कारण उत्पन्न होते हैं।
इसी भ्रांति से कर्मों में दोष दिखता है—
जिसे पुण्य और पाप के रूप में देखा जाता है।
इसी भ्रांति के कारण समस्त जीवों के शरीर उत्पन्न होते हैं।
परंतु आत्मा स्वयं तो नित्य, सर्वव्यापक,
अचल (कूटस्थ) और समस्त दोषों से रहित है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
एक ही आत्मा, जो मूलतः एकत्व में स्थित है,
माया की शक्ति से भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है,
किन्तु अपने स्वभाव से वह अभिन्न ही रहती है।
इसीलिए, मुनिजन इसे परमार्थतः अद्वैत (अखंड) कहते हैं।
भेद केवल व्यक्त स्वरूप (माया से उत्पन्न भास) में होता है,
परंतु यह माया भी आत्मा पर ही आश्रित है।
जैसे आकाश में धुएँ के संपर्क से मलिनता नहीं आती,
वैसे ही आत्मा भी अंतःकरण में उत्पन्न विचारों से मलिन नहीं होती।
जिस प्रकार अपनी प्रकाशमयी प्रकृति से,
निर्मल स्फटिक स्वच्छ रूप में चमकता है,
उसी प्रकार आत्मा भी उपाधियों से रहित होकर प्रकाशित होती है।
ज्ञानी लोग इस सम्पूर्ण जगत को,
ज्ञानस्वरूप आत्मा का ही प्रकट रूप मानते हैं।
किन्तु कुछ इसे केवल अर्थस्वरूप मानते हैं,
और कुछ कुतर्की इसे विकृत दृष्टि से देखते हैं।
परंतु वास्तव में आत्मा ही सर्वव्यापी, निर्गुण और स्वभावतः चैतन्यमय है।
ज्ञानी पुरुष इसे ज्ञानदृष्टि से देखते हैं,
और इसे सत्यस्वरूप के रूप में अनुभव करते हैं।
जैसे किसी रक्तिम वस्तु के समीप रखे स्फटिक को लोग लाल मान लेते हैं,
वैसे ही माया के संसर्ग से परम पुरुष में भेद प्रतीत होता है।
किन्तु आत्मा स्वयं अक्षर (अविनाशी), शुद्ध,
नित्य, सर्वव्यापी और अविनाशी ही है।
मुक्ति चाहने वाले साधकों को,
इसे ही सुनना, मनन करना और उपासना करनी चाहिए।
क्योंकि जब चैतन्य आत्मा,
मन में सर्वत्र प्रकाशित होने लगता है,
तब सत्य का साक्षात्कार होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
योगी जब किसी भी प्रकार की रुकावट के बिना ध्यानस्थ होता है, तब वह स्वयं में लीन हो जाता है।
जब वह सभी भूतों को अपने आत्मस्वरूप में देखता है, तब वह आत्मा को ही सम्पूर्ण में अनुभव करता है।
जब समाधिस्थ योगी सभी भूतों का भेदभाव नहीं देखता, तब वह पूर्णरूप से परब्रह्म में एकीकृत हो जाता है।
जब हृदय में स्थित समस्त कामनाएँ समाप्त हो जाती हैं, तब वह अमृतस्वरूप को प्राप्त कर स्थायी शांति को प्राप्त करता है।
जब वह समस्त भूतों के पृथक अस्तित्व को एक ही तत्व में देखता है, तब उसे ब्रह्म का विस्तार समझ में आता है।
जब वह आत्मा को केवल परमार्थरूप में देखता है, तब समस्त संसार उसे मात्र माया प्रतीत होती है और वह पूर्ण शांति को प्राप्त करता है।
जब जन्म, जरा, दुख और रोगों का एकमात्र उपाय ब्रह्मज्ञान के रूप में प्रकट होता है, तब वह शिवस्वरूप बन जाता है।
जैसे नदियाँ सागर में मिलकर अपनी पृथक सत्ता खो देती हैं, वैसे ही आत्मा अक्षर ब्रह्म में समाहित होकर अखंड रूप प्राप्त कर लेती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसलिए केवल ब्रह्मज्ञान ही सत्य है, न तो संसार सत्य है और न ही इसका प्रपंच।
अज्ञान से आवृत यह संसार ब्रह्मज्ञान से विमोहित रहता है।
सच्चा ज्ञान निर्मल, सूक्ष्म, निर्विकल्प और अविनाशी होता है।
इसके विपरीत जो कुछ भी है, वह अज्ञान मात्र है – यही तत्ववेत्ताओं की मान्यता है।
यह तुम्हें सर्वोत्तम सांख्य ज्ञान बताया गया है।
जो समस्त वेदांत का सार है, उसमें योग का मुख्य आधार एकचित्तता है।
योग से ज्ञान उत्पन्न होता है और ज्ञान से योग का विकास होता है।
जो योग और ज्ञान में पूर्णतः लीन होता है, उसके लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता।
जिस स्थिति को योगी प्राप्त करते हैं, वही सांख्य मार्ग से भी उपलब्ध होती है।
जो व्यक्ति सांख्य और योग को एक देखता है, वही तत्वदर्शी कहलाता है।
कुछ योगी ऐश्वर्य में आसक्त होते हैं और भ्रमित होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं।
अन्य कुछ, जो संकुचित बुद्धि वाले होते हैं, वे भी इसी प्रकार उलझे रहते हैं।
किन्तु जो दिव्य, सर्वव्याप्त, अचल एवं महान ऐश्वर्य है,
वह ज्ञानयोग में स्थित व्यक्ति को इस शरीर के अंत में प्राप्त होता है।
यह आत्मा ही अव्यक्त, मायावी और परमेश्वर है,
जो सभी वेदों में वर्णित है और समस्त आत्माओं में व्याप्त है।
मैं ही सभी इच्छाओं, सभी रसों और सभी गंधों का स्रोत हूँ।
अजर, अमर और सर्वव्यापक होने के कारण मैं ही अंतर्यामी सनातन आत्मा हूँ।
बिना हाथ-पैर के भी मैं तीव्र गति से चलता हूँ और सभी कुछ ग्रहण करता हूँ।
बिना नेत्रों के भी मैं देखता हूँ और बिना कानों के भी सब सुनता हूँ।
मैं सम्पूर्ण जगत के रहस्यों को जानता हूँ, पर कोई मुझे जान नहीं सकता।
तत्वदर्शी मुनियों ने मुझे ही महान पुरुष के रूप में स्वीकार किया है।
सूक्ष्मदर्शी ऋषि आत्मा के वास्तविक कारण को पहचानते हैं।
और उस परम ऐश्वर्य को देखते हैं, जो निर्गुण एवं निर्मल रूप में विद्यमान है।
जिसे देवता भी मेरी माया से मोहित होकर नहीं जानते,
वह मैं तुम्हें बताऊँगा। हे ब्रह्मविदों! तुम मन लगाकर सुनो।
मैं स्वभाव से ही माया से परे हूँ और किसी का शासक नहीं हूँ,
फिर भी मैं इस सृष्टि को प्रेरित करता हूँ—यह सत्य को जानने वाले महर्षि समझते हैं।
जो मेरे इस अत्यंत गुप्त और सर्वव्यापक स्वरूप को जानते हैं,
वे तत्वदर्शी योगी मेरे साथ अविनाशी सायुज्य को प्राप्त करते हैं।
उनके वश में मेरी विश्वरूपी माया हो जाती है,
और वे मेरे साथ परम शुद्ध निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।
उनका फिर कभी इस संसार में पुनर्जन्म नहीं होता,
भले ही करोड़ों कल्प बीत जाएँ—यह मेरा दिव्य वेदोपदेश है।
यह रहस्य केवल योग्य पुत्र, शिष्य और योगियों को ही दिया जाना चाहिए,
क्योंकि यह ज्ञान सांख्य और योग का अद्वितीय संगम है।
ईश्वर ने कहा—
अव्यक्त से काल उत्पन्न हुआ, फिर प्रधान और परम पुरुष प्रकट हुए।
इनसे ही समस्त जगत उत्पन्न हुआ, और यही सम्पूर्ण ब्रह्ममय सृष्टि बनी।
वह सर्वव्यापक सत्ता हाथ-पैरों से युक्त होकर भी अचिन्त्य है,
उसकी आँखें, मस्तक, मुख और कान सर्वत्र हैं, और वह सब कुछ व्याप्त किए हुए स्थित है।
वह समस्त इन्द्रियों के गुणों को प्रकाशित करता है, किन्तु स्वयं इन्द्रियों से रहित है।
वह समस्त पदार्थों का आधार, नित्य आनंदस्वरूप, अव्यक्त तथा द्वैत से रहित है।
वह किसी उपमा से रहित, प्रमाणातीत और विचारों से परे है।
उसमें कोई भेद नहीं, वह अनंत, ध्रुव, अविनाशी और परम आकाशस्वरूप है—
ऐसे ज्ञान को ही मनीषी मुनिगण वास्तविक तत्व कहते हैं।
वह आत्मा सभी भूतों में स्थित है, वह अंदर और बाहर दोनों रूपों में व्याप्त है।
वही सर्वत्रगामी, शान्त, ज्ञानस्वरूप एवं परमेश्वर है।
मैंने इस सम्पूर्ण विश्व को अपनी अव्यक्त शक्ति से व्याप्त किया है।
सभी जीव मुझमें स्थित हैं—जो इस सत्य को जानता है, वही सच्चा वेदज्ञ है।
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प्रधान और पुरुष को एक ही तत्व माना गया है,
इन दोनों का संयोग कराने वाला अनादि काल ही परमार्थत: श्रेष्ठ कहा गया है।
यह प्रधान, पुरुष और काल—तीनों ही अनादि और अनंत हैं,
इनमें ही समस्त सृष्टि स्थित है और मेरा स्वरूप भी इसी से जाना जाता है।
महत्तत्व से लेकर विशेष तक सम्पूर्ण जगत की सृष्टि होती है,
यही प्रकृति कही जाती है, जो समस्त जीवों को मोह में डालने वाली है।
पुरुष प्रकृति में स्थित होकर प्रकृतिक गुणों का भोग करता है।
जब वह अहंकार से मुक्त हो जाता है, तब पञ्चविंशति तत्वों में ज्ञाता कहा जाता है।
प्रकृति का प्रथम विकार 'महत्तत्व' कहलाता है,
विज्ञान से उत्पन्न होने वाली जो शक्ति है, वही अहंकार से प्रकट होती है।
यह एक ही महान आत्मा अहंकार कहलाती है,
यही जीव और अंतरात्मा के रूप में तत्वचिंतकों द्वारा वर्णित होती है।
इसी अहंकार के कारण जीव समस्त सुख-दुःख का अनुभव करता है,
यह विज्ञानमय होता है, और इसके लिए मन सहायक रूप में कार्य करता है।
इसी मन के कारण पुरुष प्रकृति में अनुरक्त होकर संसार में बंध जाता है।
यह अविवेक ही है, जो प्रकृति से संग के कारण कालक्रम में उत्पन्न हुआ।
काल समस्त प्राणियों की सृष्टि करता है, और वही उनकी संहारक शक्ति भी है।
सभी काल के अधीन हैं, कोई भी काल को अपने वश में नहीं कर सकता।
यही काल अंतर्यामी रूप में सम्पूर्ण सृष्टि को नियंत्रित करता है,
इसी को मनीषियों ने भगवान, प्राण और सर्वज्ञ पुरुषोत्तम कहा है।
मनीषियों के अनुसार समस्त इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है,
मन से श्रेष्ठ अहंकार है, अहंकार से श्रेष्ठ महत्तत्व है।
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महत्तत्व से परे अव्यक्त है, और अव्यक्त से परे परम पुरुष है।
पुरुष से भी परे भगवान प्राणस्वरूप हैं, और उन्हीं से यह समस्त जगत उत्पन्न हुआ है।
प्राण से परे आकाश है, और आकाश से भी परे ईश्वर अग्निरूप में स्थित हैं।
वही मैं हूँ—अविनाशी, शान्त, ज्ञानस्वरूप और परमेश्वर।
मुझसे परे कुछ भी नहीं, जो मुझे जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है।
इस जगत में नित्य रूप से कोई भी स्थावर (स्थिर) या जंगम (चलायमान) भूत स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में नहीं है।
केवल मैं ही अव्यक्त रूप में व्योमस्वरूप महेश्वर के रूप में विद्यमान हूँ।
मैं ही समस्त सृष्टि की रचना करता हूँ और समय आने पर उसका संहार भी करता हूँ।
मैं ही माया से युक्त मायामय देव हूँ, और काल के साथ संलग्न रहता हूँ।
मेरी ही उपस्थिति में यह काल समस्त जगत का संचालन करता है।
अनंत आत्मा रूप में मैं ही समस्त को नियोजित करता हूँ—यही वेदान्त का आदेश है।
ईश्वर ने कहा:
हे ब्रह्मविद्या में निपुण विद्वानों! मैं तुमसे उस परम देव के महात्म्य का वर्णन करूँगा, जिससे संपूर्ण सृष्टि संचालित होती है। कृपया ध्यानपूर्वक सुनो।
न तो विभिन्न प्रकार के तप से, न दान से, और न ही यज्ञों से कोई मुझे जान सकता है, केवल सर्वोच्च भक्ति के द्वारा ही मेरी प्राप्ति संभव है।
मैं संपूर्ण सृष्टि के समस्त प्राणियों के भीतर स्थित हूँ और सर्वव्यापी हूँ, किंतु योगी और मुनि भी मुझे प्रत्यक्ष रूप से नहीं जान पाते।
जिसके भीतर संपूर्ण जगत स्थित है और जो समस्त प्राणियों का संहार करने वाला परम तत्व है, वही मैं हूँ—सृजनहार, पालनकर्ता, काल और अग्नि के रूप में संपूर्ण दिशाओं में व्याप्त।
मुनि, पितर, स्वर्गवासी देवता, ब्रह्मा, मनु, इंद्र और अन्य महान तेजस्वी देवता भी मुझे नहीं देख सकते।
वेद सदा मेरे ही गुणगान करते हैं और मुझ परमेश्वर की स्तुति करते हैं। ब्राह्मण वैदिक यज्ञों के माध्यम से विविध रूपों में अग्नि की उपासना कर मुझे ही पूजते हैं।
समस्त लोक और स्वयं ब्रह्मा, जो सृष्टि के आदि कारण हैं, मेरी वंदना करते हैं। योगीजन मुझे भूतों के अधिपति और परम ईश्वर के रूप में ध्यान करते हैं।
मैं ही समस्त यज्ञों का भोक्ता हूँ और मैं ही उनके फल प्रदान करने वाला हूँ। मैं सभी देवताओं के स्वरूप में प्रकट होकर समस्त विश्व में व्याप्त हूँ।
धार्मिक और वेदों के ज्ञाता विद्वान इस पृथ्वी पर मुझे प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं। जो भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करते हैं, मैं सदैव उनके समीप रहता हूँ। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य जो धर्मपरायण हैं, वे मेरी भक्ति करते हैं, और मैं उन्हें परम आनंददायक मोक्ष पद प्रदान करता हूँ।
इसके अतिरिक्त, जो लोग अपने स्वधर्म में स्थित हैं, चाहे वे शूद्र हों या अन्य निम्न जातियों से हों, यदि वे भी मुझमें भक्ति रखते हैं, तो वे कालक्रम में मेरे साथ एकाकार हो जाते हैं और मुक्त हो जाते हैं।
मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते। मेरे भक्त पापों से रहित होते हैं। यह मैंने आदि काल में ही प्रतिज्ञा की थी कि मेरा भक्त कभी विनष्ट नहीं होगा। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो मूर्ख मेरे भक्त का अपमान करता है, वह वास्तव में स्वयं परम देव का अपमान करता है। जो भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करता है, वह वास्तव में सदा मेरी ही पूजा करता है।
जो कोई मुझे एक पत्ता, एक फूल, एक फल या जल भी प्रेमपूर्वक अर्पित करता है, मैं उसकी उस भेंट को सहर्ष स्वीकार करता हूँ।
सृष्टि के आरंभ में मैंने ही ब्रह्मा को उत्पन्न किया और उन्हें समस्त वेद प्रदान किए, जो मुझमें निहित थे।
मैं ही समस्त योगियों का अविनाशी गुरु हूँ। मैं धर्मपरायणों का रक्षक हूँ और वेदों के विरोधियों का संहार करने वाला हूँ।
मैं ही इस संसार में योगियों को मोक्ष प्रदान करने वाला हूँ। वास्तव में संसार का कारण भी मैं ही हूँ, और मैं ही समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त हूँ। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैं ही इस जगत का संहारक, सृष्टिकर्ता और पालनकर्ता हूँ। मेरी ही माया, जो मेरी शक्ति है, संपूर्ण जगत को मोहित करने वाली है।
मुझसे ही उत्पन्न एक महान शक्ति है, जिसे विद्या कहा जाता है। योगियों के हृदय में स्थित होकर मैं स्वयं इस माया का नाश करता हूँ। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैं ही समस्त शक्तियों को उत्पन्न और नष्ट करने वाला हूँ। मैं ही सबका आधार हूँ और अमृत (मोक्ष) का एकमात्र स्रोत हूँ।
एक ही शक्ति संपूर्ण जगत को अनेक रूपों में संचालित करती है। यह शक्ति ब्रह्म का स्वरूप ग्रहण कर मेरी प्रेरणा से कार्य करती है।
मेरी दूसरी शक्ति अत्यंत व्यापक है, जो इस जगत की स्थापना करती है। यह शक्ति नारायण के रूप में प्रकट होकर संपूर्ण जगत का स्वामी और समस्त विश्व का स्वरूप बनती है।
तीसरी शक्ति, जो अत्यंत महान है, संपूर्ण सृष्टि का संहार करती है। इसे तामसी शक्ति कहा गया है, जो कालस्वरूप रुद्र के रूप में प्रकट होती है।
कुछ लोग ध्यान के माध्यम से मुझे देखते हैं, कुछ ज्ञान के द्वारा, तो कुछ भक्तियोग और कर्मयोग के माध्यम से मेरी अनुभूति करते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मेरे सभी भक्तों में वह मुझे सबसे प्रिय है जो सदैव ज्ञान के द्वारा मेरी उपासना करता है, न कि किसी अन्य प्रकार से।
जो अन्य भक्त भगवान हरि की उपासना करते हैं, वे भी वास्तव में मेरी ही आराधना करते हैं और वे कभी पुनः जन्म-मरण के चक्र में नहीं पड़ते।
मैंने इस संपूर्ण जगत को प्रकृति और पुरुष के रूप में व्याप्त कर रखा है। मेरी प्रेरणा से ही यह समस्त सृष्टि संचालित होती है।
हे विद्वानों! मैं स्वयं प्रेरक नहीं हूँ, क्योंकि मैं परम योग का आश्रय लिए हुए हूँ। किन्तु यह समस्त सृष्टि मेरी ही प्रेरणा से चलती है, जो इसे जानता है, वह अमृत (मोक्ष) प्राप्त करता है।
मैं इस संपूर्ण जगत को स्वाभाविक रूप से घटित होते हुए देखता हूँ। भगवान काल ही स्वयं महायोगेश्वर हैं और वे ही इसे संचालित करते हैं।
योग को शास्त्रों में माया और योगी के रूप में महापुरुषों ने वर्णित किया है। वही योगेश्वर भगवान महादेव ही इस सृष्टि के महान प्रभु हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
समस्त तत्वों में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण और अपनी श्रेष्ठता के कारण ब्रह्मा को परमेश्वर कहा जाता है। वह ब्रह्मस्वरूप और निर्मल (पवित्र) है।
जो मुझे महायोगेश्वरों के भी ईश्वर रूप में जानता है, वह निश्चय ही अविकल्प योग द्वारा मुझसे एक हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैं ही वह ईश्वर हूँ जो समस्त जगत को प्रेरित करता हूँ और परम आनंद का आश्रय लिए हुए हूँ। जो इस तथ्य को जानता है, वही वास्तविक वेदों का ज्ञाता है।
यह अत्यंत गूढ़ ज्ञान, जो सभी वेदों का सार है, केवल उन्हीं को दिया जाना चाहिए जिनका चित्त निर्मल है, जो धार्मिक हैं और जो सदैव यज्ञ आदि शुभ कर्मों में संलग्न रहते हैं।
व्यास जी बोले:
इस प्रकार कहकर योगियों के परमेश्वर भगवान ने अपनी दिव्य ऐश्वर्यशाली शक्ति को प्रकट करते हुए नृत्य करना आरंभ किया।
तब उन महान योगियों ने तेजस्विता के परम निधि, परमेश्वर महादेव को गगन में भगवान विष्णु के साथ नृत्य करते हुए देखा।
जिन योगतत्वज्ञानी योगीजन ध्यान और साधना द्वारा जिनका साक्षात्कार करते हैं, उन्हीं समस्त प्राणियों के स्वामी भगवान को आकाश में प्रत्यक्ष रूप से देखा।
जिनकी माया से संपूर्ण जगत व्याप्त है और जो स्वयं इस संसार को संचालित करने वाले हैं, उन विश्वेश्वर को वेदज्ञ ब्राह्मणों ने नृत्य करते हुए देखा।
जिनके चरणकमलों का स्मरण करके पुरुष अपने अज्ञानजनित भय को त्याग देता है, उन्हीं भूतों के स्वामी को उन योगियों ने नृत्य करते हुए देखा। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जिन्हें ध्यान, संयम और भक्ति से परिपूर्ण होकर योगीजन ज्योतिर्मय स्वरूप में अनुभव करते हैं, वे योगेश्वर प्रत्यक्ष रूप में दृष्टिगोचर हुए।
जो भक्तों पर कृपा करने वाले, शीघ्र अज्ञान से मुक्त करने वाले और मोक्षदाता हैं, उन रुद्रदेव को आकाश में दिव्य रूप में देखा गया।
उन महादेव का स्वरूप सहस्र सिरों, सहस्र चरणों और सहस्र बाहुओं वाला था, उनकी जटाओं में अर्धचंद्र सुशोभित हो रहा था।
वे व्याघ्रचर्म धारण किए हुए थे और उनके विशाल हाथों में महान त्रिशूल था। वे दंड धारण किए हुए, त्रिनेत्रधारी तथा सूर्य, चंद्र और अग्नि जैसे नेत्रों वाले थे। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अपने तेज से संपूर्ण ब्रह्मांड को व्याप्त किए हुए वे भगवान महादेव अत्यंत प्रचंड थे, जिनका मुख दंष्ट्राओं से विभूषित था और जो करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रहे थे।
वे ब्रह्मांड के भीतर भी स्थित थे और उससे परे भी थे। वे सबके बाह्य और आंतरिक स्वरूप थे। उन्होंने अग्नि की प्रचंड ज्वालाओं से संपूर्ण संसार को जला डालने की शक्ति धारण की थी।
उन विश्वकर्मा ईश्वर को, जो नृत्य कर रहे थे, उन योगियों ने प्रत्यक्ष देखा।
उन्होंने महादेव को, जो महायोगी हैं, समस्त देवताओं के भी देवता हैं, पशुओं के अधिपति हैं और ज्योतियों में भी परम ज्योति हैं, अपनी दृष्टि से अनुभूत किया।
वे धनुष धारण करने वाले, विशाल नेत्रों वाले, संसार-रूपी रोग के लिए संजीवनी समान, कालस्वरूप तथा काल को भी निगल जाने वाले देवाधिदेव महेश्वर थे। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
वे उमापति, विरूपाक्ष, योगानंद स्वरूप, ज्ञान और वैराग्य के आधार, सनातन ज्ञानयोग के प्रवर्तक थे।
वे नित्य ऐश्वर्य के स्वामी, धर्म के आधारभूत, दुष्टों के लिए दुर्लंघ्य, इंद्र और विष्णु द्वारा वंदित तथा महर्षियों द्वारा पूजित थे।
वे समस्त शक्तियों के आधार, महायोगियों के भी ईश्वर, योगियों द्वारा वंदित परम ब्रह्म और योगियों के हृदय में स्थित योगमाया से युक्त परमात्मा थे। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
क्षणभर में ही उन ब्रह्मवादियों ने संसार की उत्पत्ति के कारण, निष्कलंक नारायण को देखा।
उन्होंने देखा कि भगवान रुद्र और नारायण एकत्व को प्राप्त हो चुके थे।
रुद्र-नारायणात्मक उस ऐश्वर्यपूर्ण रूप का दर्शन कर ब्रह्मवादी महर्षियों ने स्वयं को कृतार्थ अनुभव किया।
सनत्कुमार, सनक, भृगु, सनातन, सनंदन, रैभ्य, अंगिरा, वामदेव, शुक्र, अत्रि, कपिल और मरीचि आदि महर्षियों ने भगवान रुद्र के दर्शन किए।
उन्होंने जगदीश्वर रुद्र को पद्मनाभ (भगवान विष्णु) के बाएँ भाग में स्थित देखा और हृदय में ध्यान कर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।
उन्होंने "ॐ" का उच्चारण करते हुए, अपने अंतःकरण में स्थित परमात्मा को निहारते हुए, ब्रह्मस्वरूप वचनों से उनकी स्तुति की और आनंद से परिपूर्ण हो गए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मुनियों ने कहा:
हे अनंत योगयुक्त रुद्र! हम आपको ही एकमात्र परमेश्वर, सनातन पुरुष, प्राणों के स्वामी और ब्रह्ममय पवित्र चेतना के रूप में नमस्कार करते हैं। आप सबके हृदय में स्थित हैं।
संयमी, शांतचित्त, निर्मल मुनिगण आपको ही ब्रह्मस्वरूप, रुक्मवर्ण, अचल और परम कवि रूप में अपने हृदय में स्थित अनुभव करते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
आप ही जगत की उत्पत्ति के कारण हैं। समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप आप परमाणु से भी सूक्ष्म और महानों से भी महान हैं। संतजन आपको ही समस्त रूपों में प्रतिष्ठित देखते हैं।
हिरण्यगर्भ, जो जगत का अंतरात्मा है, आपसे ही उत्पन्न हुआ है। वही पुरुष, जो सनातन है, आपके आदेश से समस्त सृष्टि की रचना करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सभी वेद आपसे ही प्रसूत हुए हैं और अंततः आपमें ही विलीन होते हैं। हम आपको साक्षात जगत के कारण रूप में, अपने हृदय में स्थित नृत्यरत रूप में देख रहे हैं।
आप ही इस ब्रह्मचक्र को घुमा रहे हैं, आप ही समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं। हे मायावी नाथ! हम आपकी शरण में आए हैं, आपको नमस्कार करते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
हम आपको परम आकाश के मध्य नृत्य करते हुए देख रहे हैं। हम आपके अद्भुत महिमा का स्मरण कर रहे हैं। आप समस्त आत्माओं में स्थित हैं और ब्रह्मानंद स्वरूप हैं।
"ॐ" शब्द आपका ही वाचक है, जो मोक्ष का बीज है। आप अविनाशी, प्रकृति में गुप्त रूप से स्थित परम सत्य हैं। संतजन आपको ही स्वयंप्रभ और अनंत प्रभाव वाला बताते हैं।
समस्त वेद आपको ही स्तुति करते हैं। ऋषिगण, जो समस्त दोषों से मुक्त हैं, आपको नमन करते हैं। सत्यस्वरूप, ब्रह्मनिष्ठ संन्यासीजन आपको ही परम ध्येय मानते हुए आपका आश्रय लेते हैं।
यद्यपि वेद अनंत शाखाओं वाले हैं, फिर भी वे केवल आपको ही एकरूपता से प्रकट करते हैं। जो आपको शरणागत होते हैं, उन्हें शाश्वत शांति प्राप्त होती है, अन्य किसी को नहीं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
हे भवानीनाथ! आप अनादि, तेजोमय, ब्रह्मा, विष्णु, परमेष्ठी, श्रेष्ठतम, और आत्मानंद स्वरूप हैं। नित्य मुक्त योगीजन आपके प्रकाशमय स्वरूप का अनुभव कर ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।
आप ही एकमात्र रुद्र हैं, समस्त विश्व का सृजन और पालन करने वाले। विश्वरूप होकर आप ही इस सृष्टि का अंतिम आश्रय हैं। हम आपकी शरण में हैं।
आपको ही महाकवि, एकरुद्र, ब्रह्म, विराट, हरि, अग्नि, ईश्वर, इंद्र, मृत्यु, वायु और आदि तत्वों का कर्ता कहा जाता है।
आप ही परम अक्षर हैं, जिन्हें जानना चाहिए। आप इस संपूर्ण विश्व के परम निधान हैं। आप अविनाशी, सनातन धर्म के रक्षक और पुरुषोत्तम हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
आप ही विष्णु, चतुर्मुख ब्रह्मा, भगवान रुद्र, विश्वनाथ, प्रकृति और प्रतिष्ठा के आधार हैं। आप समस्त ईश्वरों के भी परमेश्वर हैं।
संतजन आपको ही पुराण पुरुष, आदित्य-तेजस्वी, तमस से परे, चिन्मात्र, अव्यक्त, अचिन्त्य रूप, आकाशतुल्य, ब्रह्म, शून्य और निर्गुण स्वरूप मानते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
आप ही वह अविनाशी तत्व हैं, जिसके भीतर से यह संपूर्ण विश्व प्रकाशित होता है। आप ही एकरूप, निर्मल और अनंत हैं। आपका स्वरूप विचार से परे है और सबके भीतर भी व्याप्त है।
हे अनंत शक्ति संपन्न योगेश्वर! आप ही परम refuge हैं, आप ही सनातन ब्रह्मस्वरूप हैं। हम समस्त जीव आपकी शरण में आए हैं। हे भूतनाथ, हे महेश्वर, हम पर कृपा करें! Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
आपके चरणकमलों के स्मरण से ही संपूर्ण संसार रूपी बंधन समाप्त हो जाता है। हम अपने मन को संयमित कर, शरीर को समर्पित कर, आपको प्रसन्न करने का प्रयास कर रहे हैं।
हे भव! हे काल! हे संपूर्ण जगत के नाथ! हे संहारकर्ता! हे रुद्र! हे जटाधारी! हे अग्निस्वरूप देव! हे शिव! आपको बारंबार प्रणाम है।
(इसके पश्चात भगवान रुद्र अपने परम ऐश्वर्य रूप को समेटकर, प्रकृति में स्थित हो गए। वे अपने पूर्व स्वरूप में पुनः प्रतिष्ठित हो गए।) Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
महर्षियों ने जब भगवान रुद्र को उनके स्वाभाविक रूप में देखा और उनके बाएँ भाग में नारायण को स्थित पाया, तब वे आश्चर्यचकित होकर बोले:
"हे भूतभाव्येश्वर! हे नंदी पर आरूढ़ महादेव! आपके इस परम दिव्य स्वरूप का दर्शन कर हम कृतार्थ हो गए हैं।
हे परमेश्वर! आपकी कृपा से ही हमारे हृदय में निर्मल, अचल और अव्यभिचारी भक्ति जाग्रत हुई है।
अब हम आपके महात्म्य को पुनः विस्तार से सुनना चाहते हैं। हे शंकर! कृपया हमें अपनी परम स्थिति का सत्य स्वरूप समझाएं।
(तब योग सिद्धि प्रदाता भगवान रुद्र, ध्यानमग्न होकर, गंभीर वाणी में माधव की ओर दृष्टिपात करते हुए बोले।)
भगवान ने कहा:
हे मुनियों! आप सभी मेरी वाणी को ध्यानपूर्वक सुनें। मैं आपको परमेश्वर के उस माहात्म्य का वर्णन करूंगा, जिसे वेदज्ञजन जानते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैं ही संपूर्ण लोकों का एकमात्र निर्माता, रक्षक और संहारक हूँ। मैं ही समस्त आत्माओं का सनातन स्वरूप हूँ।
मैं ही समस्त वस्तुओं के भीतर स्थित महेश्वर, अंतर्यामी रूप में विराजमान हूँ। यद्यपि सब कुछ मेरे भीतर स्थित है, फिर भी मैं सब जगह व्यक्त नहीं हूँ।
हे विप्रगण! आपने मेरे जो अद्भुत रूप का दर्शन किया, वह मेरी ही माया से प्रकट की गई थी।
मैं समस्त भावों के भीतर स्थित होकर समस्त जगत को प्रेरित करता हूँ। यह मेरी ही क्रियाशक्ति है, जिसके प्रभाव से यह सारा विश्व चेष्टा करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मेरी ही शक्ति से यह विश्व अपने स्वभाव के अनुरूप कार्य करता है। मैं ही कालस्वरूप होकर समस्त जगत को गतिमान करता हूँ।
हे मुनिश्रेष्ठों! मैं अपने एक अंश से संपूर्ण सृष्टि का निर्माण करता हूँ और एक रूप में स्थित रहकर उसका संहार करता हूँ।
मैं ही आदि, मध्य और अंत से रहित, मायातत्त्व को प्रवाहित करने वाला हूँ। सृष्टि के आरंभ में मैं ही प्रधान (प्रकृति) और पुरुष (पुरुषोत्तम) को स्पंदित करता हूँ।
इन दोनों के संयोग से ही समस्त विश्व की उत्पत्ति होती है और महत्तत्त्व आदि क्रम से मेरी ही तेजोमयी शक्ति विस्तार प्राप्त करती है।
जो समस्त जगत का साक्षी तथा कालचक्र को प्रवाहित करने वाला हिरण्यगर्भ और सूर्य स्वरूप है, वह भी मेरे ही शरीर से उत्पन्न हुआ है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैंने ही उसे दिव्य ऐश्वर्य, सनातन ज्ञानयोग तथा सृष्टि के आरंभ में चारों वेद प्रदान किए।
वह दिव्य देव ब्रह्मा, जो मेरी भावना में स्थित है, मेरे आदेश से सदा दिव्य ऐश्वर्य को धारण करता है।
मेरे आदेश से वह चारमुख धारण कर संपूर्ण लोकों का निर्माण करता है। वह स्वयंभू होते हुए भी मेरे नियोग से सृष्टि करता है।
जो अनंत नारायण समस्त लोकों के उत्पत्ति और पालनकर्ता हैं, वे भी मेरी ही परामूर्ति हैं और सृष्टि का पालन करते हैं।
जो समस्त प्राणियों का संहार करने वाले, कालस्वरूप और रुद्रस्वरूप प्रभु हैं, वे भी मेरी ही आज्ञा से नित्य संहारक रूप में कार्य करते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
देवताओं का हविर्भाग और पितरों का कव्यभाग वहन करने वाला अग्नि भी मेरी ही शक्ति से प्रेरित होता है।
जो वैश्वानर अग्नि दिन-रात प्राणियों के द्वारा खाए गए अन्न को पचाता है, वह भी मेरी ही आज्ञा से कार्य करता है।
जो वरुण देव समस्त जलों के अधिपति हैं और संपूर्ण विश्व को जीवन प्रदान करते हैं, वे भी मेरी ही आज्ञा से यह कार्य संपन्न करते हैं।
जो वायु देव समस्त प्राणियों के भीतर और बाहर स्थित रहकर उन्हें जीवन प्रदान करते हैं, वे भी मेरी ही आज्ञा से यह कार्य कर रहे हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो चंद्रदेव देवताओं के लिए अमृतस्वरूप और मनुष्यों के लिए संजीवन हैं, वे भी मेरी ही आज्ञा से प्रेरित होते हैं।
जो अपनी दिव्य ज्योति से संपूर्ण जगत को सदा प्रकाशित करता है, वही सूर्य अपनी ऊर्जा से जलवृष्टि करता है। वह स्वयम्भू परमेश्वर ही शास्त्रों के द्वारा सृष्टि का संचालन करता है।
जो समस्त संसार के शासक, समस्त देवताओं के अधिपति, और यज्ञ करने वालों को फल देने वाले देवता इन्द्र हैं, वे भी मेरी ही आज्ञा से कार्यरत हैं।
जो असाधुजनों को दंड देने वाले हैं, वे स्वयं नियमपूर्वक इस संसार में स्थित हैं। वह वैवस्वत यमदेव, जो देवताओं के आदेशानुसार कार्य करते हैं, मेरी ही आज्ञा से यमराज रूप में स्थित हैं।
जो समस्त धन का अधिपति और सम्पदा का प्रदायक है, वही कुबेर, जो धन का स्वामी कहलाता है, सदा ईश्वर की आज्ञा से कार्य करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो समस्त राक्षसों के स्वामी और तमोगुण से युक्त जीवों को फल देने वाले हैं, वे निरृति देव भी मेरी ही आज्ञा से सदैव कार्यरत हैं।
जो वेतालों, भूतों तथा अन्य अदृश्य प्राणियों के स्वामी हैं, जो अपने भक्तों को भोग और फल प्रदान करते हैं, वे ईशान भी मेरी ही आज्ञा से स्थित हैं।
जो वामदेव और अंगिरा ऋषि के शिष्य तथा रुद्रगणों के प्रधान हैं, जो सदैव योगियों की रक्षा करते हैं, वे भी मेरी ही आज्ञा से कार्यरत हैं।
जो संपूर्ण जगत द्वारा पूजित हैं और विघ्न उत्पन्न करने वाले माने जाते हैं, वे विनायक भी धर्म के प्रति अनुरक्त होकर मेरी ही वाणी का अनुसरण करते हैं।
जो ब्रह्मविदों में श्रेष्ठ और देवसेना के अधिपति हैं, वे भगवान् स्कन्द भी मेरी ही प्रेरणा से सदैव स्थित रहते हैं।
जो प्रजाओं के स्वामी, मरीचि आदि महर्षि हैं, वे विविध लोकों की सृष्टि भी परब्रह्म की आज्ञा से ही करते हैं।
जो श्री देवी समस्त प्राणियों को विपुल ऐश्वर्य प्रदान करती हैं, वे भगवान् नारायण की पत्नी हैं और मेरे ही अनुग्रह से स्थित रहती हैं।
जो वाणी का दान करने वाली देवी सरस्वती हैं, वे भी ईश्वर की आज्ञा से प्रेरित होकर कार्यरत रहती हैं।
जो देवी सावित्री समस्त पापी पुरुषों को घोर नरकों से तारने वाली हैं, वे भी देवाज्ञा का पालन करती हैं।
जो परात्पर देवी पार्वती हैं और ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाली हैं, वे भी विशेष रूप से ध्यान की जाने पर मेरी ही वाणी का अनुसरण करती हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो अनंत महिमा से युक्त, अनंत रूप वाले और समस्त देवताओं के स्वामी शेषनाग हैं, वे भी लोकों को अपने सिर पर धारण करते हुए देवताओं की आज्ञा का पालन करते हैं।
जो प्रलयंकारी अग्नि सदा वडवा मुख रूप में स्थित रहता है और सम्पूर्ण समुद्र का पान करता है, वह भी ईश्वर की आज्ञा से कार्य करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो इस ब्रह्मांड में प्रसिद्ध तेजस्वी चौदह मनु हैं, वे सभी प्रजा पालन भी मेरी ही आज्ञा से करते हैं।
आदित्य, वसु, रुद्र, मरुत, अश्विनीकुमार तथा अन्य समस्त देवगण भी मेरे ही शास्त्रों के अनुसार स्थित हैं।
गंधर्व, गरुड़, ऋक्ष, सिद्ध, साध्य, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच— ये सभी सृष्टि में स्वयम्भू की इच्छा से ही स्थित हैं।
समय की विभिन्न इकाइयाँ— कला, काष्ठा, निमेष, मुहूर्त, दिवस, रात्रि, ऋतु, पक्ष, मास— ये सब प्रजापति के विधान में स्थित हैं।
युग, मन्वंतर, परार्ध तथा अन्य सभी काल-भेद मेरी ही आज्ञा में स्थित रहते हैं।
चार प्रकार के जीव— स्थावर (स्थिर), जंगम (गतिशील), सभी परमात्मा की ही आज्ञा से संचालित होते हैं।
संपूर्ण पाताल लोक, समस्त भुवन, तथा सम्पूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर की ही आज्ञा से स्थित रहते हैं।
असंख्य अतीत ब्रह्मांड भी मेरी ही आज्ञा से समस्त पदार्थों के साथ उत्पन्न हुए और प्रवृत्त हुए।
भविष्य में भी जितने ब्रह्मांड उत्पन्न होंगे, वे भी अपने ही पदार्थों के साथ सदा परमात्मा की ही आज्ञा का पालन करेंगे।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि तथा समस्त आदिप्रकृति मेरी ही आज्ञा में स्थित हैं।
जो समस्त जगत की उत्पत्ति करने वाली और समस्त देहधारियों को मोहित करने वाली माया है, वह भी सदा ईश्वर की ही आज्ञा से परिवर्तित होती रहती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो समस्त देहधारियों का परम पुरुष और परब्रह्म के रूप में वर्णित होता है, वह आत्मा भी सदा ईश्वर की ही आज्ञा का पालन करता है।
जिस बुद्धि के द्वारा मनुष्य मोह के अंधकार को नष्ट कर उस परम पद का दर्शन करता है, वह बुद्धि भी महेश्वर की ही आज्ञा में रहती है।
इस प्रकार अधिक कहने की क्या आवश्यकता है? यह सम्पूर्ण जगत मेरी ही शक्ति का स्वरूप है। यह मेरी प्रेरणा से प्रवृत्त होता है और मुझमें ही लय को प्राप्त करता है।
मैं ही भगवान्, ईश्वर, स्वयम्भू, स्वयंप्रकाशित, सनातन, परमात्मा और परब्रह्म हूँ। मुझसे भिन्न कोई अन्य नहीं है।
हे ऋषियों! यह परम ज्ञान मैंने तुमसे कहा। इसे जानकर जीव जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
ईश्वर बोले –
हे ऋषियों! तुम सब परमेश्वर की महिमा सुनो।
जिसे जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है और फिर संसार में नहीं गिरता।
जो परात्पर, शाश्वत, निष्कलंक और परम ब्रह्म है,
जो नित्य आनंदस्वरूप, निर्विकल्प और परम धाम है – वही मेरा स्वरूप है।
मैं ही ब्रह्मज्ञों के लिए ब्रह्म, स्वयंभू और विश्वरूप हूँ।
मैं ही मायावियों के लिए देव, सनातन, अविनाशी और पुराण पुरुष हरि हूँ।
योगियों के लिए मैं शंभु (महादेव) हूँ, स्त्रियों में गिरिराजपुत्री (पार्वती) हूँ।
आदित्यों में मैं विष्णु और वसुओं में अग्नि हूँ।
रुद्रों में मैं शंकर हूँ, पक्षियों में गरुड़ हूँ।
गजों में ऐरावत और शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ।
ऋषियों में मैं वसिष्ठ, देवताओं में इंद्र हूँ।
शिल्पियों में मैं विश्वकर्मा और असुरों में प्रह्लाद हूँ।
मुनीश्वरों में मैं व्यास, गणों में गणेश हूँ।
वीरों में वीरभद्र और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ।
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पर्वतों में मैं मेरु, नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ।
प्रहरणों में वज्र और व्रतों में सत्य हूँ।
सर्पों में अनंत, सेनापतियों में कार्तिकेय हूँ।
आश्रमों में गृहस्थ और ईश्वरों में महेश्वर हूँ।
कल्पों में महाकल्प, युगों में सतयुग हूँ।
यक्षों में कुबेर और वृक्षों में पीपल हूँ।
प्रजापतियों में दक्ष, राक्षसों में निरृति हूँ।
बलशालियों में वायु और द्वीपों में पुष्कर हूँ।
सिंहों में मैं सिंह, शस्त्रों में धनुष हूँ।
वेदों में सामवेद और यजुर्वेद में शतरुद्रीय हूँ।
समस्त जपों में गायत्री, गुह्य मंत्रों में प्रणव (ॐ) हूँ।
सूक्तों में पुरुषसूक्त, समवेद में ज्येष्ठसाम हूँ।
सभी वेदों के रहस्य को जानने वालों में मैं स्वयंभू मनु हूँ।
देशों में ब्रह्मावर्त और तीर्थों में अविमुक्त क्षेत्र हूँ।
विद्याओं में आत्मविद्या, ज्ञानों में परम ऐश्वर्य ज्ञान हूँ।
भूतों में आकाश और सत्वगुणियों में मृत्यु हूँ।
बंधन में माया, गणनाओं में काल हूँ।
गति में मुक्ति, और समस्त श्रेष्ठजनों में परमेश्वर हूँ। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इस संसार में जो कुछ भी सत्त्वगुणी, तेजस्वी और बलशाली है, वह सब मेरे तेज का ही विस्तार है।
संसार में विचरण करने वाले सभी जीवों को 'पशु' कहा गया है। उनके स्वामी मैं ही हूँ, इसीलिए ज्ञानीजन मुझे 'पशुपति' कहते हैं।
मैं अपनी माया से इन जीवों को पाश में बाँधता हूँ, और वेदों के ज्ञाता मुझे ही उन बंधनों से मुक्त करने वाला बताते हैं।
जो माया के पाश में बंधे हैं, उन्हें मुक्त करने वाला मेरे अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है। मैं ही परमात्मा, भूतों का स्वामी और अविनाशी हूँ। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
माया, कर्म और गुण— ये ही पशुपति के पाश हैं, और इनसे उत्पन्न क्लेश ही जीवों के बंधन का कारण हैं।
मन, बुद्धि, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी— ये आठ प्रकृतियाँ हैं, तथा इनके और भी विकार हैं।
श्रवण, स्पर्श, दृष्टि, रसना और घ्राण— ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। गुदा, उपस्थ, हाथ, पैर और वाणी— ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं।
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध— ये पाँच तन्मात्राएँ हैं। इस प्रकार ये तेईस प्रकृति तत्त्व माने गए हैं।
चौबीसवाँ तत्त्व अव्यक्त, प्रधान और गुणों का लक्षणधारी है, जो अनादि, मध्यरहित और जगत का परम कारण है।
सत्त्व, रज और तम— ये तीन गुण बताए गए हैं। जब ये सम अवस्था में होते हैं, तो उसे 'अव्यक्त प्रकृति' कहा जाता है।
सत्त्व ज्ञानस्वरूप, तम अज्ञानस्वरूप और रज इन दोनों का मिश्रण कहा गया है। गुणों में असमानता ही बुद्धि की असमानता का कारण होती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
धर्म और अधर्म— ये दो कर्मरूप पाश माने गए हैं। जो कर्म मुझमें अर्पित किए जाते हैं, वे बंधनकारक नहीं होते, बल्कि मुक्ति देने वाले होते हैं।
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश— इन पाँच को 'क्लेश' कहा जाता है। यही आत्मा को बाँधने वाले पाश हैं।
इन पाशों का मूल कारण माया ही मानी गई है। यह मूलप्रकृति, अव्यक्त शक्ति, मेरी ही शक्ति के रूप में स्थित है।
वही मूलप्रकृति 'प्रधान' और 'पुरुष' भी कहलाती है। उसी से महत्तत्त्व आदि विकार उत्पन्न होते हैं, और वह स्वयं सनातन देवाधिदेव है।
वही बंधन है, वही बंधनकर्त्ता है, वही पाश है और वही पशुओं (जीवों) का स्वामी है। वह सब कुछ जानता है, किंतु उसे कोई नहीं जान सकता। उसे ही आदि पुरुष और पुराण पुरुष कहा गया है।
ईश्वर बोले—
अब मैं तुम्हें एक और परम गुह्य ज्ञान बताता हूँ, जिससे प्राणी इस भयंकर संसार-सागर को पार कर सकता है।
मैं ही ब्रह्मस्वरूप, शांति से युक्त, शाश्वत, निर्मल और अविनाशी हूँ। एकाकी, भगवान, केवल और परमेश्वर कहा गया हूँ।
मेरा महद्ब्रह्म ही मेरी योनि है, उसमें मैं गर्भ स्थापित करता हूँ। वही मूल माया कहलाती है, और उससे यह समस्त जगत उत्पन्न होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
प्रधान, पुरुष, आत्मा, महत्तत्त्व, पंचभूत और तन्मात्राएँ तथा इंद्रियाँ— इन सबकी उत्पत्ति उससे ही होती है।
इसके बाद, सूर्य के करोड़ों तेज के समान एक अंड उत्पन्न हुआ। उसी से मेरी शक्ति द्वारा परिपोषित महाब्रह्मा प्रकट हुए।
अन्य जितने भी जीव हैं, वे सब मुझसे उत्पन्न हुए हैं, फिर भी वे मेरी माया से मोहित होकर मुझ पितरूप को नहीं देख पाते।
समस्त योनियों में जितने भी शरीर उत्पन्न होते हैं, उनकी मूल योनि यह माया ही है, और वेदों के ज्ञाता मुझे ही उन सबका पिता मानते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो मुझे बीजरूप, पितारूप और परम प्रभु के रूप में जानता है, वह धीर पुरुष संसार के किसी भी लोक में मोह को प्राप्त नहीं करता।
मैं ही समस्त विद्याओं का ईश्वर और समस्त भूतों का परमेश्वर हूँ। ओंकारमूर्ति, भगवान, ब्रह्मा और समस्त प्रजाओं का स्वामी मैं ही हूँ। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो परमेश्वर को समस्त प्राणियों में समान रूप से स्थित देखता है, जो सबके विनाशकाल में भी अविनाशी रहता है— वही वास्तव में देखता है।
जो सर्वत्र समत्वभाव से स्थित परमेश्वर को देखता है, वह अपने आत्मा से आत्मा का ही नाश नहीं करता और इस प्रकार परम गति को प्राप्त करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो सात सूक्ष्म तत्त्वों और महेश्वर के छह अंगों को जानता है, वह प्रधान के विनियोग को समझकर परम ब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।
सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वच्छंदता, नित्य अमोघ शक्ति और अनंत शक्ति— इन छह को महेश्वर के अंग कहा गया है।
तन्मात्राएँ, मन और आत्मा— इन्हें सात सूक्ष्म तत्त्व कहा गया है, जो तत्त्वों का समूह हैं। वही कारणभूत प्रकृति प्रधान कहलाती है, वही बंधन और उसी का विनियोग बताया गया है।
जो शक्ति प्रकृति में लीनरूप से स्थित है, वेदों में उसे कारण, ब्रह्म-योनि कहा गया है। उसी शक्ति के आगे एक परमेष्ठी महेश्वर, सत्यस्वरूप पुरुष स्थित हैं।
ब्रह्मा, योगी, परमात्मा, महान, आकाशव्यापी, वेदों से जानने योग्य और पुराण पुरुष मैं ही हूँ।
एक ही रुद्र, मृत्यु, अव्यक्त, बीजरूप विश्व, देव— सब मैं ही हूँ।
कुछ लोग मुझे एक और कुछ अनेक रूपों में बताते हैं। कुछ मुझे एक आत्मा कहते हैं और कुछ अन्य रूप में। परंतु मैं ही सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और महान से भी महान महादेव हूँ, ऐसा वेदवेत्ता ज्ञानीजन कहते हैं।
जो इस प्रकार परमात्मा, गुह्यस्थान में स्थित प्रभु, पुराण पुरुष और विश्वरूप हिरण्यमय परम सत्ता को जान लेता है, वह बुद्धिमान बनकर अन्य सभी बुद्धिमानों से श्रेष्ठ हो जाता है और स्थिर रहता है।
ऋषियों ने पूछा—
हे महादेव! आप निष्कल, निर्मल, नित्य और निष्क्रिय परमेश्वर हैं, फिर भी आप विश्वरूप कैसे हैं? कृपया हमें इसका ज्ञान दीजिए।
ईश्वर बोले—
हे द्विजो! मैं न विश्व हूँ और न ही विश्व मुझसे अलग अस्तित्व रखता है। यह सब केवल माया के कारण है, और वह माया मुझमें ही स्थित है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
माया एक अनादिनिधन शक्ति है, जो अव्यक्त रूप में रहती है। उसी के कारण यह समस्त प्रपंच अव्यक्त से प्रकट हुआ है।
वेदों में अव्यक्त को ही कारण कहा गया है। वह आनंदस्वरूप, ज्योतिर्मय और अक्षर (अविनाशी) है। वास्तव में, मैं ही परब्रह्म हूँ और मुझसे भिन्न कुछ भी नहीं है।
इस कारण ही ब्रह्मवेत्ता मुझमें विश्वरूपता की प्रतिष्ठा करते हैं। एकत्व (अद्वैत) और पृथक्त्व (द्वैत)— दोनों ही दृष्टियों से यह उदाहरण दिया जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैं ही वह परम ब्रह्म, परमात्मा और सनातन तत्त्व हूँ। मैं अकारण हूँ और मुझमें कोई दोष नहीं होता।
मेरी अनंत अव्यक्त शक्तियाँ माया के द्वारा स्थित हैं और सदा अचल बनी रहती हैं। वे दिव्य रूप से स्थित रहकर नित्य अव्यक्त परम तत्त्व को प्रकाशित करती हैं।
इन्हीं शक्तियों के माध्यम से सनातन अव्यक्त ब्रह्म को भिन्न रूप में पहचाना जाता है। इनमें से एक शक्ति के द्वारा मेरी अनादिनिधन सायुज्यता (एकत्व) प्राप्त होती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जैसे किसी पुरुष की विभिन्न योग्यताएँ होती हैं, पर वे उसे नष्ट नहीं करतीं, वैसे ही अविद्या के कारण जीव मुझ अनादिमध्यनिधन सत्य को छोड़कर अन्य कर्म करता रहता है।
वही परम प्रकाशरूप व्यक्त स्वरूप, प्रभामंडल से युक्त और अक्षर है। वही परम ज्योति है और वही विष्णु का परम पद है।
संपूर्ण जगत उसमें ही ओतप्रोत है, उसी में स्थित है और वही संपूर्ण जगत है। जो इसे जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है।
जिसके विषय में वाणी और मन भी लौट आते हैं, जिसे वे प्राप्त नहीं कर सकते— वह ब्रह्मानंदस्वरूप परम तत्त्व है। जो इसे जान लेता है, वह फिर किसी से भय नहीं करता।
"मैं इस महापुरुष को जानता हूँ, जो सूर्य के समान प्रकाशित और अंधकार से परे है।" जो इसे जान लेता है, वह पूर्णत: मुक्त होकर ब्रह्मानंदस्वरूप हो जाता है।
जिससे परे और कुछ भी नहीं है, जो समस्त प्रकाशों का भी प्रकाश है और दिव्य स्वरूप में स्थित है— जो ज्ञानी इसे आत्मस्वरूप मानता है, वह ब्रह्मानंदस्वरूप हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यही वह गूढ़ रहस्ययुक्त ब्रह्मानंदस्वरूप, अमृतस्वरूप और समस्त विश्व का आधारभूत तत्त्व है। ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानीजन कहते हैं कि जो इसे प्राप्त कर लेता है, वह फिर लौटकर संसार में नहीं आता।
जो हिरण्यमय परम आकाश तत्त्व में, तेज से प्रकाशित ज्योति को देखता है, वह उसे परम दिव्य, निर्मल और आकाशधामस्वरूप रूप में साक्षात अनुभव करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसके बाद, वे ज्ञानीजन आत्मा में आत्मस्वरूप को साक्षात अनुभव करते हैं। वह स्वयंप्रभु, परमेष्ठी, महान, ब्रह्मानंदस्वरूप और भगवान ईश्वर ही है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
एकमात्र यही देवता समस्त प्राणियों में गूढ़ रूप से स्थित है। वही सर्वव्यापक और समस्त प्राणियों के अंतर्यामी आत्मा है। जो धीर पुरुष इसे साक्षात देखते हैं, वे शाश्वत शांति को प्राप्त करते हैं— अन्य कोई नहीं।
जिसकी अनंत मुख, सिर और ग्रीवाएँ हैं, जो समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित है, और जो सर्वव्यापक भगवान है— उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
हे मुनिश्रेष्ठों! मैंने तुम्हें यह ऐश्वर्ययुक्त दिव्य ज्ञान बता दिया है। यह विशेष रूप से गुप्त रखने योग्य है और योगियों के लिए भी दुर्लभ है।
ईश्वर बोले—
अलक्षणीय, अव्यक्त, एकमात्र परम तत्त्व ही असली लिंग (चिह्न) है, जिसे निश्चित रूप से ब्रह्म कहा जाता है। वह स्वयंप्रकाशित, परम सत्य और परे आकाश में स्थित है।
जो अव्यक्त है, वही कारण है; वही अक्षर और परम पद है। वह निर्गुण, शुद्ध और ज्ञानस्वरूप है— इसी को ऋषिगण प्रत्यक्ष रूप में देखते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो उसमें स्थित रहते हैं, जिनके संकल्प शांत हो चुके हैं और जो नित्य उस तत्त्व में तल्लीन रहते हैं, वे ही उस परम ब्रह्म को देखते हैं। इसी कारण उसे "लिंग" (चिह्न) कहा गया है।
हे मुनिश्रेष्ठों! अन्य किसी प्रकार से मुझे देखना संभव नहीं है, क्योंकि परम तत्त्व को जानने के लिए कोई साधारण ज्ञान नहीं होता।
यही परम ज्ञान है, जिसे केवल मनीषीजन जानते हैं। इसके अलावा सब कुछ अज्ञान ही है, क्योंकि यह जगत माया से ही बना हुआ है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो ज्ञान निर्मल, शुद्ध, निर्विकल्प और अविनाशी है— वह मेरा आत्मस्वरूप ही है। ज्ञानीजन कहते हैं कि यही सब कुछ है।
जो लोग अनेक रूपों में मुझे देखते हैं, वे भी उसी परम तत्त्व को ही देखते हैं, क्योंकि वे उस परम स्थिति में स्थित होकर अविनाशी तत्त्व को पहचानते हैं।
जो मुझे परम तत्त्व के रूप में या अनेक रूपों में देखते हैं और भक्ति द्वारा मेरा अनुभव करते हैं, वे सब उसी परम तत्त्व के स्वरूप को प्राप्त होते हैं।
वे प्रत्यक्ष रूप में अपने ही आत्मस्वरूप में परमेश्वर को देखते हैं, जो नित्यानंद, निर्विकल्प और सत्यस्वरूप है।
जो मुझमें स्थित होकर, शांतचित्त होकर और परम अव्यक्त ब्रह्म में स्थित होकर परम आनंदस्वरूप को भजते हैं, वे ही वास्तविक मुक्त पुरुष होते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यही परम मुक्ति है— मेरा सायुज्य, जो सर्वोच्च स्थिति है। इसे ब्रह्म के साथ एकत्व, निर्वाण और कैवल्य कहा जाता है।
इसलिए, जो आदि, मध्य और अंत से रहित, एकमात्र परमतत्त्व और शिवस्वरूप परमेश्वर को जानता है, वही सच्चे रूप में मुक्त होता है।
जहाँ न सूर्य की किरणें हैं, न चंद्रमा का प्रकाश, न तारों का समूह और न विद्युत की चमक— वहाँ केवल वही प्रकाशमान तत्त्व स्वयं अपनी ज्योति से समस्त विश्व को प्रकाशित करता है।
जो निष्कल, निर्विकल्प, शुद्ध, महान और परम है— वही समस्त विश्व का आधार है। जो ब्रह्मवेत्ता हैं, वे इस अनंत तत्त्व को नित्य अनुभव करते हैं। यही ईश्वर है।
समस्त वेद उसे ही नित्यानंद, अमृत और सत्यस्वरूप पुरुष कहते हैं। वेदों का अर्थ निश्चित रूप से जानने वाले महात्मा उसे प्रणव (ओंकार) के माध्यम से ध्यान करते हैं।
वहाँ न पृथ्वी है, न जल, न मन, न अग्नि, न प्राण, न वायु, न आकाश और न बुद्धि— वहाँ केवल वही शिवस्वरूप परमदेव प्रकाशित होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यह परम रहस्ययुक्त ज्ञान, जो समस्त वेदों में गूढ़ रूप से छिपा है, केवल योगी ही इसे जान सकते हैं। अतः योगी को एकांत स्थान में निरंतर योग का अभ्यास करना चाहिए।
ईश्वर बोले—
अब मैं उस परम दुर्लभ योग का वर्णन करूँगा, जिससे आत्मा को उसी प्रकार देखा जा सकता है जैसे सूर्य के प्रकाश में ईश्वर का साक्षात्कार होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
योग की अग्नि शीघ्र ही समस्त पापों के बंधन को भस्म कर देती है। इससे उत्पन्न ज्ञान, प्रत्यक्ष रूप से निर्वाण की प्राप्ति कराता है।
योग से ज्ञान उत्पन्न होता है और ज्ञान से योग की सिद्धि होती है। जो योग और ज्ञान से संयुक्त होता है, उस पर महेश्वर प्रसन्न होते हैं।
जो एक समय, दो समय, तीन समय अथवा निरंतर महायोग का अभ्यास करते हैं, वे ही वास्तव में महेश्वर के स्वरूप माने जाते हैं।
योग दो प्रकार का होता है— पहला "अभावयोग" और दूसरा "महायोग," जो समस्त योगों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
जिसमें समस्त विषयों की शून्यता, निष्कलंकता और स्वरूप का चिंतन किया जाता है, उसे "अभावयोग" कहा गया है, जिससे आत्मा का साक्षात्कार होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जिसमें आत्मा को नित्य, आनंदस्वरूप, निर्मल और परमेश्वर से एकीकृत देखा जाता है, उसे "महायोग" कहा गया है।
अन्य जितने भी योगों का वर्णन शास्त्रों में किया गया है, वे सभी ब्रह्मयोग के सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं ठहरते।
जिसमें मुक्त पुरुष प्रत्यक्ष रूप से समस्त विश्व के ईश्वर को देखते हैं, वही योग सभी योगों में परम माना गया है।
जो हजारों, सैकड़ों वर्षों तक योग में लगे रहते हैं, परंतु ईश्वर को बाह्य दृष्टि से खोजते हैं, वे प्रयासरत योगी भी मुझे प्रत्यक्ष रूप से नहीं देख सकते। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा, समाधि, यम, नियम और आसन— ये सभी योग के अंग हैं।
जो मेरी ओर चित्त को एकाग्र करके, अन्य वृत्तियों को रोककर योग का अभ्यास करता है, वह सिद्ध होता है। अन्य साधन भी इसी हेतु बताए गए हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह— ये यम हैं, जो मनुष्य की चित्तशुद्धि में सहायक होते हैं।
कर्म, वाणी और मन से, सभी प्राणियों के प्रति, सभी अवस्थाओं में अहिंसा का पालन करना परम ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट है।
अहिंसा से बड़ा कोई धर्म नहीं है, न ही अहिंसा से बढ़कर कोई सुख है। विधिपूर्वक की गई हिंसा भी वास्तविक रूप से अहिंसा ही मानी जाती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सत्य के द्वारा सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि सत्य में ही समस्त अस्तित्व प्रतिष्ठित है। जो यथार्थ कथन और सदाचार में स्थित है, वही सत्य कहलाता है।
परधन का हरण, चोरी, अथवा बलपूर्वक किसी का अधिकार छीनना— ये सब "स्तेयं" (चोरी) कहलाते हैं। इसका परित्याग ही अस्तेय (चोरी न करना) कहलाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
कर्म, वाणी और मन से, सभी अवस्थाओं में, सर्वत्र मैथुन का त्याग करना ब्रह्मचर्य कहा गया है।
अपनी इच्छा से या आपत्ति की स्थिति में भी परधन न लेना ही अपरिग्रह कहलाता है। इसका कठोरता से पालन करना चाहिए।
तप, स्वाध्याय, संतोष, शौच और ईश्वर का पूजन— ये नियम कहे गए हैं, जो योग की सिद्धि में सहायक होते हैं।
उपवास, कठिन व्रतों और चंद्रायण व्रतादि के द्वारा शरीर को तपाना ही उत्तम तप कहलाता है।
वेदांत, शतरुद्रीय और प्रणव (ओंकार) का जप करना, जो पुरुष की सत्त्वशुद्धि करता है, उसे स्वाध्याय कहा गया है।
स्वाध्याय के तीन प्रकार होते हैं— वाचिक (उच्च स्वर में), उपांशु (धीमे स्वर में) और मानसिक (मौन चिंतन)। विद्वानों ने इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठता बताई है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो स्पष्ट रूप से शब्दों का बोध कराता है, वह "वाचिक स्वाध्याय" कहलाता है, और जो केवल होंठों के हल्के स्पंदन से किया जाए, वह "उपांशु स्वाध्याय" माना जाता है।
जो जप बिना किसी उच्चारण या स्पंदन के केवल मानसिक रूप से किया जाता है, वह "मानसिक जप" कहलाता है।
जो पुरुष जो भी उपलब्ध होता है, उसी में संतोष करता है, वही वास्तव में शुद्धचित्त होता है। ऋषियों ने संतोष को सुख का लक्षण बताया है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
शौच दो प्रकार का होता है— बाह्य और आभ्यंतर। मिट्टी और जल से शरीर की शुद्धि बाह्य शौच है, जबकि मन की शुद्धि आभ्यंतर शौच कहलाती है।
स्तुति, स्मरण और पूजन— वाणी, मन और शरीर से जो ईश्वर की अनन्य भक्ति की जाती है, वही वास्तविक ईश्वर पूजन कहलाता है।
यम और नियम का वर्णन करने के बाद अब मैं प्राणायाम का वर्णन करूँगा। जो वायु शरीर में उत्पन्न होती है, उसका नियंत्रण और संयम ही "प्राणायाम" कहलाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
योग के उत्तम, मध्यम और अधम— तीन प्रकार बताए गए हैं। इसी प्रकार, योग को दो भागों में विभाजित किया गया है— सगर्भ और अगर्भ।
जो प्राणायाम बारह मात्राओं तक सीमित रहता है, वह मंद माना जाता है। जो चौबीस मात्राओं का होता है, वह मध्यम है, और जो छत्तीस मात्राओं का होता है, वह उत्तम प्राणसंरोध (प्राणायाम) कहा गया है।
स्वेद (पसीना), कंपन (कंपन) और उच्च स्वर में श्वास-प्रश्वास उत्पन्न करने वाला प्राणायाम क्रमशः मंद, मध्यम और उत्तम माना जाता है। आनंददायक और सर्वोत्तम वही है, जो इन दोषों से मुक्त हो।
जिस प्राणायाम में मंत्रजप किया जाता है, उसे "सगर्भ" कहते हैं, और जो बिना जप के किया जाता है, उसे "अगर्भ" कहा जाता है। यह योगियों के लिए प्राणायाम की पहचान मानी गई है।
जो योगी दीर्घ श्वास लेते हुए व्याहृति (भूः, भुवः, स्वः) और प्रणव (ॐ) सहित गायत्री मंत्र का त्रिवार जप करते हैं, वह प्राणायाम कहलाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
योगीजन सभी शास्त्रों में प्राणायाम के तीन भेद बताते हैं— रेचक, पूरक और कुम्भक।
बाहरी श्वास को बाहर निकालना "रेचक" कहलाता है, श्वास को अंदर लेना "पूरक" कहा जाता है, और समान रूप से स्थिर श्वास को "कुम्भक" माना गया है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
स्वाभाविक रूप से विषयों में विचरण करने वाले इंद्रियों को संयमित करना "प्रत्याहार" कहा जाता है।
हृदय-कमल, नाभि, मस्तक और शरीर के अन्य विशिष्ट स्थानों में चित्त को स्थिर करना "धारणा" कहलाता है।
जो बुद्धि एक ही स्थान पर स्थिर रहती है और जिसे अन्य वृत्तियाँ बाधित नहीं करतीं, वही "ध्यान" कहलाता है।
जो ध्यान केवल एक ही स्वरूप में स्थिर होता है और किसी स्थान विशेष पर आश्रित नहीं होता, वही "समाधि" मानी गई है।
धारणा का काल बारह मात्राओं का होता है, बारह धारणाओं का योग "ध्यान" कहलाता है, और बारह ध्यानों के संयोग से "समाधि" सिद्ध होती है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
स्वस्तिक, पद्म और अर्धासन— ये योग के सर्वश्रेष्ठ आसन माने गए हैं।
दोनों पैरों को जंघाओं पर रखकर, शरीर को स्थिर रखते हुए जो बैठा जाता है, वह "पद्मासन" कहलाता है।
यदि एक पैर को जंघा पर रखा जाए, तो वह "अर्धासन" कहलाता है।
यदि दोनों पैरों को सामने रखकर और घुटनों के मध्य में जकड़कर बैठा जाए, तो उसे "स्वस्तिकासन" कहते हैं।
योग के अभ्यास के लिए अनुचित स्थानों का भी वर्णन किया गया है— जैसे अग्नि के पास, जल के भीतर, सूखे पत्तों के ढेर पर, श्मशान में, जीर्ण गौशाला में, चौराहे पर, शोरगुल वाले स्थानों में, भय उत्पन्न करने वाले क्षेत्रों में, कीट-पतंगों से युक्त स्थानों पर, अपवित्र स्थानों पर, दुष्टजनों से भरे स्थानों में, रोग अथवा मानसिक क्लेश से ग्रस्त अवस्था में योग का अभ्यास नहीं करना चाहिए।
योग के लिए उत्तम स्थान कौन-से हैं?— पर्वतों की गुफा, नदी के किनारे पुण्यभूमि, देवालय, स्वच्छ और शांत घर, रमणीय स्थान, एकांत स्थान जहाँ कोई बाधा न हो— इन स्थानों में योग का अभ्यास करना चाहिए।
योगी को चाहिए कि वह योग के आचार्यों, गुरुओं और विनायक देवता का पूजन करके ध्यान आरंभ करे।
स्वस्तिक, पद्म या अर्धासन में स्थित होकर, दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर स्थिर करके, मन को शांत और निर्भय करके, मायामय संसार को त्यागकर, आत्मस्वरूप में स्थित परमेश्वर का ध्यान करना चाहिए।
अपने सिर के ऊपर बारह अंगुल की ऊँचाई पर एक दिव्य कमल की कल्पना करनी चाहिए, जो धर्मकंद से उत्पन्न हुआ हो, ज्ञान रूपी नाल से युक्त हो, और अत्यंत शोभायमान हो। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इस कमल के आठ श्वेत दल हों, वैराग्य ही उसकी कर्णिका (मध्य भाग) हो, और इसके मध्य में परम ब्रह्म स्थित हो।
उस ब्रह्म को सभी शक्तियों से युक्त, दिव्य, अव्यय, ओंकार स्वरूप, अनिर्वचनीय और प्रकाशमय जानना चाहिए।
उस ज्योतिर्मय, अक्षर और निर्मल ब्रह्म का ध्यान करें और उसमें अपने आत्मस्वरूप का समावेश करें।
आकाश के मध्य में स्थित, समस्त कारणों के कारण, ईश्वर का ध्यान करें। उस ध्यान में लीन होकर, अन्य किसी भी वस्तु का चिंतन न करें।
यह ध्यान अत्यंत गोपनीय है। इससे भी उच्चतर ध्यान की विधि बताई जाती है— हृदय में स्थित सर्वोत्तम कमल का ध्यान करना चाहिए, जिसे पूर्व में बताया गया है।
योगी को आत्मा को कर्ता के रूप में देखना चाहिए, जो कि अग्निशिखा के समान तेजस्वी है। उसके मध्य में पंचविंशतितत्त्वों से युक्त पुरुष (परमात्मा) स्थित है।
उस परमात्मा का ध्यान करना चाहिए, जो अपने मध्य में अनंत आकाश को धारण करता है। वह ओंकार से प्रकट हुआ तत्व है, शाश्वत, शिवस्वरूप और अच्युत (अविनाशी) है।
वह अव्यक्त है, प्रकृति में लीन है, परम ज्योति और सर्वोच्च तत्व है। वह आत्मा का आधार है और निर्मल है।
योगी को प्रतिदिन उस महेश्वर का ध्यान करना चाहिए, जो एकरूप और तत्वों से परे है। प्रणव (ओंकार) के माध्यम से समस्त तत्वों को विशुद्ध कर उसे ध्यान में धारण करना चाहिए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
अपने शरीर को ज्ञान के जल से शुद्ध कर, आत्मा को मेरे परम निर्मल पद में स्थापित करना चाहिए।
मुझमें मन को लीन कर, अग्निहोत्र की भस्म से स्वयं को शुद्ध करना चाहिए और वैदिक मंत्रों के द्वारा शरीर को पवित्र करना चाहिए।
स्वात्मा में ईश्वर रूपी परम ज्योति का ध्यान करना चाहिए। यही पाशुपत योग है, जो जीव को बंधनों से मुक्त करता है।
यह समस्त वेदांत का सार है और संन्यासियों के लिए परम आश्रय है। यह अत्यंत गोपनीय ज्ञान है, जो मेरे सायुज्य (परमात्मा से एकत्व) को प्रदान करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
यह उपदेश द्विज, भक्त और ब्रह्मचारी के लिए कहा गया है। ब्रह्मचर्य, अहिंसा, क्षमा, शौच (शुद्धता), तप और आत्मसंयम—ये व्रत के मुख्य अंग हैं।
यदि इनमें से एक भी लुप्त हो जाए, तो व्रत अधूरा हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
इसलिए, जो आत्मिक गुणों से युक्त है, वही मेरे व्रत को धारण करने योग्य है। जो राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर मुझमें तन्मय हो जाते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
जो भक्त जिस भाव से मेरी शरण में आता है, मैं उसी प्रकार उसे फल प्रदान करता हूँ।
परमेश्वर की उपासना ज्ञानयोग, भक्तियोग या परम वैराग्य से की जानी चाहिए।
जो निर्मल और बुद्धियुक्त चित्त से मुझे पूजता है और संन्यास लेकर भिक्षा पर निर्भर रहता है, वह मुझे प्राप्त करता है।
जो सब प्राणियों से द्वेषरहित, मित्रवत और करुणामय है, वह मेरा प्रिय भक्त है।
जो अहंकाररहित, संतुष्ट, संयमित और मुझमें चित्त लगाने वाला है, वही मुझे प्रिय है।
जो व्यक्ति संसार से न उद्विग्न होता है, न संसार उसे उद्विग्न करता है, वह मुझे प्रिय है।
जो हर्ष, अमर्ष, भय और चिंता से मुक्त है, जो सरल, निर्मल और निष्कपट है, वही मेरा प्रिय भक्त है।
जो समान रूप से निंदा और स्तुति में स्थित रहता है, जो सदा संतुष्ट रहता है और जिसके चित्त में स्थिरता है, वह मुझे प्राप्त करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो व्यक्ति मेरे परायण रहकर समस्त कर्म करता है, वह मेरे अनुग्रह से परम पद को प्राप्त करता है।
जो समस्त कर्मों को मुझे अर्पित कर, इच्छाओं और ममता से मुक्त होकर मेरी शरण में आता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।
जो फल की आसक्ति को त्याग कर नित्य संतुष्ट और निर्भरता से मुक्त रहता है, वह कर्म करते हुए भी बंधन में नहीं पड़ता।
जो केवल शरीर के निर्वाह हेतु कर्म करता है, उसे परमपद प्राप्त होता है।
जो किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट रहता है और द्वंद्वों से परे होता है, उसके कर्म संसार के बंधनों को नष्ट कर देते हैं।
जो मेरा चिंतन करता है, मेरा पूजन करता है, मेरा ही आश्रय लेता है, वह योगी मुझे प्राप्त करता है।
जो मेरी बुद्धि में स्थिर रहते हैं और निरंतर परस्पर मेरे विषय में चर्चा करते हैं, वे मेरे सायुज्य को प्राप्त होते हैं।
ऐसे भक्तों का कर्म सत्त्वगुणमय होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
मैं उनके समस्त अज्ञान को अपने ज्ञानरूपी दीपक से नष्ट कर देता हूँ।
जो अन्य देवताओं की आराधना भोगों की इच्छा से करते हैं, वे अंततः उन्हीं देवताओं के फल को प्राप्त करते हैं।
जो अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे भी अंततः मुझे ही प्राप्त होते हैं।
अतः जो मरणासन्न अवस्था में मुझमें शरण लेता है, वह परमपद को प्राप्त करता है।
जो सांसारिक मोहों का त्याग कर, चिंता और परिग्रह (संपत्ति) से मुक्त होकर परमेश्वर की आराधना करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो व्यक्ति निरंतर लिंगरूप शिव की पूजा करता है और समस्त भोगों का परित्याग कर देता है, वह एक ही जन्म में परमेश्वरत्व को प्राप्त करता है।
वह परमात्मा शुद्ध, निर्मल और केवल रजत (चाँदी) के समान कांतिमान प्रतीत होता है।
योगियों के हृदय में स्थित वह ज्ञानस्वरूप और सर्वव्यापी परमात्मा है। अन्य जितने भी भक्त हैं, वे नियमानुसार उसका ध्यान करते हैं।
जो भी किसी भी स्थान पर महेश्वर के लिंग की पूजा करते हैं—चाहे जल में, अग्नि में, आकाश में, सूर्य में या अन्यत्र—वे ईश्वर को भावपूर्वक पूजते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
रत्न आदि में ईश्वर का ध्यान कर, उसकी पूजा करनी चाहिए, क्योंकि यह समस्त जगत लिंगस्वरूप ही है और संपूर्ण सृष्टि लिंग में ही स्थित है।
इसलिए, हर स्थान पर उस शाश्वत ईश्वर के लिंग की पूजा करनी चाहिए। अग्नि में कर्मशील लोग पूजन करें, जल में श्रद्धालुजन, आकाश और सूर्य में ज्ञानीजन करें।
मूर्ख लोग लकड़ी आदि में परमात्मा को देखते हैं, किंतु योगी अपने हृदय में परमलिंग का ध्यान करते हैं।
जो अभी तक पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाया, किंतु भक्ति और वैराग्य से युक्त है, उसे जीवनभर मनोयोग से प्रणव (ॐ) का जप करना चाहिए, क्योंकि प्रणव ही ब्रह्मस्वरूप है।
यदि द्विज (ब्राह्मण) अंतकाल में शतरुद्रीय मंत्र का जप करता हुआ, एकाग्रचित्त होकर रहता है, तो वह परमपद को प्राप्त करता है।
यदि ब्राह्मण मृत्यु से पहले वाराणसी में निवास करता है, तो भी वह ईश्वर की कृपा से परमपद को प्राप्त कर सकता है।
मृत्यु के समय सभी जीवों को ईश्वर वही परा विद्या प्रदान करते हैं, जिससे वे संसारबंधन से मुक्त हो जाते हैं।
जो व्यक्ति संपूर्ण वर्णाश्रम धर्म का पालन करता हुआ ईश्वर का उपासक बनता है, वह उसी जन्म में परमज्ञान प्राप्त कर शिवपद को प्राप्त करता है।
जो लोग वहाँ निवास करते हैं—चाहे वे नीच जाति के हों या पापयुक्त जन्म के—वे भी ईश्वर की कृपा से संसारसागर को पार कर जाते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
परंतु जिनका चित्त पापों से आक्रांत है, उनके लिए विघ्न उपस्थित होते हैं, अतः ब्राह्मणों को मुक्ति के लिए धर्म का अनुसरण करना चाहिए।
यह वेदों का परम रहस्य है, इसे किसी को भी नहीं देना चाहिए। केवल धार्मिक, भक्त और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को ही इसे प्रदान करना चाहिए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
व्यासजी ने कहा:
भगवान ने यह परम उत्तम आत्मयोग बताकर, वहाँ स्थित निष्कलंक नारायण से वार्तालाप किया।
भगवान ने कहा—यह ज्ञान मैंने ब्रह्मवादी संतों के हित के लिए कहा है। इसे शांतचित्त शिष्यों को प्रदान करना चाहिए।
फिर भगवान अजन्मा परमेश्वर ने सभी योगियों से कहा—हे उत्तम ब्राह्मणों! यह ज्ञान सभी भक्तों और ब्राह्मणों के कल्याण हेतु है।
आप सभी विधिपूर्वक मेरे इस ज्ञान को अपने भक्त शिष्यों को प्रदान करें। मैं स्वयं नारायण ही हूँ, इसमें कोई संदेह नहीं।
जो लोग मुझमें और विष्णु में कोई भेद नहीं देखते, वे ही इस परम ज्ञान के अधिकारी हैं। मेरी यह परम मूर्ति नारायणस्वरूप है।
यह समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित, शांत और अक्षरस्वरूप है। किंतु जो लोग संसार में भेदभाव से युक्त दृष्टि रखते हैं, वे मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते और बार-बार जन्म लेते हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो मुझे और इस अव्यक्त विष्णु को एक ही रूप में देखते हैं, वे पुनः जन्म को प्राप्त नहीं करते।
इसलिए, उस अनादि-अनंत, अविनाशी विष्णु को ही परमात्मा मानो और मेरी ही आराधना करो।
जो मुझे अन्य देवताओं से भिन्न मानते हैं, वे भयानक नरकों में जाते हैं और मैं उनके साथ नहीं होता।
यदि कोई मूर्ख, पंडित, ब्राह्मण, या चांडाल भी मेरा भक्त होकर मेरी शरण में आता है, तो मैं उसे मुक्त कर देता हूँ। लेकिन जो लोग नारायण की निंदा करते हैं, उन्हें मैं मुक्त नहीं करता।
इसलिए, जो महायोगी मेरा भक्त है, वही उत्तम पुरुष है, और उसे पूज्य एवं वंदनीय मानना चाहिए।
इस प्रकार कहकर, भगवान पिनाकधारी शिव ने वासुदेव (श्रीकृष्ण) को आलिंगन किया और सभी के देखते-देखते अदृश्य हो गए।
भगवान नारायण भी उस समय एक उत्तम तपस्वी के रूप में प्रकट थे।
योगियों ने परमात्मा के दिव्य स्वरूप को त्यागकर समस्त शुद्ध ज्ञान परमेश्वर की कृपा से प्राप्त कर लिया।
महादेव का यह ज्ञान संसार के बंधनों को नष्ट करने वाला है। अब तुम सभी संतापरहित होकर परमेश्वर के इस ज्ञान को ग्रहण करो।
हे मुनिश्वरों! इस ज्ञान को अपने शिष्यों और धार्मिक व्यक्तियों को प्रदान करो। इसे केवल भक्त, शांतचित्त, धार्मिक और अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति को ही देना चाहिए। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
विशेष रूप से ब्राह्मण को यह दिव्य ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए। इस प्रकार, योगियों में श्रेष्ठ भगवान नारायण स्वयं अंतर्धान हो गए।
देवताओं और मुनियों ने महेश्वर और नारायण की स्तुति कर, अपने-अपने स्थान को प्राप्त किया।
भगवान सनत्कुमार ने यह दिव्य ज्ञान महामुनि संवर्त्त को प्रदान किया। उन्होंने इसे सत्यव्रत को दिया।
योगियों में श्रेष्ठ सनंदन ने इसे महर्षि पुलह को प्रदान किया, और पुलह ने गौतम को।
पुलह, जो प्रजापति थे, उन्होंने इसे वेदों के ज्ञाता अङ्गिरा को दिया, और अङ्गिरा ने भरद्वाज को।
कपिल मुनि ने इसे जैगीषव्य और पञ्चशिख को प्रदान किया।
पराशर मुनि, जो मेरे (व्यास) पिता और समस्त तत्वों के ज्ञाता थे, उन्होंने इसे सनक से प्राप्त किया और इसे वाल्मीकि मुनि को प्रदान किया। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
पूर्वकाल में स्वयं भगवान शिव, जो सती के शरीर से उत्पन्न हुए थे, उन्होंने यह ज्ञान मुझे प्रदान किया।
महायोगी वामदेव, जो स्वयं रुद्र और पिनाकधारी शिव हैं, उन्होंने मुझे यह सर्वोच्च ज्ञान प्रदान किया।
नारायण, जो स्वयं देवकीनंदन श्रीहरि हैं, उन्होंने अर्जुन को यह उत्तम ज्ञान प्रदान किया।
मैंने स्वयं यह ज्ञान वामदेव से प्राप्त किया और रुद्र से भी सुना।
तभी से मेरी भक्ति विशेष रूप से महादेव के प्रति बढ़ी और मैंने रुद्र को अपना शरण्य स्वीकार किया।
आप सभी भगवान शम्भु की शरण लें, जो भूतों के स्वामी, गिरिश (पर्वतों के स्वामी), स्थाणु (अचल), देवों के देव, त्रिशूलधारी और नंदी (गोवृष) को वाहन के रूप में धारण करने वाले हैं।
हे मुनियों! आप सभी भी अपने परिवार सहित भगवान शिव की शरण लें और उनके प्रसाद से कर्मयोग के द्वारा उनका पूजन करें।
आप सभी महादेव, जो गजचर्म धारण करने वाले, सर्पों को आभूषण बनाने वाले और समस्त लोकों के गोपालक हैं, उनकी आराधना करें। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
शौनक आदि मुनियों ने यह सुनकर भगवान महेश्वर को प्रणाम किया और सत्यवतीपुत्र व्यास की भी वंदना की।
उन्होंने हर्षित मन से श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास से कहा—
"हे प्रभु! आपके कृपा से हमें अब वह दुर्लभ भक्ति प्राप्त हो रही है, जो देवताओं के लिए भी कठिन है।"
"हे मुनिश्रेष्ठ! अब हमें वह कर्मयोग बताइए, जिससे भगवान ईश्वर की आराधना कर, मोक्ष की प्राप्ति की जा सके।"
"यह ज्ञान सूतजी भी आपकी उपस्थिति में सुनें और यह समस्त लोकों के कल्याण के लिए प्रचारित हो।"
"जिस कर्मयोग का उपदेश स्वयं भगवान कूर्म रूपी विष्णु ने पूर्वकाल में इन्द्र और मुनियों के प्रश्न पर दिया था।"
सत्यवतीपुत्र व्यास ने तब वह सनातन कर्मयोग, जो पूर्वकाल में देवताओं और मुनियों को उपदेशित किया गया था, शांतचित्त होकर वर्णन किया। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जो मनुष्य इस संवाद को प्रतिदिन पढ़ता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
यदि कोई इस ज्ञान को शुद्ध और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ब्राह्मणों को सुनाता है, या इसके अर्थ का विचार करता है, तो वह परमगति को प्राप्त करता है।
जो व्यक्ति भक्तिभाव से इस ज्ञान का नित्य श्रवण करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है।
इसलिए, सभी मनीषियों को इसे पूरी श्रद्धा से पढ़ना, सुनना और मनन करना चाहिए, विशेष रूप से ब्राह्मणों को।
"इस प्रकार श्रीकूर्मपुराण के षट्सहस्र संहिता के ऊपरिभाग में ईश्वरगीता पूर्ण हुआ"