Upanishads, Advaita Upanishad, Advaitopanishad, Non-Dual Vedanta, and Upanishadic Wisdom converge in this sacred scripture revealing the purest form of Advaita philosophy. Rooted in Sanatana Dharma and Vedic tradition, the Advaita Upanishad expounds the ultimate truth of the Self (Atman) as non-different from Brahman — the formless, infinite reality. Discover the secrets of Self-Realization, Nirguna Brahman, Moksha, and inner liberation through timeless Vedic wisdom. This Upanishad is a direct path to Tattva Jnana, inner stillness, and supreme non-dual consciousness. Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
ॐ अद्वैत पुरुष का कोई द्वितीय भेद नहीं है। स्थिर और जड़-चेतन के मध्य अद्वैत ब्रह्म प्रकाशित है। संपूर्ण लोक के मध्य ब्रह्म द्विविध रूप में विचरता है—चैतन्य चेतना के तेजस्वी स्वरूप में तथा भीतर स्थित कैवल्य आत्मा के रूप में। जैसे सूर्य का तेज केवल सूर्य में ही निहित होता है, वैसे ही अखंड ब्रह्म माया और जगत के त्रिविध अवस्थाओं में भी एक ही रहता है।
जो बुद्धि गर्भावस्था में होती है, वह बाल्यावस्था में नहीं रहती। जो बुद्धि बाल्यावस्था में रहती है, वह यौवनावस्था में नहीं होती। जो बुद्धि यौवनावस्था में होती है, वह वृद्धावस्था में नहीं रहती। वृद्धावस्था में धर्म-कर्म का संयोग होता है, और इसका कारण तत्वज्ञान ही होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
जिसमें ज्ञान का पूर्ण प्रबोधन हो जाता है, वह माया-मोह को त्यागकर समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है और शब्दातीत स्वरूप को प्राप्त करता है। इस प्रकार अद्वैत पुरुष का पूर्ण ब्रह्म रूप प्रकाशित होता है। जैसे नदी का प्रवाह सागर में मिलकर सागर के ही स्वरूप को प्राप्त कर लेता है, वैसे ही ब्रह्म संपूर्ण लोक में व्याप्त होकर प्रकाशित होता है।
यह तत्व न सत, न रज, न तम—तीनों गुणों से परे है। योगी जब वायु का निरोधन करता है और गुरु के उपदेश का पालन करता है, तब वह समस्त दोषों से मुक्त हो जाता है। संपूर्ण दिव्य देह के मध्य परमात्मा प्रकाशित होता है, और भवसागर से मुक्त होकर स्वर्ग में श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
प्रकाश के मध्य माया अपनी क्रीड़ा करती है। जैसे तेल के मध्य मक्षिका (मक्खी) फँसी रहती है, वैसे ही एक देही में ब्रह्म दशधा रूप में विचरता है। नेत्र, प्राण, मन, बुद्धि, पंचेंद्रिय और पंचतत्व—इन सभी के माध्यम से ब्रह्म का प्राकट्य होता है। जैसे घट-घट में अनेक चंद्र प्रतिबिंबित होते हैं, वैसे ही संपूर्ण लोक में ब्रह्म विचरण करता है।
जिसने अद्वैत का तत्त्व जान लिया, वह पुरुष अमूढ़ (मोह से मुक्त) हो जाता है। देव, असुर, मुनि, मनुष्य—इन सबके मध्य, ऊपर और नीचे सभी दिशाओं में ब्रह्म व्याप्त है। जलरहित स्थान में जैसे कुछ भिन्न दिखाई देता है, वैसे ही परम हंस पुरुष के लिए कोई द्वितीयता नहीं होती। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
द्वितीय वस्तु से रहित, अखंडित ब्रह्म तत्व मध्य में प्रविष्ट रहता है। आत्मा अर्धस्थ और पूर्णरूप में स्थित होता है। यही आत्मा व्यापक ब्रह्म ज्ञान और विज्ञान का स्रोत है।
इस प्रकार अद्वैतोपनिषत् पूर्ण होती है।
अद्वैतोपनिषत् का सार यह है कि ब्रह्म अद्वितीय, अखंड और सदा एक समान रूप से व्याप्त है। यह स्थिर भी है और गतिशील भी, जड़ में भी है और चेतन में भी, वह सबमें प्रकाशित रहता है। जैसे सूर्य का प्रकाश केवल सूर्य में ही स्थित होता है, वैसे ही ब्रह्म माया और जगत के अनगिनत रूपों में एक ही रहता है। यह परिवर्तन के पार, अनंत, अविनाशी और शुद्ध चेतना का स्रोत है।
बुद्धि जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक बदलती रहती है, परंतु तत्वज्ञान ही मोक्ष का एकमात्र कारण है। जब कोई आत्मा ज्ञान के प्रकाश में माया और मोह के बंधनों से मुक्त हो जाती है, तब वह ब्रह्म के शुद्ध, अनंत और अमर स्वरूप को प्राप्त कर लेती है। ब्रह्म न सत्व, न रज, न तम—तीनों गुणों से परे है, वह इनसे अछूता और अप्रभावित रहता है।
योगी जब आत्मज्ञान के मार्ग पर चलता है और संपूर्ण अहंकार का विसर्जन कर देता है, तब वह भवसागर से पार होकर दिव्य चेतना में लीन हो जाता है। माया के प्रभाव से वही एक ब्रह्म अनेक रूपों में प्रकट होता है, जैसे जल में अनगिनत चंद्र प्रतिबिंबित होते हैं। लेकिन जो व्यक्ति इस रहस्य को जान लेता है, वह बंधनों से मुक्त होकर परमानंद को प्राप्त करता है।
अद्वैत ब्रह्म ही परम सत्य है—जिसका न आदि है, न अंत, न कोई सीमा। यह सगुण और निर्गुण से परे, रूप और अरूप से परे, समय और स्थान से परे, शाश्वत और सर्वव्याप्त है। जो इस सत्य को आत्मसात कर लेता है, वह जन्म और मरण के बंधनों से मुक्त होकर स्वयं ब्रह्मस्वरूप बन जाता है। यही परम ज्ञान है, यही मोक्ष का द्वार है, और यही अस्तित्व का अंतिम सत्य है।
ब्रह्म अद्वितीय और अखंड है, उसमें कोई द्वैत नहीं है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh
सभी अवस्थाओं में वही एक ब्रह्म विद्यमान रहता है, चाहे वह चेतन हो या अचेतन।
बुद्धि जन्म से वृद्धावस्था तक बदलती है, लेकिन तत्वज्ञान ही मोक्ष का कारण बनता है।
जो माया-मोह से मुक्त होता है, वह ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है।
ब्रह्म तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) से परे है और संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त है।
माया के कारण एक ही ब्रह्म विभिन्न रूपों में दिखता है, जैसे घट-घट में चंद्रमा प्रतिबिंबित होता है।
जो अद्वैत ब्रह्म को जान लेता है, वह समस्त बंधनों से मुक्त होकर परमानंद को प्राप्त करता है।
Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. C. K. Singh