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आज हम वक्त के पार एक ऐसी यात्रा पर निकल रहे हैं, जो हमें ज्ञान के उस गहरे कुएँ तक ले जाएगी, जहाँ ज़िंदगी के सबसे बडे सवालों के जवाब छिपे हैं।
क्या आपने कभी रुककर ये सोचा है... कि हम सब आखिर आते कहाँ से हैं? इस विशाल ब्रह्मांड में हमारे होने का असली मकसद क्या है? और वो कौन-सी अनदेखी शक्ति है, जो इस पूरी कायनात को, इसके हर ज़र्रे को एक अनुशासन में चला रही है?
ये सवाल कोई नए नहीं हैं, ये सिर्फ आज के ज़माने की उपज नहीं हैं। हज़ारों साल पहले, भारत की पावन धरती पर, छह महान ऋषि, सच की ऐसी ही ज़बरदस्त प्यास लिए एक सफ़र पर निकले थे। सुकेशा, सत्यकाम, गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबन्धी—ये छहों अपने वक्त के बडे ज्ञानी थे, लेकिन उनके मन में भी ब्रह्म को लेकर, उस परम सत्य को लेकर, कुछ अनसुलझे सवाल थे।
वे जानते थे कि इन सवालों का जवाब सिर्फ एक ही गुरु दे सकते हैं—अथर्ववेद के महान आचार्य, महर्षि पिप्पलाद। कहते हैं कि वे पीपल के फल खाकर जीवन गुज़ारते थे और तपस्या और ज्ञान की जीती-जागती मूरत थे। ये छहों ऋषि, एक शिष्य की तरह विनम्र होकर, हाथों में यज्ञ की लकड़ी लिए महर्षि पिप्पलाद के आश्रम पहुँचे।
वहाँ उन्होंने जीवन, ब्रह्मांड और चेतना के बारे में छह सबसे बुनियादी और गहरे सवाल पूछे। गुरु और शिष्यों के बीच हुई उस अद्भुत बातचीत में, ज़िंदगी के छह ऐसे रहस्य उजागर हुए जो आज भी हमारी ज़िंदगी के सबसे बडे तनाव, उलझन और भटकाव का हल दे सकते हैं।
आज, हम उसी अविश्वसनीय संवाद की यात्रा करेंगे। हम प्रश्न उपनिषद के उन छह रहस्यों को, एक-एक करके, आसान भाषा में समझने की कोशिश करेंगे। तो चलिए, कुछ पलों के लिए अपनी चिंताओं को परे रखते हैं और ज्ञान के इस सागर में एक डुबकी लगाते हैं।
महर्षि पिप्पलाद ने ऋषियों की जिज्ञासा को देखा, उनके समर्पण को महसूस किया और कहा, "आप सभी पहले से ही तपस्वी हैं, फिर भी, ब्रह्मविद्या को पाने की योग्यता हासिल करने के लिए, आपको एक साल तक मेरे आश्रम में श्रद्धा, तप और ब्रह्मचर्य के साथ रहना होगा। उसके बाद, आपके मन में जो भी सवाल हो, बेझिझक पूछना। अगर मैं उसका जवाब जानता होऊँगा, तो ज़रूर दूँगा।" Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यह महर्षि की विनम्रता थी। वे जानते थे कि ज्ञान आदेश से नहीं, बल्कि धैर्य और पात्रता से मिलता है। एक साल की कठिन तपस्या के बाद, जब छहों ऋषि एक शुद्ध और शांत मन से गुरु के सामने हाजिर हुए, तब प्रश्नोपनिषद का असली सफ़र शुरू हुआ।
प्रश्न उपनिषद। पहला रहस्य - यह सब कहाँ से आया?
सबसे पहले, कात्यायन के वंशज, ऋषि कबन्धी ने आगे बढकर, बडी विनम्रता से अपना सवाल रखा। यह वो सवाल था जो हर जिज्ञासु मन में सबसे पहले उठता है।
उन्होंने पूछा, "भगवन्! कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति?" यानी, "हे भगवन्! ये जो अलग-अलग तरह के जीव-जंतु और ये जो सारी दुनिया है, ये सब आखिर कहाँ से और किससे पैदा होते हैं?"
यह सृष्टि का मूल प्रश्न था। हम, ये पेड़-पौधे, ये ग्रह-नक्षत्र—यह सब आया कहाँ से?
महर्षि पिप्पलाद मुस्कुराए। उन्होंने कोई जटिल वैज्ञानिक फ़ॉर्मूला नहीं दिया, बल्कि सृष्टि के रहस्य को एक सुंदर और सरल जोडे में समझाया।
उन्होंने कहा, "प्रजा की कामना वाले प्रजापति, यानी सृष्टि के रचयिता ने तप किया। उस तप से एक जोडा पैदा हुआ—रयि और प्राण।" उन्होंने सोचा कि यही दोनों मिलकर मेरे लिए अनगिनत तरह की प्रजा पैदा करेंगे।
ये दो शब्द—रयि और प्राण—ही सृष्टि का पूरा रहस्य हैं।
प्राण क्या है? प्राण है ऊर्जा, जीवन-शक्ति, चेतना, जो हर चीज़ को गति देती है। यह वह सक्रिय शक्ति (Active Principle) है जो जीवन देती है। महर्षि ने कहा, "आदित्यः ह वै प्राणः" - यानी, यह सूर्य ही प्राण है। सूरज अपनी ऊर्जा से, अपनी किरणों से इस दुनिया को जीवन देता है। उसके बिना सब कुछ ठंडा, अँधेरा और बेजान हो जाएगा।
और रयि क्या है? रयि है पदार्थ, यानी Matter। यह वह निष्क्रिय शक्ति (Passive Principle) है जो ऊर्जा को रूप और आकार लेने का आधार देती है। महर्षि ने कहा, "रयिरेव चन्द्रमाः" - और यह चंद्रमा ही रयि है। जो कुछ भी ठोस (स्थूल) या सूक्ष्म (अमूर्त) है, वह सब रयि ही है।
कल्पना कीजिए, प्राण एक मूर्तिकार है और रयि उसके हाथ की मिट्टी। मूर्तिकार (प्राण) के बिना मिट्टी (रयि) कोई आकार नहीं ले सकती, और मिट्टी के बिना मूर्तिकार अपनी कला को ज़ाहिर नहीं कर सकता। इसी तरह, प्राण और रयि, यानी ऊर्जा और पदार्थ के इस दिव्य मिलन से ही पूरी सृष्टि का खेल चलता है।
महर्षि ने इसे और साफ़ करते हुए कहा कि एक साल का समयचक्र भी प्रजापति का ही रूप है। इसके दो रास्ते हैं—उत्तरायण और दक्षिणायन। जो लोग सिर्फ भौतिक कर्मों और यज्ञों में लगे रहते हैं, वे चंद्रलोक, यानी दक्षिण मार्ग से जाते हैं और पुण्य खत्म होने पर वापस पृथ्वी पर लौट आते हैं। यह 'रयि' का, यानी पदार्थ का मार्ग है।
लेकिन जो तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और ज्ञान से आत्मा को खोजते हैं, वे सूर्यलोक, यानी उत्तर मार्ग को पाते हैं। यह 'प्राण' का, यानी चेतना का मार्ग है। यह परम आश्रय है, और यहाँ से कोई लौटकर नहीं आता। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यहाँ तक कि दिन और रात भी प्राण और रयि का ही खेल हैं। दिन प्राण है, ऊर्जा और सक्रियता का प्रतीक, जबकि रात रयि है, आराम और पदार्थ का प्रतीक।
आधुनिक जीवन के लिए इसका अर्थ: यह पहला रहस्य हमें वापस हमारी जड़ों से जोड़ता है। आज हम प्रकृति से कट चुके हैं। हम भूल गए हैं कि हम उसी सूरज की ऊर्जा और उसी धरती के पदार्थ से बने हैं। यह हमें सिखाता है कि जीवन में संतुलन ज़रूरी है—पदार्थ (रयि) और चेतना (प्राण) का संतुलन। सिर्फ़ भौतिक चीज़ों के पीछे भागना 'रयि' के रास्ते पर भटकना है, जबकि आत्म-ज्ञान और चेतना के विकास के लिए समय निकालना 'प्राण' के रास्ते पर चलना है। यह रहस्य याद दिलाता है कि हम इस ब्रह्मांड से अलग नहीं, बल्कि उसी की एक लयबद्ध रचना हैं।
प्रश्न उपनिषद। दूसरा रहस्य – हममें सबसे श्रेष्ठ कौन है?
पहले प्रश्न का उत्तर पाकर सब शांत हुए, पर अब एक नया सवाल उठा। विदर्भ देश के भार्गव ऋषि ने दूसरा प्रश्न पूछा, जो हमारे अपने अस्तित्व की गहराइयों में उतरता है।
उन्होंने पूछा, "भगवन्! कत्येव देवाः प्रजां विधारयन्ते? कतर एतत् प्रकाशयन्ते? कः पुनरेषां वरिष्ठः?" यानी, "हे भगवन्! इस शरीर को कितनी शक्तियाँ चलाती हैं और इसे प्रकाशित करती हैं? और उन सब में सबसे महान, सबसे श्रेष्ठ कौन है?"
यहाँ 'देवता' का मतलब है वे शक्तियाँ जो हमारे शरीर और मन को चलाती हैं—हमारी इंद्रियाँ। आँख देखने की शक्ति है, कान सुनने की, और मन सोचने की। भार्गव पूछ रहे थे कि इन सभी शक्तियों में से वह कौन-सी एक परम शक्ति है, जिस पर यह पूरी ज़िंदगी टिकी है?
इस गहरे सवाल का जवाब देने के लिए, महर्षि पिप्पलाद ने एक बहुत सुंदर कहानी का सहारा लिया।
उन्होंने कहा, "हे भार्गव! आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, वाणी, मन, आँख और कान—ये सभी शक्तियाँ एक बार घमंड में भरकर आपस में बहस करने लगीं।" सब यही दावा कर रहे थे, "इस शरीर को हम ही चलाते हैं! हमारे बिना इसका कोई वजूद नहीं।" आँख ने कहा, "मैं न देखूँ तो सब अँधेरा है।" कान ने कहा, "मैं न सुनूँ तो सब ख़ामोश है।" मन बोला, "मेरे बिना कोई सोच-विचार नहीं, कोई एहसास नहीं।"
उनकी इस बहस को शांत करने के लिए, उन सबमें जो मुख्य थे, जो प्राण थे, उन्होंने कहा, "तुम सब बेकार में भरमाए हुए हो। मैं ही हूँ जिसने खुद को पाँच हिस्सों में बाँटकर इस शरीर को संभाला हुआ है। मेरे बिना तुम सब बेजान हो।"
लेकिन इंद्रियों ने उनकी बात पर यकीन नहीं किया। वे सब अपने-अपने अहंकार में डूबे थे।
यह देखकर, प्राण ने उन्हें सबक सिखाने का फ़ैसला किया। वह श्रेष्ठ प्राण, मानो नाराज़ होकर, शरीर से ऊपर की ओर उठने लगा, उसे छोड़ने लगा। जैसे ही प्राण ने शरीर छोड़ना शुरू किया, बाकी सभी देवता, सभी इंद्रियाँ, अपने-आप उखड़ने लगीं। ठीक वैसे ही, जैसे मधुमक्खियों की रानी के छत्ता छोड़ते ही बाकी सभी मधुमक्खियाँ भी उसके पीछे-पीछे उड़ जाती हैं। आवाज़ खामोश हो गई, आँखें देख न सकीं, कान सुन न सके, और मन सोच न सका। शरीर एक बेजान चीज़ की तरह गिरने को हुआ।
जब इंद्रियों ने यह देखा, तो उनका घमंड चूर-चूर हो गया। उन्होंने अपनी ग़लती मान ली और समझ गए कि वे सभी प्राण पर ही टिके हैं। वे प्राण की स्तुति करने लगे और कहा, "हे प्राण! आप ही अग्नि बनकर तपते हैं, आप ही सूर्य बनकर चमकते हैं, और आप ही बादल बनकर बरसते हैं। आप ही इस जगत के रक्षक हैं। हम सब आप पर ही निर्भर हैं। कृपया हम पर प्रसन्न हों और इस शरीर में ही रहें।"
उनकी प्रार्थना सुनकर, प्राण फिर से शरीर में स्थापित हो गए और सभी इंद्रियों ने अपना-अपना काम करना शुरू कर दिया।
आधुनिक जीवन के लिए इसका अर्थ: Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यह दूसरा रहस्य आज की ज़िंदगी के लिए बेहद ज़रूरी है। हम भी अपनी इंद्रियों के ग़ुलाम बन गए हैं। हम अपनी आँखों को सुंदर चीज़ें दिखाने, ज़बान को स्वादिष्ट भोजन चखाने, और मन को लगातार मनोरंजन देने में ही लगे रहते हैं। हम अपनी उपलब्धियों और अपनी सामाजिक स्थिति पर घमंड करते हैं, जो हमारी बाहरी इंद्रियों का ही फैलाव है।
लेकिन हम उस मूल ऊर्जा, उस 'प्राण' को भूल जाते हैं जो इन सबका आधार है। नतीजा? तनाव, चिंता, थकान और 'बर्नआउट'। हम अपनी बैटरी (प्राण) को रिचार्ज किए बिना अपने सारे गैजेट्स (इंद्रियों) का इस्तेमाल करते रहते हैं।
यह रहस्य हमें सिखाता है कि हमारी असली शक्ति हमारी इंद्रियों में नहीं, बल्कि हमारी प्राण-शक्ति में है। योग, प्राणायाम, ध्यान और एक स्वस्थ जीवनशैली—ये सिर्फ़ शारीरिक कसरत नहीं हैं, बल्कि ये प्राण को पोषण देने, उसे संतुलित करने और जगाने के तरीके हैं। जब आपका प्राण शक्तिशाली और संतुलित होता है, तो आपकी इंद्रियाँ और मन अपने आप अनुशासित और चमकदार हो जाते हैं। असली राजा 'प्राण' है, इंद्रियाँ तो बस उसकी सेवक हैं।
प्रश्न उपनिषद। तीसरा रहस्य - यह जीवन ऊर्जा (प्राण) कहाँ से आती है?
अब तक ऋषि सृष्टि और शरीर के रहस्यों को समझ चुके थे। वे जान गए थे कि प्राण ही सबसे श्रेष्ठ है। अब अश्वल के पुत्र, कौसल्य ऋषि के मन में प्राण के स्रोत को जानने की इच्छा जागी। उनका प्रश्न और भी गहरा था।
उन्होंने पूछा, "भगवन्! कुत एष प्राणो जायते? कथमायात्यस्मिञ्छरीरे? ... केनोत्क्रमते?"
यानी, "हे भगवन्! यह प्राण कहाँ से पैदा होता है? यह इस शरीर में कैसे आता है? यह खुद को बाँटकर शरीर में कैसे रहता है? यह शरीर से बाहर (मृत्यु के समय) कैसे निकलता है? और यह बाहरी और भीतरी जगत को कैसे संभालता है?"
यह एक सवाल नहीं, बल्कि सवालों का एक पूरा समूह था, जो प्राण के पूरे विज्ञान को समझना चाहता था।
महर्षि पिप्पलाद ने जवाब दिया, "तुम बहुत गहरे सवाल पूछ रहे हो। सुनो, आत्मनः एष प्राणो जायते"—यह प्राण आत्मा से ही पैदा होता है।
उन्होंने एक अद्भुत मिसाल दी। "जैसे किसी व्यक्ति की छाया उसी से पैदा होती है और उसी पर टिकी रहती है, ठीक उसी तरह यह प्राण आत्मा पर एक परछाई की तरह है।" आत्मा ही मूल है, और प्राण उसका क्रियात्मक रूप है। और यह शरीर में कैसे आता है? "मनोकृतेनायात्यस्मिञ्छरीरे।"—यह मन के संकल्पों और कर्मों के ज़रिए इस शरीर में आता है। हमारे पिछले जन्मों के कर्म और इच्छाएँ ही तय करती हैं कि हमारा प्राण किस शरीर में जाएगा।
अब, शरीर में आने के बाद यह काम कैसे करता है? महर्षि ने समझाया कि जैसे एक सम्राट अपने अधिकारियों को अलग-अलग गाँवों में नियुक्त करता है, वैसे ही मुख्य प्राण खुद को पाँच हिस्सों में बाँटकर शरीर के अलग-अलग हिस्सों को सँभालता है।
ये पाँच प्राण (पंच वायु) हमारे जीवन का आधार हैं:
अपान: यह शरीर के निचले अंगों में रहता है और शरीर से बेकार चीज़ों को बाहर निकालने का काम करता है। यह शरीर की सफ़ाई व्यवस्था है।
प्राण (मुख्य): यह मुँह, नाक, आँख और कान में रहता है और साँस लेने और बाहरी ऊर्जा को अंदर लाने का काम करता है।
समान: यह नाभि के पास रहता है और खाए हुए भोजन को पचाकर उसके रस को शरीर के सभी अंगों तक बराबर पहुँचाता है। यह हमारी पाचन और वितरण प्रणाली है।
व्यान: यह पूरे शरीर की नाड़ियों में फैला रहता है और रक्त संचार को नियंत्रित करता है। यह शरीर की परिवहन प्रणाली है।
उदान: यह गले में रहता है और शरीर को ऊपर की ओर गति देता है। यह हमें बोलने और शरीर को सीधा रखने में मदद करता है। सबसे ज़रूरी बात, मृत्यु के समय यही 'उदान' वायु आत्मा को शरीर से निकालकर उसके कर्मों के अनुसार दूसरे लोकों में ले जाती है।
आधुनिक जीवन के लिए इसका अर्थ: यह तीसरा रहस्य हमारे स्वास्थ्य का ब्लू प्रिंट है। आज मेडिकल साइंस शरीर को अंगों में बाँटकर देखता है, लेकिन आयुर्वेद और योग हमेशा से इन पाँच प्राणों के संतुलन पर ज़ोर देते आए हैं। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
जब हमारा अपान कमज़ोर होता है, तो कब्ज़ और टॉक्सिन्स की समस्या होती है। समान वायु बिगड़ने पर पाचन खराब होता है। व्यान में गड़बड़ी होने पर ब्लड प्रेशर और दिल की समस्याएँ होती हैं। जब प्राण क्षीण होता है, तो हम थका हुआ महसूस करते हैं।
प्राणायाम का अभ्यास सिर्फ़ साँस लेना और छोड़ना नहीं है, यह इन पाँचों प्राणों को संतुलित करने का विज्ञान है। यह रहस्य सिखाता है कि हमारा जीवन एक दिव्य व्यवस्था है, जिसे समझकर हम अपने स्वास्थ्य और अपनी नियति, दोनों के मालिक बन सकते हैं।
प्रश्न उपनिषद। चौथा रहस्य - नींद में हम कहाँ चले जाते हैं?
प्राण के विज्ञान को समझने के बाद, बातचीत चेतना की और भी गहरी अवस्थाओं की ओर मुड़ी। सूर्य के वंशज, गार्ग्य ऋषि ने चौथा सवाल पूछा, जो हम सभी के रोज़ के अनुभव से जुड़ा है, फिर भी एक रहस्य बना हुआ है।
उन्होंने पूछा, "भगवन्! एतस्मिन् पुरुषे कानि स्वपन्ति? कान्यस्मिन् जाग्रति? कतर एष देवः स्वप्नान् पश्यति?"
यानी, "हे भगवन्! इस शरीर में कौन सोता है? कौन जागता रहता है? वह कौन है जो सपने देखता है? और गहरी नींद का सुख किसे मिलता है? आखिर में, ये सब (जागना, सोना, सपने देखना) किस पर टिके हैं?"
यह चेतना की तीन अवस्थाओं—जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति—का सवाल था।
महर्षि पिप्पलाद ने एक और सुंदर मिसाल से समझाया। उन्होंने कहा, "हे गार्ग्य! जैसे सूरज डूबते समय उसकी सारी किरणें उसी में सिमट जाती हैं, और उगते समय फिर से फैल जाती हैं, ठीक उसी तरह, नींद के समय हमारी सारी इंद्रियाँ अपने परम देव, यानी मन में सिमट जाती हैं।"
उस समय यह इंसान न सुनता है, न देखता है, न सूंघता है, न बोलता है। वह बस 'सोता' है।
लेकिन उस समय शरीर में कौन जागता रहता है? महर्षि ने कहा, उस समय इस शरीर रूपी शहर में प्राण की अग्नि ही जागती रहती है। अपान, व्यान, समान जैसे प्राण अपना काम करते रहते हैं, पाचन और साँस चलती रहती है।
तो फिर सपने कौन देखता है? महर्षि ने उत्तर दिया, स्वप्न अवस्था में, यह मन रूपी देव ही अपनी महिमा का अनुभव करता है। वह जो कुछ जाग्रत अवस्था में देखता, सुनता या महसूस करता है, उसे फिर से देखता है। वह ख़ुद ही सब कुछ बनकर अपनी बनाई दुनिया का अनुभव करता है।
लेकिन फिर वह गहरी नींद, वह सुषुप्ति क्या है, जहाँ कोई सपना भी नहीं होता?
महर्षि ने कहा, जब यह मन भी (उदान वायु के) तेज से अभिभूत होकर शांत हो जाता है, तब वह सपने नहीं देखता। उस अवस्था में इस शरीर में परम सुख का अनुभव होता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
यह गहरी नींद की अवस्था है, जहाँ इंद्रियाँ और मन दोनों शांत हैं। कोई विचार नहीं, कोई कल्पना नहीं, सिर्फ़ आराम और आनंद है।
तो आख़िरी सवाल—यह सब, इंद्रियाँ, मन, प्राण, ये सब किस पर टिके हैं? उनका अंतिम आधार क्या है?
महर्षि ने परम सत्य को उजागर किया। उन्होंने कहा, "हे सौम्य! जैसे पक्षी दिन भर उड़ने के बाद रात में आराम के लिए अपने पेड़ पर आकर बैठ जाते हैं, उसी तरह यह सब कुछ—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, आँखें, कान, मन, बुद्धि, प्राण—सब कुछ अंत में परम अक्षर आत्मा में ही स्थित हो जाता है।"
वही आत्मा है जो देखती है, सुनती है, सोचती है और जानती है। जो उस छाया-रहित, शरीर-रहित, शुद्ध, अक्षर ब्रह्म को जान लेता है, वह स्वयं सबकुछ जानने वाला और सर्वरूप हो जाता है।
आधुनिक जीवन के लिए इसका अर्थ: यह चौथा रहस्य हमें हमारे अपने ही वजूद का नक्शा देता है। हम अक्सर खुद को सिर्फ जाग्रत अवस्था से पहचानते हैं—हमारा काम, हमारे रिश्ते, हमारी परेशानियाँ। हम नींद को सिर्फ़ एक शारीरिक ज़रूरत मानते हैं।
लेकिन यह उपनिषद बताता है कि नींद, खासकर गहरी नींद, आत्मा के साथ हमारा रोज़ का मिलन है। यह वह अवस्था है जहाँ हम अपनी सारी भूमिकाओं, चिंताओं और यहाँ तक कि अपनी पहचान से भी आज़ाद होकर, अपने मूल स्रोत, आनंद के सागर में गोता लगाते हैं। इसीलिए गहरी नींद के बाद हम इतना ताज़ा और शांत महसूस करते हैं।
यह ज्ञान हमें ध्यान की गहराई को समझने में भी मदद करता है। ध्यान क्या है? यह जाग्रत अवस्था में ही होशपूर्वक उस गहरी नींद जैसी अवस्था में जाने की कोशिश है—जहाँ इंद्रियाँ और मन शांत हो जाएँ और हम अपनी साक्षी आत्मा में स्थित हो सकें। यह रहस्य हमें सिखाता है कि शांति और आनंद कहीं बाहर खोजने की चीज़ नहीं है, वह हमारे भीतर ही है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
प्रश्न उपनिषद। पांचवां रहस्य - ॐ में छिपी परम शक्ति
चेतना की अवस्थाओं को समझने के बाद, अब बातचीत साधना के एक शक्तिशाली पहलू पर आई। शिवि के पुत्र, सत्यकाम ऋषि ने पाँचवाँ सवाल पूछा, जो ध्यान और मंत्र के विज्ञान से जुड़ा था।
उन्होंने पूछा, "भगवन्! जो मनुष्य जीवन भर, मृत्यु तक, ॐ (ओंकार) का ध्यान करता है, वह उस ध्यान से किस लोक को जीतता है?"
यह एक बहुत ज़रूरी सवाल है। ॐ सिर्फ एक ध्वनि नहीं है, यह हिंदू धर्म का सबसे पवित्र प्रतीक है। इसका जाप क्यों किया जाता है? इससे सच में क्या मिलता है?
महर्षि पिप्पलाद ने जवाब दिया, "एतद्वै सत्यकाम! परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः।"—हे सत्यकाम! यह जो ओंकार है, यही परब्रह्म (सर्वोच्च, निराकार सत्य) भी है और यही अपरब्रह्म (साकार, ईश्वर का रूप) भी है। इसलिए, ज्ञानी इसी के सहारे किसी एक को पा लेता है।
ॐ परम सत्य तक पहुँचने का एक ज़रिया है। फिर महर्षि ने इसके ध्यान की विधि और उसके फल को समझाया, जो ॐ की तीन मात्राओं (अ, उ, म) पर आधारित है।
एक मात्रा का ध्यान: अगर कोई ॐ की सिर्फ पहली मात्रा अ पर ध्यान करता है, तो वह ज्ञान पाकर पृथ्वी पर लौट आता है। यह भौतिक और नैतिक उन्नति का स्तर है।
दो मात्राओं का ध्यान: अगर कोई ॐ की दो मात्राओं अ और उ पर ध्यान करता है, तो वह स्वर्ग के सुख भोगकर फिर से मनुष्य लोक में लौट आता है। यह मानसिक और स्वर्गीय सुखों का स्तर है।
तीन मात्राओं का ध्यान: लेकिन, जो साधक ॐ की तीनों मात्राओं (अ, उ, म) के मिले-जुले रूप से परम पुरुष का ध्यान करता है, वह सूर्यलोक में पहुँचता है। जैसे एक साँप अपनी केंचुली उतारकर आज़ाद हो जाता है, वैसे ही वह साधक सभी पापों से मुक्त हो जाता है। वह ब्रह्मलोक पहुँचकर उस परम पुरुष को देखता है जो सभी जीवों में मौजूद है। यह परम मुक्ति का स्तर है, जहाँ से कोई वापसी नहीं होती।
आधुनिक जीवन के लिए इसका अर्थ: यह पाँचवाँ रहस्य हमें एक शक्तिशाली आध्यात्मिक साधन देता है। आज की तनावभरी ज़िंदगी में हमारा मन लगातार विचारों के शोर से भरा रहता है। ॐ का जाप सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, यह एक 'साउंड थेरेपी' और गहरी ध्यान तकनीक है।
अ ध्वनि नाभि से शुरू होकर शरीर के निचले हिस्से में कंपन करती है। उ ध्वनि छाती और गले में कंपन करती है। म ध्वनि सिर और मस्तिष्क में कंपन पैदा करती है। यह कंपन हमारे नर्वस सिस्टम को शांत करता है, मन को एकाग्र करता है और हमें चेतना की गहरी अवस्थाओं में ले जाता है।
यह रहस्य हमें सिखाता है कि हम अपने जीवन के लक्ष्य के अनुसार ॐ का उपयोग कर सकते हैं। चाहे हमें भौतिक सफलता चाहिए, मानसिक शांति चाहिए, या परम मुक्ति चाहिए, ॐ का ध्यान हमें उस दिशा में ले जाने की क्षमता रखता है। यह एक सार्वभौमिक ध्वनि है जो हमें हमारे भीतर के ब्रह्मांड से जोड़ती है।
प्रश्न उपनिषद। छठा रहस्य - वह परम पुरुष कौन है और कहाँ है?
अब बातचीत अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। पाँचों सवालों के जवाब मिल चुके थे, लेकिन एक आख़िरी रहस्य बाकी था—उस परम सत्ता का, जो इन सबका स्रोत है। भरद्वाज के पुत्र, सुकेशा ऋषि ने आख़िरी और छठा सवाल पूछा। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
उन्होंने एक घटना का ज़िक्र करते हुए कहा, "भगवन्! हिरण्यनाभः कौसल्यो राजपुत्रो मामुपेत्यैतं प्रश्नमपृच्छत—षोडशकलं भारद्वाज! पुरुषं वेत्थ?"—हे भगवन्! कोसल देश के राजकुमार हिरण्यनाभ ने मेरे पास आकर यह सवाल पूछा था, "हे भारद्वाज! क्या तुम उस सोलह कलाओं वाले पुरुष को जानते हो?"
सुकेशा ने राजकुमार से कहा कि मैं उसे नहीं जानता, अगर जानता तो तुम्हें ज़रूर बताता। यह सुनकर राजकुमार चुपचाप चला गया। सुकेशा ने कहा, "अब मैं आपसे वही सवाल पूछता हूँ, क्व असौ पुरुषः?"—वह सोलह कलाओं वाला पुरुष आख़िर कहाँ है?
यह अंतिम प्रश्न था—"मैं कौन हूँ?" का परम रूप। वह कौन है जो सोलह शक्तियों से मिलकर बना है?
महर्षि पिप्पलाद ने आख़िरी रहस्य से पर्दा उठाते हुए कहा, "इहैवान्तःशरीरे सौम्य! स पुरुषो यस्मिन्नेताः षोडश कलाः प्रभवन्तीति।"—हे सौम्य! वह पुरुष कहीं और नहीं, बल्कि यहीं, इसी शरीर के भीतर हृदय-आकाश में रहता है, जिससे ये सोलह कलाएँ पैदा होती हैं।
वह पुरुष, वह आत्मा, हम सबके भीतर है। फिर महर्षि ने उन सोलह कलाओं का वर्णन किया जो उस पुरुष से उत्पन्न होती हैं:
प्राण: सबसे पहले उस पुरुष से 'प्राण' (जीवन शक्ति) पैदा हुआ।
श्रद्धा: प्राण से 'श्रद्धा' (आस्था) पैदा हुई।
पंच महाभूत: श्रद्धा से आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, ये पाँच तत्व बने।
इंद्रिय: फिर 'इंद्रिय' (दस इंद्रियों का समूह) पैदा हुई।
मन: इंद्रियों के बाद 'मन' पैदा हुआ।
अन्न: फिर 'अन्न' (भोजन) पैदा हुआ।
वीर्य: अन्न से 'वीर्य' (बल) पैदा हुआ।
तप: वीर्य से 'तप' (आत्म-अनुशासन) की शक्ति आई।
मंत्र: तप से 'मंत्र' (ज्ञान) प्रकट हुआ।
कर्म: मंत्र से 'कर्म' (क्रिया और उसके फल) का चक्र शुरू हुआ।
लोक: कर्मों के अनुसार अलग-अलग 'लोक' (जगत) बने।
नाम: और अंत में, हर चीज़ को 'नाम' दिया गया, जिससे उसकी पहचान बनी।
ये सोलह कलाएँ मिलकर हमारे व्यक्तित्व और हमारी दुनिया को बनाती हैं। हम ख़ुद को अपना नाम, अपना शरीर, अपना मन और अपने कर्म मानते हैं।
लेकिन परम सत्य क्या है?
महर्षि ने एक अंतिम और सबसे शक्तिशाली मिसाल दी। उन्होंने कहा, "जैसे ये बहती हुई नदियां, जिनकी मंजिल समुद्र है, समुद्र में पहुंचकर विलीन हो जाती हैं, उनके नाम और रूप नष्ट हो जाते हैं और वे केवल 'समुद्र' कहलाती हैं; ठीक उसी तरह, इस साक्षी आत्मा की ये सोलह कलाएं, जिनकी अंतिम मंजिल पुरुष (आत्मा) ही है, उस पुरुष को पाकर विलीन हो जाती हैं। उनके नाम और रूप मिट जाते हैं और केवल 'पुरुष' ही बाकी रहता है। तब वह पुरुष 'अकल' (कला रहित) और 'अमृत' (अमर) हो जाता है।"
आधुनिक जीवन के लिए इसका अर्थ: यह छठा और अंतिम रहस्य जीवन का परम सत्य है। हम पूरी जिंदगी अपनी कलाओं—अपने नाम, अपनी पदवी, अपने ज्ञान, अपने धन, अपने रिश्तों—को बनाने और संवारने में लगे रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि ये सब नदियां हैं, जो एक दिन महासागर में मिल जाएंगी।
हमारा असली स्वरूप ये कलाएं नहीं, बल्कि वह 'पुरुष' है, वह साक्षी चेतना है, जिससे ये कलाएं पैदा हुई हैं। आत्म-ज्ञान का मतलब है इस सच को पहचानना। यह समझना कि 'मैं' यह शरीर नहीं, 'मैं' यह मन नहीं, 'मैं' यह नाम नहीं, बल्कि मैं वह अमर, कला-रहित, शुद्ध आत्मा हूं।
जब यह ज्ञान होता है, तो मृत्यु का डर खत्म हो जाता है, क्योंकि नदियां खत्म होती हैं, सागर नहीं। व्यक्तित्व बदलता है, आत्मा नहीं। यह ज्ञान हमें जीवन की सभी भूमिकाओं को निभाने की आजादी देता है, बिना उनसे चिपके हुए। यह हमें सिखाता है कि हमारा असली घर, हमारी असली पहचान, हमारे भीतर ही है।
प्रश्न उपनिषद। रहस्यों का आधुनिक जीवन में प्रयोग
तो प्रश्न उपनिषद के ये छह रहस्य सिर्फ दार्शनिक विचार नहीं हैं, बल्कि ये हमारी आज की जिंदगी की समस्याओं के लिए व्यावहारिक समाधान हैं।
तनाव और चिंता से मुक्ति: जब हम प्राण की श्रेष्ठता को समझते हैं (दूसरा रहस्य) और ओंकार का ध्यान करते हैं (पांचवां रहस्य), तो हमारा नर्वस सिस्टम शांत होता है और तनाव अपने आप कम हो जाता है। Astro Motive: Philosophy, Spirituality & Astrology by Acharya Dr. Chandan
भ्रम और उद्देश्यहीनता का अंत: जब हम जानते हैं कि सृष्टि प्राण और रयि से बनी है (पहला रहस्य) और हमारा असली स्वरूप अमर आत्मा है (छठा रहस्य), तो जीवन का भ्रम खत्म होता है और हमें एक गहरा मकसद मिलता है।
बेहतर स्वास्थ्य: जब हम पांच प्राणों के विज्ञान को समझते हैं (तीसरा रहस्य) और अपने प्राण को संतुलित करना सीखते हैं, तो हम कई शारीरिक और मानसिक बीमारियों से बच सकते हैं।
अस्तित्व के संकट का समाधान: जब हम चेतना की तीन अवस्थाओं को समझते हैं (चौथा रहस्य) और जानते हैं कि हम इन सबसे परे एक साक्षी हैं, तो अस्तित्व का डर और अकेलापन खत्म हो जाता है।
यह उपनिषद हमें सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करता है और बताता है कि ज्ञान की यात्रा विनम्रता और धैर्य से शुरू होती है।
छहों ऋषियों के सवालों का जवाब देने के बाद महर्षि पिप्पलाद ने कहा, "मैं इस परब्रह्म के बारे में बस इतना ही जानता हूं। इससे परे कुछ भी नहीं है।"
छह ऋषियों ने अपने गुरु की पूजा की और कहा, "आप ही हमारे पिता हैं, जिन्होंने हमें अज्ञान के अंधेरे से ज्ञान के उस पार पहुंचाया है।"
प्रश्न उपनिषद की यह यात्रा हमें यही सिखाती है। छह ऋषियों की यात्रा हमारी अपनी यात्रा है। उनके सवाल हमारे अपने सवाल हैं। और उनके जवाब आज भी उतने ही प्रासंगिक और जीवन बदलने वाले हैं जितने वे हजारों साल पहले थे।
यह हमें याद दिलाता है कि जीवन के सबसे बड़े रहस्यों के जवाब किसी बाहरी किताब या गुरु में नहीं, बल्कि हमारे अपने भीतर की यात्रा में छिपे हैं। हमें बस उन ऋषियों की तरह विनम्रता, श्रद्धा और सच को जानने की गहरी प्यास के साथ अपने अंदर झांकने की जरूरत है।
कभी-कभी हम सोचते हैं कि जीवन का अर्थ दूर किसी पहाड़ की चोटी पर मिलेगा, या किसी खास पल में जब सब कुछ परफ़ेक्ट होगा। लेकिन प्रश्न उपनिषद हमें याद दिलाता है कि सच्चा ज्ञान बाहर से नहीं, भीतर से आता है। यह एक ऐसे दीपक की तरह है जो हमेशा हमारे हृदय में जल रहा है, बस हम धूल हटाना भूल गए हैं। जब हम ध्यान, स्वाध्याय और सचेत जीवन जीने का अभ्यास करते हैं, तो यह दीपक फिर से तेज़ जलने लगता है और हमें दिखाता है कि हम वास्तव में कौन हैं। यही आंतरिक रोशनी हमें हर कठिनाई में राह दिखाती है और हर भ्रम को मिटा देती है।
अंत में, प्रश्न उपनिषद का संदेश यही है कि हम सिर्फ पदार्थ (रयि) का एक पुतला नहीं हैं, बल्कि हम अनंत चेतना (प्राण) की एक दिव्य अभिव्यक्ति हैं। हमारा परम लक्ष्य अपने नदी जैसे व्यक्तित्व को आत्मा के महासागर में विलीन करना है, और 'अकल' और 'अमृत' हो जाना है।
धन्यवाद।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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